मेरा गाँव खंदोई देश के कृषि प्रधान क्षेत्र गंगा-यमुना दोआब में गंगा नदी से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पर बुलंदशहर जनपद में स्थित है. यह क्षेत्र कला और संस्कृति की दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ा है तथापि राजनैतिक चेतना से भरपूर है. किन्तु यह राजनैतिक चेतना देश की राजनीति की तरह ही निजी स्वार्थों पर केन्द्रित है, देश और समाज के हितों से इसका कोई सरोकार नहीं रह गया है. परन्तु यह सदा से ऐसा नहीं था.
देश के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरे गाँव का योगदान दूर तक जाना जाता था जिसका क्षत्रीय नेतृत्व मेरे पिताजी श्री करनलाल करते रहे थे. पिताजी की राजनैतिक चेतना १९४० से आरम्भ होकर १९९० तक सक्रिय रही जिसके दौरान वे देश की स्वतंत्रता के लिए तथा बाद में समाजवादी आंदोलनों में लगभग बीस बार जेल गए. इन जेल यात्राओं में देश में १९७६-७७ की आपातस्थिति भी सम्मिलित है जब जवाहरलाल नेहरु की पुत्री इंदिरा गांधी ने देश पर अपनी तानाशाही थोपी थी और देश-भक्तों से कारागारों को भर दिया था. यह देश के राजनैतिक पतन का आरम्भ था जो उग्र होता रहा और पिताजी राजनीति से शनैः-शनैः दूर होते गए.
१९७७ से ही पिताजी ने ग्राम-स्तर की राजनीति का परित्याग कर दिया था जिससे गाँव की राजनैतिक सत्ता धीरे-धीरे असामाजिक तत्वों ने हथिया ली. ऐसा ही पूरे देश में भी हुआ है अतः देश के प्रत्येक गाँव की राजनैतिक स्थिति देश की राजनैतिक स्थिति का ही प्रतिबिम्ब है, मेरा गाँव भी इसका अपवाद नहीं रह पाया है. गाँव में शिक्षा केवल नाम मात्र के लिए रह गयी है, शराबखोरी बच्चों को भी डस रही है, विकास और समाज कल्याण के नाम पर केवल भृष्टाचार व्याप्त है. सार्वजनिक संपत्तियों पर सामर्थ्यवानों के निजी अधिकार स्थापित हैं. बिजली की चोरी अधिकार समझी जाने लगी है और इसका खुला दुरूपयोग किया जा रहा है. विद्युत् अधिकारी इसके प्रति उदासीन हैं अथवा इसके माध्यम से अपनी जेबें भर रहे हैं. जनसाधारण अपने जीवन-यापन की व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा है कि उसके जीवन में मानवीय चिंतन के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति सबकुछ निजी स्वार्थों की आपूर्ति हेतु ही करता है, सामाजिक चिंतन उसकी जीवन चर्या और बुद्धि से बहुत दूर हो गया है.
ऐसी स्थिति में मैं अब से लगभग ५ वर्ष पूर्व सन १९६१ के बाद यहाँ स्थायी निवास के लिए आ पहुंचा हूँ और यहाँ की स्थिति देखकर दुखी हूँ. इसी संवेदना से उदित हुआ है मेरा यह संलेख जो यहाँ मेरे सामाजिक और राजनैतिक सरोकारों और प्रयोगों का एक झरोखा होगा.
