स्वतंत्रता संग्राम ने भारत को अनेक नेता प्रदान किये थे जिनमें से महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस शीर्षस्थ रहे हैं स्वतन्त्रता के बाद भी सरदार पटेल ने देश के गृहमंत्री के रूप में जो कर दिखाया था नेहरु जैसे तथाकथित नेता उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे. सादगी की प्रतिमूर्ति लाल बहादुर शास्त्री ने कलुषित राजनीति में देश के हितों की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिए. ये दोनों भी स्वतन्त्रता संग्राम की ही देन थे.
देश की उस पीढी के बाद नहरू ने अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए देश में कुशल नेतृत्व का विकास अवरुद्ध कर दिया और नेहरु, इंदिरा आदि के षड्यंत्रों से देश की बागडोर स्वार्थी तत्वों के हाथ में चली गयी, जिसके कारण भारतीयता का अर्थ स्वार्थपरता माना जाने लगा है जिससे आज का भारत पीड़ित है.
गाँव देश की मौलिक इकाई होता है, अतः जो देश में होता है, कुछ वैसा ही गाँव-गाँव में भी होता रहता है. जैसे देश के नेता धनबल के माध्यम से सत्ता हथियाते रहे हैं, कुछ वैसा ही गाँवों में भी होता रहा है. यहाँ स्पष्ट कर दूं कि आदर्श स्थिति में देश का नेतृत्व गाँव-गाँव के नेतृत्व से प्रभावित होना चाहिए, किन्तु भृष्ट राजनीति में गाँव-गाँव का नेतृत्व देश के नेतृत्व से प्रभावित होता है. इसका मूल कारण है कि सदाचार सदैव लघुतम स्तर से विशालता के ओर अग्रसर होता है जबकि भृष्टाचार सदैव उच्चतम स्तर से निम्न स्तर की ओर बढ़ता है. भारत को भृष्टाचार पूरी तरह निगल चुका है.और इसका आरम्भसत्ता के उच्चतम स्तर से आरम्भ हुआ था.
१९४० से लेकर १९८० तक पिताजी श्री करन लाल गाँव तथा क्षेत्र के निर्विवादित नेता थे. उस समय तक लोगों में स्वार्थ भावना जागृत नहीं हुई थी और वे सुयोग्यता और कर्मठता पर सहज विश्वास करते थे. इसलिए गाँव के सभी प्रमुख कार्य पिताजी पर छोड़ दिए जाते थे और वे गाँव के विकास के लिए यथासंभव प्रयास करते रहते थे. सन १९५२ में उन्होंने गाँव के जूनियर हाई स्कूल की नींव डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के हाटों से रखवाई. सन १९५६ में जब गाँव के जमींदारों ने प्राथमिक विद्यालय को उजाड़ दिया था, उस समय गाँव में प्राथमिक विद्यालय के लिए नया भवन बनवाया.
१९६२ में मेरे एक ताउजी श्री नंदराम गुप्त गाँव आये जो उससे पूर्व प्रतापगढ़ जनपद की कुंडा तहसील से समाजवादी विधायक रह चुके थे. पिताजी के बाहर के कामों में व्यस्त रहने के कारण गाँव वालों ने प्रधान पद पर उन्हें विराजित कर दिया. १९६४ में उन्होंने गाँव का विद्युतीकरण करा दिया जब आसपास के किसी गाँव में विद्युतीकरण नहीं हुआ था. उसी काल में उन्होंने गाँव में एक कन्या पाठशाला की स्थापना की. जमींदारों द्वारा उजड़े गए जूनियर हाई स्कूल को पुनः आरम्भ कराया.
