भारत में बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना की दिशा में कदम रखने से पूर्व हम अपने बौद्धिक साथियों को शासन और व्यवस्था के शब्द जाल से परिचित करना चाहेंगे. बहुधा शासन-व्यवस्था शब्द-समूह का उपयोग सहज भाव से कर लिया जाता है किन्तु इस शब्द समूह में एक छल समाहित है. वस्तुतः शासन और व्यवस्था दो प्रथक विषय हैं और दोनों का कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है. शासन शोषण का पर्याय है जहां समाज को शासक और शासित वर्गों में विभाजित रखा जाता है. यह मानवता को सामंती युग की देन है और भारत में अभी-भी प्रचलित है. इस में अल्पसंख्यक शासक वर्ग अपने छल-बल से बहुसंख्यक शासित वर्ग का निरंतर शोषण करता रहता है ताकि शोषित वर्ग कदापि शोषण का विरोध करने में समर्थ ही न हो सके.
शासक वर्ग कोई उत्पादक कार्य नहीं करता अपितु शासितों द्वारा किये गए उत्पादन का स्वामी बन बैठता है. किन्तु यह स्वामित्व वहीं तक सीमित रखा जाता है जहां तक कि शासित वर्ग जीवित रह सके क्योंकि शासक वर्ग को शासितों की सतत आवश्यकता होती है. भारतीय पांडित्य परंपरा में इसी को दरिद्र नारायण की पूजा कहा जाता है जिसमें दरिद्रों का अस्तित्व आवश्यक होता है.
संपदा का समुचित वितरण और सभी द्वारा इसका उपभोग किया जाना 'व्यवस्था' कहलाता है. व्यवस्था में कोई स्वामी नहीं होता किन्तु सभी उत्पादक एवं उपभोक्ता होते हैं. इसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके उपभोग के अनुसार वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती हैं. किसी वस्तु का अभाव होने पर सभी के उपभोग में कमी कर दी जाती है, तथा वस्तु की अधिकता होने पर सभी के उपभोग से शेष राशि भावी उपयोग हेतु सार्वजनिक संपदा के रूप में संचित कर दी जाती है. महाभारत पूर्व भारत में देवों द्वारा ऐसी ही व्यवस्था लागू की गयी थी. व्यवस्था में न कोई शासक होता है और न ही कोई शासित. समाज व्यवस्था हेतु कुछ नागरिकों को व्यवस्थापक नियुक्त कर देता है. लगभग २५०० वर्ष पूर्व एथेंस में स्थापित विश्व का प्रथम जनतंत्र ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे देमोक्रितु ने प्रतिपादित किया था. शासन के पक्षधर प्लेटो और अरिस्तु इसके घोर विरोधी थे.
आधुनिक स्वतंत्र समाजों में किसी शासन की आवश्यकता न होकर केवल व्यवस्था की आवश्यकता है. बौद्धिक जनतंत्र भी ऐसी ही व्यवस्था का पक्षधर है.