मंगलवार, 23 मार्च 2010
नाट्य, नाशी
वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त 'नाट्य' शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'natio' से बनाया गया है जिसका अर्थ 'राष्ट्र' अथवा 'जाति' होता है. वर्तमान में एक राष्ट्र में अनेक जातियों के उपस्थित होने तथा एक जाति के अनेक राष्ट्रों में उपस्थित होने से 'राष्ट्र' एवं 'जाति' शब्दों के अर्थ भिन्न हो गए हैं. किन्तु शास्त्रों के रचना काल में एक जाति के क्षेत्र को ही एक राष्ट्र कहा जाता था.
natio शब्द से ही लैटिन का शब्द nasci सम्बंधित है जिसका अर्थ 'जन्म देना' है. इसका देवनागरी स्वरुप 'नाशी' है. इस प्रकार नाट्य शब्द 'राष्ट्र' के सापेक्ष 'जाति' के अधिक निकट है.
natio शब्द से ही लैटिन का शब्द nasci सम्बंधित है जिसका अर्थ 'जन्म देना' है. इसका देवनागरी स्वरुप 'नाशी' है. इस प्रकार नाट्य शब्द 'राष्ट्र' के सापेक्ष 'जाति' के अधिक निकट है.
देव
शास्त्रीय शब्द 'देव' लैटिन भाषा के शब्द theo से उद्भूत है जो उस मानव जाति के नाम के रूप में उपयुक्त किया गया जिसने बारतीय उपमहाद्वीप पर मानव सभ्यता का विकास आरम्भ किया था. पुरु वंश इसी जाति का अंग था जो मूलतः अब थाईलैंड कहे जाने वाले भूभाग पर रहता था और उत्तरी भारतीय क्षेत्र पर विकास कार्य आरम्भ किये थे. ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर इसी वंश के तीन भाई थे जिन्हें क्रमशः राम, लक्ष्मण, भरत बी कहा जाता है. कृष्ण के नेतृत्व में यवनों ने इनके विकास कार्य में व्यवधान उत्पन्न किये तथा महाभारत युद्ध में भारत की राजसत्ता हथिया ली. बाद में विष्णु ने विष्णु गुप्त चाणक्य नाम से उस पराजय का बदला लिया और चन्द्र गुप्त मौर्य को सम्राट बना भारत भूमि पर गुप्त वंश के साम्राज्य का सूत्रपात किया. इस प्रकार भारत का वर्तमान वैश्य समाज ही देव जाति का वर्तमान प्रतिनिधि है.
शुक्रवार, 19 मार्च 2010
शिक्षा व्यवस्था
बौद्धिक जनतंत्र में अकादमी शिक्षा के पांच स्तर निर्धारित किये गए हैं -
इनमें से माध्यम के तीन वर्गों के पश्चात तकनीकी एवं व्यावसायिक प्रशिक्षा के प्रावधान हैं, जिनको निम्नांकित चार्ट में दर्शाया गया है -
उपरोक्त चार्ट में प्रशिक्षा क्षेत्र में वर्त्तमान की तुलना में कुछ परिवर्तन दर्शाया गया है, जो इंजीनियरिंग एवं चिकित्सा आदि व्यावसायिक प्रशिक्षाओं के बारे में हैं, वर्तमान में ये प्रशिक्षएं माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् दी हा रही हैं और ४/५ वर्ष की हैं. इनमें परिवर्तन करके ये प्रशिक्षएं स्नातकोत्तर होंगी और ३ वर्ष की अवधि की होंगी.
उक्त विविद शिक्षा एवं प्रशिक्षा क्षेत्रों में देश की आवश्यकतानुसार संस्थानों की स्थापना एवं उनका विकास किया जायेगा ताकि मानव संसाधन का किसी भी क्षेत्र में न तो बहुलता हो और न ही अभाव. स्पर्द्धा को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से कठोर नियोजन एवं अनुपालन द्वारा विलुप्त कर दिया जायेगा ताकि नागरिकों के जीवन तनाव-मुक्त बन सकें. वर्त्तमान में, मानव संसाधन नियोजन का नितांत अभाव है जिससे अभावों और प्रतिस्पर्द्धाओं का संवर्धन हुआ है और अधिकाँश नागरिक तनावग्रस्त हैं. .