गाँव में आज भी विकास के नाम पर पिताजी और ताउजी की ही उक्त चार देनें हैं. इसके बाद गाँव की राजनैतिक सत्ता उन तत्वों के हाथ में खिसक गयी जो गाँव-वासियों का शोषण ही करते रहे हैं. और विगत ४० वर्षों में गाँव में कोई विशेष विकास कार्य नहीं हुआ है. निर्बलों पर अत्याचार, विकास हेतु प्राप्त धन का हड़पा जाना, गाँव सभा की संपदाओं पर व्यक्तिगत अधिकार करना, गाँव के रास्तों पर घर बनाना, खेतों के रास्तों को खेतों में मिलाना, और विद्युत् की चोरी करते रहना आदि ही गाँव की संस्कृति बन गए हैं जिसके लिए गाँव के सबल सत्ताधारी पूरी तरह सक्रिय रहते हैं. इस अवस्था में गाँव का नेतृत्व भृष्ट लोगों द्वारा हथिया लिया गया है.
सन २००० से मैंने गाँव से कुछ सम्बन्ध स्थापित किया है, और २००५ से यहीं स्थाई रूप से रह रहा हूँ. इस अवधि में एक बलात्कार के अपराध में गाँव के सबल लोगों को दंड दिलाया है, प्राथमिक विद्यालय को बचाया है, और गाँव की विद्युत् स्थिति में गुणात्मक सुधार कराये हैं, साथ ही लोगों को विद्युत् चोरी न करने के लिए समझाया है. इस सबसे लोग पुनः जाग्रति की ओर बढ़ रहे हैं और वे दुराचारियों का मुकाबला करने के लिए तैयार हो रहे हैं.
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
संवाद की विलक्षणता
भाषा विकास द्वारा मनुष्य जाति ने अपना मंतव्य स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की विशिष्टता पायी है. इसके लिए दो माध्यम विशेष हैं - वाणी और लेखन. चित्रांकन और भाव प्रदर्शन भी इसके सशक्त माध्यम हैं. प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में इन चारों माध्यमों का उपयोग करता है किन्तु प्रत्येक की सक्षमता दूसरों से भिन्न हो सकती है.
सांवादिक कौशल के निम्नांकित विशेष लक्षण होते हैं -
संक्षिप्त
लम्बे संवाद सुनते समय श्रोता वर्तमान को तो ग्रहण करता जाता है किन्तु विगत तथ्यों को विस्मृत करता जता है. इससे संवाद की सार्ताकता नष्ट हो जाती है. इसलिए प्रत्येक संवाद चाहे मौखिक हो अथवा लिखित, संक्षिप्त होना चाहिए ताकि श्रोता अथवा पाठक एक ही समय पर पूरे संवाद को ग्रहण कर सके. .
पुनरावृत्ति न्यूनतम
किसी संवाद की संक्षिप्ति के लिए यह भी वांछित है कि उसमें बावों की पुनरावृत्ति न्यूनतम हों, तथापि इनकी उपस्थिति किसी भाव पर विशेष बल देने के लिए आवश्यक हो सकती है.
प्रासंगिक
प्रसंग के बाहर जाने पर संवाद का अनावश्यक विस्तार हो जाता है और श्रोता उससे संलग्न नहीं रह पाता. श्रोता की इस अरुचि से संवाद निरर्थक हो जाता है.
बिन्दुवार
किसी वृहत प्रसंग को व्यक्त करने के लिए उसे क्रमित बिन्दुओं में विभाकित किया जाता है इसके बाद संवाद को बिन्दुवार व्यक्त किया जाता है. .
लक्ष्य्परक
प्रत्येक संवाद में दो पक्ष होते हैं - वक्ता तथा श्रोता. प्रत्येक श्रोता किसी संवाद को ग्रहण करने के लिए अपनी विशिष्ट सुयोग्यता रखता है. अतः कोई भी संवाद सभी श्रोताओं के लिए ग्रहणीय नहीं होता और न ही कोई श्रोता सभी संवादों को समान रूप से ग्रहणीय माँ सकता है. अतः प्रत्येक संवाद लक्षित श्रोता वर्ग की योग्यता के अनुसार रचा जाना चाहिए.
