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सोमवार, 19 जुलाई 2010

जातीय विष का प्रत्युत्तर

निर्धन लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध करने के लिए राज्य की ओर से उनकी बस्तियों में हैण्ड-पम्प लगाये जाते हैं. यह एक सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य है जिसकी सराहना की जानी चाहिए. मेरे गाँव में भी अनेक हैण्ड-पम्प लगाये गए हैं, जिनमें से अनेक पम्पों का सामान चोरी कर लिया गया है. यह कार्य किसी आर्थिक लाभ के लिए न किया जाकर शराबियों द्वारा शराब पीने के लिए किया जाता है.

जिस समय ग्रीष्म ऋतू अपने भीषणतम रूप में थी एक निर्धन बस्ती का हैण्ड-पम्प ख़राब हो गया जिस पर लगभग ३० परिवारों का जीवन निर्भर है. जब मैं इसे ठीक करने के लिए जल निगम के कार्यालय को जा रहा था तो मुझे ज्ञात हुआ कि गाँव के तीन अन्य हैण्ड-पम्प भी वर्षों से ख़राब पड़े हैं जिनपर निर्धन लोग निर्भर करते हैं जो उन्हें ठीक करने में असमर्थ रहते हैं. अतः मैंने चारों पम्पों को ठीक करने का प्रयास किया. राज्य कार्यालय ने मुझे सूचित किया कि उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए सरकार के पास धन उपलब्ध नहीं है.

लगभग ६ माह बाद उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए धन उपलब्ध हुआ और तीन हैण्ड-पम्प ठीक स्थिति में वांछित स्थलों पर लगा दिए गए. चौथा हैण्ड-पम्प गाँव के एक मुख्य मार्ग पर था जिसका उपयोग उस मार्ग के यात्रियों द्वारा किया जाता था. पम्प ठीक करने वाला दल ने जब इस पर कार्य आरम्भ किया तो कुछ धनाढ्य लोगों ने इस पम्प को इसके मूल स्थल से दूर एक व्यक्ति के व्यक्तिगत स्थान पर लगाने के लिए दल को बहला फुसला कर राजी कर लिया जो अवैध था.

नवीन स्थल पर कार्य चल ही रहा था कि मुझे इसका ज्ञान हो गया और मैंने इसकी अवैधता पर बल देते हुए कार्य को रुकवा दिया. इस पर मुझे ज्ञात हुआ कि इस पम्प के विस्थापन में एक विशेष जाति के लोग रूचि ले रहे थे, जिनमें मेरे अनेक सहयोगी भी सम्मिलित थे. मेरे विरोध करने पर मुझ पर एक जाति विशेष का विरोध करने का आरोप लगाया गया और लोगों को जातीय आधार पर एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया गया.

इसी जाति के मेरे सहयोगी मुझे गाँव के प्रधान पद पर देखना चाहते हैं किन्तु इस घटना से सिद्ध हुआ कि ये लोग मेरा अनुचित लाभ उठाते हुए अपनी जाति के हितों का अनुचित पोषण करना चाहते हैं जिससे अन्य जातियों के हितों का हनन होना स्वाभाविक है. उक्त पम्प के विस्थापन को मेरे विरुद्ध जातीय विष फ़ैलाने का साधन बनाया गया ताकि मेरे सहयोगी ही मेरे विरुद्ध होकर शत्रु पक्ष में सम्मिलित हो जाएँ.

गाँव में जातीय विष फ़ैलाने के प्रयास सदैव किये जाते रहे हैं, जिसमें गाँव में मेरी जाति का केवल एक परिवार होने के कारण मेरे परिवार की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. किन्तु मेरे पिताजी ने सदैव इस विष का डट कर सामना किया था जिसके कारण वे तीन पंचवर्षीय सत्रों में गाँव के प्रधान रहे, और एक सत्र में मेरे ताऊजी प्रधान रहे. अब मेरे इस क्षेत्र में आने पर मेरे विरुद्ध भी जातीय विष को उभारा गया.
Caste, Society and Politics in India from the Eighteenth Century to the Modern Age (The New Cambridge History of India)

मैंने पूरी दृढ़ता से पम्प के अवैध विस्थापन का ही विरोध नहीं किया, जातीय आधार पर संगठित होने वाले अपने सहयोगियों का भी मुकाबला किया जिसके लिए मैंने प्रधान पद के लिए अपनी दावेदारी भी ठुकरा दी. अंततः जातीय एकता विखंडित हुई और मेरे सहयोगी अपनी भूल स्वीकारते हुए पुनः मेरे पक्ष में आ गए. यदि मैं दृढ़ता न दर्शाता तो यह निश्चित था कि पूरा गान जातीय आधार पर विघटित हो जाता जिसमें मेरे लिए कोई स्थान नहीं होता. मेरी दृढ़ता से मेरी शक्ति सम्वधित हुई है.