जैसा कि इस संलेख में बार बार कहा जा चुका है, देश में सभी शिक्षा एवं प्रशिक्षाएं निःशुल्क होंगी तथा इन्हें प्राप्त करने के अवसर सभी नागरिकों को एक समान रूप से उपलब्ध होंगे. इस उद्देश्य से देश भर में फैले निजी शिक्षा, प्रशिक्षा संसथान बंद कर दिए जायेंगे ताकि शिक्षा के क्षेत्र में धनाढ्यता के आधार पर अंतराल न हो जैसा कि अभी हो रहा है.
- प्राथमिक शिक्षा - ५ वर्ष,
- आधारिक शिक्षा - ४ वर्ष,
- माध्यमिक शिक्षा - ३ वर्ष,
- स्नातक शिक्षा - ३ वर्ष,
- स्नातकोत्तर शिक्षा - ३ वर्ष
इनमें से माध्यम के तीन वर्गों के पश्चात तकनीकी एवं व्यावसायिक प्रशिक्षा के प्रावधान हैं, जिनको निम्नांकित चार्ट में दर्शाया गया है -
उपरोक्त चार्ट में प्रशिक्षा क्षेत्र में वर्त्तमान की तुलना में कुछ परिवर्तन दर्शाया गया है, जो इंजीनियरिंग एवं चिकित्सा आदि व्यावसायिक प्रशिक्षाओं के बारे में हैं, वर्तमान में ये प्रशिक्षएं माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् दी हा रही हैं और ४/५ वर्ष की हैं. इनमें परिवर्तन करके ये प्रशिक्षएं स्नातकोत्तर होंगी और ३ वर्ष की अवधि की होंगी.
उक्त विविद शिक्षा एवं प्रशिक्षा क्षेत्रों में देश की आवश्यकतानुसार संस्थानों की स्थापना एवं उनका विकास किया जायेगा ताकि मानव संसाधन का किसी भी क्षेत्र में न तो बहुलता हो और न ही अभाव. स्पर्द्धा को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से कठोर नियोजन एवं अनुपालन द्वारा विलुप्त कर दिया जायेगा ताकि नागरिकों के जीवन तनाव-मुक्त बन सकें. वर्त्तमान में, मानव संसाधन नियोजन का नितांत अभाव है जिससे अभावों और प्रतिस्पर्द्धाओं का संवर्धन हुआ है और अधिकाँश नागरिक तनावग्रस्त हैं. .
जैसा कि इस संलेख में बार बार कहा जा चुका है, देश में सभी शिक्षा एवं प्रशिक्षाएं निःशुल्क होंगी तथा इन्हें प्राप्त करने के अवसर सभी नागरिकों को एक समान रूप से उपलब्ध होंगे. इस उद्देश्य से देश भर में फैले निजी शिक्षा, प्रशिक्षा संसथान बंद कर दिए जायेंगे ताकि शिक्षा के क्षेत्र में धनाढ्यता के आधार पर अंतराल न हो जैसा कि अभी हो रहा है.
गुरुवार, 18 मार्च 2010
यक्ष्मा
शास्त्रों में 'यक्ष्मा' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द eczema से उद्भूत है जिसका अर्थ 'त्वचा में खुजलाहट वाला एक विकार' है. किन्तु आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'श्वसन तंत्र का रोग' लिया गया है जिसे उर्दू में तपेदिक कहते हैं. अतः आयुर्वेद में जो औषधि त्वच रोग के उपचार हेतु निर्धारित है आयुर्वेदाचार्य उसका उपयोग श्वसन तंत्र के रोग के उपचार के लिए कर रहे हैं और रोगियों का सत्यानाश कर रहे हैं. ऐसे कृत्यों से हमारा शास्त्रीय ज्ञान कुख्यात हो रहा है.
व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टिकोण
हम में से प्रत्येक व्यक्ति दो प्रकार के उद्देश्यों के लिए कार्य करता है - व्यक्तिगत हितों के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए. इन दो उद्देश्यों के लिए हमारे दायित्व भिन्न होते हैं इसलिए हमारी भूमिकाएं भी भिन्न होनी चाहिए. इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक को दो भिन्न दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है - व्यक्तिगत और सामाजिक. उदाहरण के लिए, परिवार के पालन-पोषण के लिए व्यक्तिगत दृष्टिकोण का महत्व है जबकि शासन व्यवस्था में मतदान द्वारा योगदान के लिए सामाजिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक होता है.