कुछ वक्ता संवाद का लक्ष्य-परक निर्धारण न करके उसे अपनी बुद्धिमत्ता के परिचायक के रूप में प्रस्तुत करने की भूल करते हैं जिससे संवाद श्रोता को ग्रहणीय न होने के कारण वक्ता की बुद्धि का परिचायक भी नहीं हो पाता.
शिक्षाप्रद
प्रत्येक संवाद किसी विषय पर केन्द्रित होता है और उसका लक्ष्य श्रोता के उस विषय में ज्ञान को संवर्धित करना ओता है. अत संवाद श्रोता को उस के मूल ज्ञान से आगे की ओर ले जाने में समर्थ होना चाहिए. अन्यथा संवाद में श्रोता की रूचि समाप्त हो जाती है और वह उसे ग्रहण नहीं करता. विषय के अतिरिक्त संवाद यदि श्रोता के भाषा ज्ञान को भी संपुष्ट अथवा संवर्धित करता है तो यह श्रोता के लिए और अधिक लाभकर सिद्ध होता है.
जिज्ञासापरक
संवाद श्रोता में जिज्ञासा जागृत करने वाला तो होना ही चाहिए साथ ही आगे बढ़ता हुआ संवाद श्रोता में जागृत जिज्ञासाओं को संतुष्ट भी करता हुआ होना चाहिए. इससे संवाद में श्रोता की रूचि सतत बनी रहती है.
आधिकारिक
वक्ता को ऐसे ही विषय पर संवाद स्थापित करना चाहिए जिस पर उसका अधिकार हो और वह उसे श्रोता के समक्ष अपनी प्रस्तुति से सिद्ध भी कर सके. तभी श्रोता में वक्ता के प्रति श्रद्धा उगती है और संवाद अधिक सफल सिद्ध होता है.
बहु-माध्यमी
जैसा कि ऊपर का जा चुका है संवाद के चार माध्यम होने संभव होते हैं - वाणी, लेखन, चित्रांकन तथा भाव प्रदर्शन. मौखिक संवाद में वक्ता का भाव प्रदर्शन संवाद तो सशक्त बनता है जब कि लिखित संवाद में चित्रांकन संवाद को सशक्त एवं रुचिकर बनाता है. आधुनिक कम्पुटर की सहायता से स्थापित संवादों में मौखिक संवादों को भी चित्रांकन से संपुष्ट किया जा सकता है. अतः प्रत्येक संवाद में एक से अधिक माध्यमों का उपयोग करना लाभकर सिद्ध होता है.
पारस्परिक संवाद
पारस्परिक संवाद, जिसे साधारंतायाह बातचीत कहा जाता है, प्रत्येक सहभागी के लिए दूसरे व्यक्ति के संवाद का श्रवण उसकी अपनी अभिव्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होता है. इसी से संवाद पूरे समय तक सार्थक रह सकता है.
सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक संवाद मंतव्य को स्पष्ट व्यक्त करता हो, तथा सारगर्भित हो.
सांवादिक कौशल के निम्नांकित विशेष लक्षण होते हैं -
संक्षिप्त
लम्बे संवाद सुनते समय श्रोता वर्तमान को तो ग्रहण करता जाता है किन्तु विगत तथ्यों को विस्मृत करता जता है. इससे संवाद की सार्ताकता नष्ट हो जाती है. इसलिए प्रत्येक संवाद चाहे मौखिक हो अथवा लिखित, संक्षिप्त होना चाहिए ताकि श्रोता अथवा पाठक एक ही समय पर पूरे संवाद को ग्रहण कर सके. .
पुनरावृत्ति न्यूनतम
किसी संवाद की संक्षिप्ति के लिए यह भी वांछित है कि उसमें बावों की पुनरावृत्ति न्यूनतम हों, तथापि इनकी उपस्थिति किसी भाव पर विशेष बल देने के लिए आवश्यक हो सकती है.
प्रासंगिक
प्रसंग के बाहर जाने पर संवाद का अनावश्यक विस्तार हो जाता है और श्रोता उससे संलग्न नहीं रह पाता. श्रोता की इस अरुचि से संवाद निरर्थक हो जाता है.
बिन्दुवार
किसी वृहत प्रसंग को व्यक्त करने के लिए उसे क्रमित बिन्दुओं में विभाकित किया जाता है इसके बाद संवाद को बिन्दुवार व्यक्त किया जाता है. .
लक्ष्य्परक
प्रत्येक संवाद में दो पक्ष होते हैं - वक्ता तथा श्रोता. प्रत्येक श्रोता किसी संवाद को ग्रहण करने के लिए अपनी विशिष्ट सुयोग्यता रखता है. अतः कोई भी संवाद सभी श्रोताओं के लिए ग्रहणीय नहीं होता और न ही कोई श्रोता सभी संवादों को समान रूप से ग्रहणीय माँ सकता है. अतः प्रत्येक संवाद लक्षित श्रोता वर्ग की योग्यता के अनुसार रचा जाना चाहिए.
कुछ वक्ता संवाद का लक्ष्य-परक निर्धारण न करके उसे अपनी बुद्धिमत्ता के परिचायक के रूप में प्रस्तुत करने की भूल करते हैं जिससे संवाद श्रोता को ग्रहणीय न होने के कारण वक्ता की बुद्धि का परिचायक भी नहीं हो पाता.
शिक्षाप्रद
प्रत्येक संवाद किसी विषय पर केन्द्रित होता है और उसका लक्ष्य श्रोता के उस विषय में ज्ञान को संवर्धित करना ओता है. अत संवाद श्रोता को उस के मूल ज्ञान से आगे की ओर ले जाने में समर्थ होना चाहिए. अन्यथा संवाद में श्रोता की रूचि समाप्त हो जाती है और वह उसे ग्रहण नहीं करता. विषय के अतिरिक्त संवाद यदि श्रोता के भाषा ज्ञान को भी संपुष्ट अथवा संवर्धित करता है तो यह श्रोता के लिए और अधिक लाभकर सिद्ध होता है.
जिज्ञासापरक
संवाद श्रोता में जिज्ञासा जागृत करने वाला तो होना ही चाहिए साथ ही आगे बढ़ता हुआ संवाद श्रोता में जागृत जिज्ञासाओं को संतुष्ट भी करता हुआ होना चाहिए. इससे संवाद में श्रोता की रूचि सतत बनी रहती है.
आधिकारिक
वक्ता को ऐसे ही विषय पर संवाद स्थापित करना चाहिए जिस पर उसका अधिकार हो और वह उसे श्रोता के समक्ष अपनी प्रस्तुति से सिद्ध भी कर सके. तभी श्रोता में वक्ता के प्रति श्रद्धा उगती है और संवाद अधिक सफल सिद्ध होता है.
बहु-माध्यमी
जैसा कि ऊपर का जा चुका है संवाद के चार माध्यम होने संभव होते हैं - वाणी, लेखन, चित्रांकन तथा भाव प्रदर्शन. मौखिक संवाद में वक्ता का भाव प्रदर्शन संवाद तो सशक्त बनता है जब कि लिखित संवाद में चित्रांकन संवाद को सशक्त एवं रुचिकर बनाता है. आधुनिक कम्पुटर की सहायता से स्थापित संवादों में मौखिक संवादों को भी चित्रांकन से संपुष्ट किया जा सकता है. अतः प्रत्येक संवाद में एक से अधिक माध्यमों का उपयोग करना लाभकर सिद्ध होता है.
पारस्परिक संवाद
पारस्परिक संवाद, जिसे साधारंतायाह बातचीत कहा जाता है, प्रत्येक सहभागी के लिए दूसरे व्यक्ति के संवाद का श्रवण उसकी अपनी अभिव्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होता है. इसी से संवाद पूरे समय तक सार्थक रह सकता है.
सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक संवाद मंतव्य को स्पष्ट व्यक्त करता हो, तथा सारगर्भित हो.
विष्णु-मरियम विवाह और जीसस का गणेश रूप
कृष्ण और यवनों द्वारा छल-कपट अपनाते हुए देवों की एक-एक करके हत्या की जा रही थी, जिनमें ब्रह्मा (राम), कीचक, कंस, जरासंध, आदि सम्मिलित थे. इससे देवों की संख्या निरंतर कम हो रही थी. विष्णु उस समय तक अविवाहित थे, इसलिए वंश वृद्धि के प्रयोजन हेतु उन्होंने मरियम के साथ विवाह किया, जिसके कारण वे विष्णुप्रिया कहलाने लगीं. वे दूध की तरह गोरी थीं इसलिए उन्हें लक्ष्मी अर्थात दूध जैसी (lactum = दूध) कहा जाने लगा और उनके पति विष्णु लक्ष्मण के नाम से भी जाने जाते थे.
देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.
अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.
जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.
गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.
देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.
अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.
जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.
गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.
विष्णु-मरियम विवाह और जीसस का गणेश रूप
कृष्ण और यवनों द्वारा छल-कपट अपनाते हुए देवों की एक-एक करके हत्या की जा रही थी, जिनमें ब्रह्मा (राम), कीचक, कंस, जरासंध, आदि सम्मिलित थे. इससे देवों की संख्या निरंतर कम हो रही थी. विष्णु उस समय तक अविवाहित थे, इसलिए वंश वृद्धि के प्रयोजन हेतु उन्होंने मरियम के साथ विवाह किया, जिसके कारण वे विष्णुप्रिया कहलाने लगीं. वे दूध की तरह गोरी थीं इसलिए उन्हें लक्ष्मी अर्थात दूध जैसी (lactum = दूध) कहा जाने लगा और उनके पति विष्णु लक्ष्मण के नाम से भी जाने जाते थे.
देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.
अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.
जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.
गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.
देवी लक्ष्मी अत्यंत बलशाली थीं और युद्ध कला में पारंगत, इसलिए विष्णु शत्रु विनाश के लिए भी उनका उपयोग किया करते थे. अपने दुर्गा और काली के छद्म रूपों में भी वे शत्रुओं का विनाश करती रहती थीं. उस समय देवों की संख्या अल्प थी इसलिए प्रत्येक जीवित देव को शत्रुओं में भ्रम और भय फैलाने के लिए अनेक रूप धारण करने होते थे ताकि शत्रुओं को उनकी अल्प संख्या का बोध न हो सके. देवी लक्ष्मी भी इसी कारण से कभी दुर्गा तो कभी काली का रूप धारण किया करती थीं. विष्णु से विवाह के बाद ही विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने चन्द्र गुप्त मोर्य को जन्म दिया था, जो गुप्त वंश के प्रथम सम्राट बने थे.
अल्प संख्यक देवों की सुरक्षा के लिए भी उनका छद्म रूपों में रहना आवश्यक था. भरत छद्म रूप धारण करने और इसके लिए साधन निर्माण में निपुण थे. उन्होंने स्वयं भी नौ रूप धारण किये थे.
जीसस अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे किन्तु उनमे शारीरिक बल का अभाव था. उधर यवन उन्हें पकड़ने के प्रयासों में लगे रहते थे. इसलिए देवों को उनकी सुरक्षा की विशेष चिंता रहती थी. यवनों के भारत में बसने से पूर्व वे किसी भी स्थान पर एक रात्री से अधिक नहीं ठहरते थे जिसके कारण वे अपने शोध और लेखन कार्य नहीं कर पाते थे. उन्हें गुप्त रूप में एक स्थान पर रखने के लिए भरत ने उन्हें गणेश जी का छद्म रूप प्रदान किया.