सन्दर्भ के अनुकूल दृष्टिकोणों का यह अंतराल वांछित है किन्तु अधिकाँश व्यक्ति व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए सामाजिक दृष्टिकोण को नकार देते हैं. यही मानव की निर्बलता है जो उसे पशुता की ओर ले जाती है. भारत की शासन व्यवस्था में इसे स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है.
किसी भी व्यक्ति को निजी दायित्वों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और इसके लिए निजी हितों का पोषण करना आवश्यक होता है. साथ ही किसी भी मनुष्य को अपने सामाजिक दायित्वों से भी विमुख नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मानवता की एक श्रेष्ठ व्यवस्था - सामाजिकता, से लाभान्वित नहीं हो सकता, साथ ही सामाजिक व्यवस्ता को प्रदूषित कर समाज के दूसरे सदस्यों के लिए भी कठिनाइयाँ उत्पन्न करता है. इन दोनों भूमिकाओं के सफल निर्वाह के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति अपने अपने सामाजिक दायित्व निर्वाह में भी अपने निजी हितों की संतुष्टि को समझे. सामाजिक दायित्व निर्वाह से सामाजिक व्यवस्था स्वस्थ बनी रहती है जिससे समाज के सभी अंगों के हित साधित होते हैं. निजी स्वार्थों के लिए इनकी बलि देने से व्यक्ति स्वयं सामाजिक व्यवस्था को प्रदूषित कर अपना भी अहित करता है.
सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण के दुष्प्रभाव को व्यक्ति इसलिए अनुभव नहीं करता क्योंकि इनका प्रभाव उस पर अल्प किन्तु उसकी भावी पीढ़ियों पर गंभीर होता है. चूंकि भावी पीढ़ियों का हित भी व्यक्ति के निजी हितों का पोषण होता है इसलिए वस्तुतः सामाजिक हित चिंतन भी निजी हितों का सुदूर पोषण होता है.
व्यक्ति की आयु का उस पर निजी हितों के भार का सीधा सम्बन्ध होता है आयु वृद्धि के साथ-साथ निजी दायित्व न्यून होते जाते हैं और आदर्श स्थिति में ५० वर्ष की आयु में ये शून्यस्थ हो जाने चाहिए. इसलिए, अतः युवा अवस्था में व्यक्ति पर निजी दायित्वों का भार अधिक होता है, ऐसी अवस्था में उसके द्वारा सामाजिक दायित्वों की अवहेलना होना संभव है इसके लिए उसे पूर्णतः दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सामाजिक व्यवस्था की तत्कालीन स्थिति भी इसके लिए दोषी हो सकती है जो समाज के ज्येष्ठ वर्ग और व्यत पीढ़ियों की देन होती है. किन्तु आयु वृद्धि के साथ भी यदि व्यक्ति सामाजिक दायित्वों की अवहेलना करता है तो उसका अपराध अक्षम्य होता है. ऐसा व्यक्ति अपनी पशुता के कारण मानवता के ऊपर अवांछित भार होता है.
अविकसित तथा भारत जैसे अर्ध-विकसित देशों में जनसाधारण अपनी पशुता से ऊपर नहीं उठ पाए हैं, यदा कदा जो सुधार होते हैं, सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण से वे पुनः विलुप हो जाते हैं. ऐसे समाजों में पशु गुण संपन्न व्यक्तियों को ही मानव कहा जाने लगता है. इस कारण से जो व्यक्ति पूरी सावधानी से अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हैं वे महामानवता के पथ पर अग्रसर कहे जा सकते हैं. आधुनिक विश्व में लेव तोल्स्तोय, महात्मा गाँधी, सुभाष बोस, अब्राहम लिंकन, आदि महामानव बनते रहे हैं.
सन्दर्भ के अनुकूल दृष्टिकोणों का यह अंतराल वांछित है किन्तु अधिकाँश व्यक्ति व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए सामाजिक दृष्टिकोण को नकार देते हैं. यही मानव की निर्बलता है जो उसे पशुता की ओर ले जाती है. भारत की शासन व्यवस्था में इसे स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है.
किसी भी व्यक्ति को निजी दायित्वों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और इसके लिए निजी हितों का पोषण करना आवश्यक होता है. साथ ही किसी भी मनुष्य को अपने सामाजिक दायित्वों से भी विमुख नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मानवता की एक श्रेष्ठ व्यवस्था - सामाजिकता, से लाभान्वित नहीं हो सकता, साथ ही सामाजिक व्यवस्ता को प्रदूषित कर समाज के दूसरे सदस्यों के लिए भी कठिनाइयाँ उत्पन्न करता है. इन दोनों भूमिकाओं के सफल निर्वाह के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति अपने अपने सामाजिक दायित्व निर्वाह में भी अपने निजी हितों की संतुष्टि को समझे. सामाजिक दायित्व निर्वाह से सामाजिक व्यवस्था स्वस्थ बनी रहती है जिससे समाज के सभी अंगों के हित साधित होते हैं. निजी स्वार्थों के लिए इनकी बलि देने से व्यक्ति स्वयं सामाजिक व्यवस्था को प्रदूषित कर अपना भी अहित करता है.
सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण के दुष्प्रभाव को व्यक्ति इसलिए अनुभव नहीं करता क्योंकि इनका प्रभाव उस पर अल्प किन्तु उसकी भावी पीढ़ियों पर गंभीर होता है. चूंकि भावी पीढ़ियों का हित भी व्यक्ति के निजी हितों का पोषण होता है इसलिए वस्तुतः सामाजिक हित चिंतन भी निजी हितों का सुदूर पोषण होता है.
व्यक्ति की आयु का उस पर निजी हितों के भार का सीधा सम्बन्ध होता है आयु वृद्धि के साथ-साथ निजी दायित्व न्यून होते जाते हैं और आदर्श स्थिति में ५० वर्ष की आयु में ये शून्यस्थ हो जाने चाहिए. इसलिए, अतः युवा अवस्था में व्यक्ति पर निजी दायित्वों का भार अधिक होता है, ऐसी अवस्था में उसके द्वारा सामाजिक दायित्वों की अवहेलना होना संभव है इसके लिए उसे पूर्णतः दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सामाजिक व्यवस्था की तत्कालीन स्थिति भी इसके लिए दोषी हो सकती है जो समाज के ज्येष्ठ वर्ग और व्यत पीढ़ियों की देन होती है. किन्तु आयु वृद्धि के साथ भी यदि व्यक्ति सामाजिक दायित्वों की अवहेलना करता है तो उसका अपराध अक्षम्य होता है. ऐसा व्यक्ति अपनी पशुता के कारण मानवता के ऊपर अवांछित भार होता है.
अविकसित तथा भारत जैसे अर्ध-विकसित देशों में जनसाधारण अपनी पशुता से ऊपर नहीं उठ पाए हैं, यदा कदा जो सुधार होते हैं, सामाजिक व्यवस्था के प्रदूषण से वे पुनः विलुप हो जाते हैं. ऐसे समाजों में पशु गुण संपन्न व्यक्तियों को ही मानव कहा जाने लगता है. इस कारण से जो व्यक्ति पूरी सावधानी से अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हैं वे महामानवता के पथ पर अग्रसर कहे जा सकते हैं. आधुनिक विश्व में लेव तोल्स्तोय, महात्मा गाँधी, सुभाष बोस, अब्राहम लिंकन, आदि महामानव बनते रहे हैं.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)