गणेश जी का रूप प्रदान करने के लिए अगर की नरम काष्ठ से हाथी की सूंड सहित एक मुखौटा बनाया गया जिससे जीसस के सिर और मुख को आवृत किया गया. इसके बाद वे एक स्थान पर रहकर लेखन कार्य करते रहते थे. जीसस को अनेक नामों से भी जाना जाता था जिनमें श्री, प्रथम, गणेश, सृष्टा आदि प्रमुख थे. भाई बहेन गणेश तथा लक्ष्मी की प्रायः एक साथ पूजा अर्चना की जाती है.
रविवार, 11 अप्रैल 2010
विकार, विकृति
विकार
शास्त्रों में 'विकार' शब्द का उपयोग किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के स्थान पर कार्य करने दूसरे व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए उपयोग किया गया जो लैटिन भासा के शब्द 'vicarius' से उद्भूत है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'दोष' है, जो शास्त्रों के हिंदी अनुवाद हेतु उपयुक्त नहीं है.
विकृति
चूंकि शास्त्रीय शब्द कृति का अर्थ 'शासक' है, इसलिए 'विकृति' शब्द का अर्थ 'शासक के स्थान पर कार्य करने वाला व्यक्ति' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ बिगड़ी स्थिति लिया जाता है.
शास्त्रों में 'विकार' शब्द का उपयोग किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के स्थान पर कार्य करने दूसरे व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए उपयोग किया गया जो लैटिन भासा के शब्द 'vicarius' से उद्भूत है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'दोष' है, जो शास्त्रों के हिंदी अनुवाद हेतु उपयुक्त नहीं है.
विकृति
चूंकि शास्त्रीय शब्द कृति का अर्थ 'शासक' है, इसलिए 'विकृति' शब्द का अर्थ 'शासक के स्थान पर कार्य करने वाला व्यक्ति' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ बिगड़ी स्थिति लिया जाता है.
कल्प, विकल्प
कल्प
शास्त्रीय शब्द 'कल्प' ग्रीक भाषा के शब्द 'कोल्पोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'गर्भ' अथवा 'गर्भाशय' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अनक भावों में उपयुक्त किया जाता रहा है जो इसके बारे में अज्ञानता का द्योतक है. चूंकि खडी भी गर्भाशय के रूप में होती है इसलिए शास्त्रों में इसके लिए भी 'कल्प' शब्द का उपयोग किया गया है.
विकल्प
वैदिक संस्कृत में 'वि' प्रत्यत बाद के शब्द द्वारा इंगित वस्तु के समान अथवा उसके स्थान पर उप्युल्ट वस्तु को इंगित करने ले लिए उपयुक्त किया जाता है. इस प्रकार 'विकल्प' का अर्थ 'गर्भ जैसा कोई आवरण' है अथवा ऐसी वस्तु जिसका उपयोग गर्भ के स्थान पर किया जा सकता हो..
शास्त्रीय शब्द 'कल्प' ग्रीक भाषा के शब्द 'कोल्पोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'गर्भ' अथवा 'गर्भाशय' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अनक भावों में उपयुक्त किया जाता रहा है जो इसके बारे में अज्ञानता का द्योतक है. चूंकि खडी भी गर्भाशय के रूप में होती है इसलिए शास्त्रों में इसके लिए भी 'कल्प' शब्द का उपयोग किया गया है.
विकल्प
वैदिक संस्कृत में 'वि' प्रत्यत बाद के शब्द द्वारा इंगित वस्तु के समान अथवा उसके स्थान पर उप्युल्ट वस्तु को इंगित करने ले लिए उपयुक्त किया जाता है. इस प्रकार 'विकल्प' का अर्थ 'गर्भ जैसा कोई आवरण' है अथवा ऐसी वस्तु जिसका उपयोग गर्भ के स्थान पर किया जा सकता हो..
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