रविवार, 27 जून 2010

इतिहास की पुनरावृत्ति

'इतिहास दोहराता है' - यह सुना था किन्तु आशा नहीं थी कि यह कथावत मेरे समक्ष चरितार्थ होगी. सन १९४० में पिताजी श्री करन लाल अपनी युवावस्था में ही देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे और ४२ में क्षेत्र के क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे थे. उस समय ब्रिटिश सरकार ने पिताजी का दमन करने का भरसक प्रयास किया. स्वतंत्र भारत में देश के विदेश मंत्री रहे श्री सुरेन्द्र पाल सिंह जैसे अँगरेज़ भक्त पिताजी की हस्ती मिटाने के लिए कृतसंकल्प थे. गाँव के जमींदार और उनके पिट्ठू प्रत्येक तरीके से उन्हें कारागार में डलवाने और मरवाने में अपना योगदान देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे.

दूसरी ओर पिताजी क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि आम आदमी अपनी जान हथेली पर रख कर भी उनके जीवन की रक्षा के लिए तैयार रहता था. इसके कारण अँगरेज़ सरकार, जमींदार, तथा दूसरे देशद्रोही पिताजी का बाल भी बांका न कर सके. इसी समर्थन के कारण पिताजी ने अंग्रेजों को क्रांति का सन्देश देने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के चरोरा निरीक्षण भवन को आग लगा दी. इस काण्ड के बाद तो दोनों पक्षों में और भी अधिक ठन गयी. पिताजी के अतिरिक्त अन्य सभी साथी पकडे गए, कुछ ने क्षमा मांग ली, तो कुछ अंग्रेजों के गवाह बन गए, किन्तु अधिकाँश टस से मस नहीं हुए और दंड के भागी बने. पिताजी फरार हो गए. अंततः पिताजी के विरुद्ध देखते ही गोली मारने के आदेश जारी कर दिए.

उस समय बुलंदशहर के एक न्यायाधीश श्री डी. पद्मनाभन थे जो देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और पिताजी के विरुद्ध मुकदमा उन्ही के नयायालय में था. उन्होंने पिताजी को गुप्त सन्देश भिजवाया कि जब तक हार्डी बुलंदशहर का कलेक्टर है, तब तक फरार हे रहें और अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखें. तदनुसार पिताजी १६ माह फरार रहे और अंततः श्री डी. पद्मनाभन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इस अवधि में वे अधिकाँश रात्रियाँ खेतों में छिप कर व्यतीत करते थे और दिन में गुप्त सभाएं करके जन-जागरण करते थे. लोग उन्हें अपनी बैलगाड़ियों में बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे.

स्वतन्त्रता आन्दोलन में पिताजी अनेक बार कारागार में रहे किन्तु कभी क्षमा नहीं माँगी. स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने १९५२ में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से विधान सभा का चुनाव लड़ा किन्तु ३०० मतों से पराजित हुए. वे गाँव के तीन बार प्रधान चुने गए और उन्होंने गाँव में अनेक विकास कार्य किये थे. वे निर्भीक रहकर निर्धन निस्सहाय लोगों लोगों की सहायता करते थे, इसलिए गाँव के जमींदार और उनके संगी पिताजी के शत्रु बने रहे और अनेक बार उन्हें मरवाने के षड्यंत्र रचे. आम लोगों के सहयोग के कारण सभी षड्यंत्र असफल रहे और पिताजी सभी षड्यंत्रकारियों की मृत्यु के पश्चात् ९३ वर्ष की परिपक्व अवस्था में सन २००३ में मृत्यु को प्राप्त हुए. तब तक उनके सभी पुत्र-पुत्री समाज और अपने कार्यों में प्रतिष्ठा पा चुके थे अतः वे परिवार से संतुष्ट थे. किन्तु देश की बिगड़ती हुई राजनैतिक स्थिति से सदैव चिंतित रहते थे.

पिताजी की मृत्यु से पूर्व मैं गाँव में रहने लगा था और समाज में मुझे उन जैसा ही सम्मान प्राप्त हो रहा है. पिताजी के शत्रुओं के परिजन ही आज मेरे शत्रु बने हुए हैं और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं. इस प्रकार बदली हुई परिस्थितियों में भी गाँव का इतिहास दोहरा रहा है.

मेरे विरुद्ध जो षड्यंत्र रचा गया उसमें देश के प्रतिष्ठित पदाधिकारी श्री सुनील कुमार आई. ए. एस., श्री जसवीर सिंह आई. पी. एस., श्री नीलेश कुमार आई पी. एस. ने मेरी उसी तरह सहायता की है जिस तरह पिताजी की श्री डी. पद्मनाभन ने की थी. और इस सब सहायता के लिए श्रेय श्री जय कुमार झा को जाता है.    

बुधवार, 16 जून 2010

गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही

अंततः विगत सप्ताह मेरे साथ वह हुआ जिसकी मुझे लम्बे समय से आशा थी. मेरे गाँव खंदोई, पुलिस थाना नर्सेना, जनपद बुलंदशहर में गुंडों का एक समूह है जो आरम्भ में तो काफी बड़ा था किन्तु अब उसके अनेक सदस्यों की हत्याओं अथवा गाँव छोड़ देने से कुछ छोटा होगया है. यह समूह चोरी, डकैती, बलात्कार, राहजनी, आदि के साथ-साथ गाँव में अपना वर्चस्व भी बनाये रखता है जिसके लिए गाँव के प्रधान पद पर भी अधिकार करने की प्रत्येक बार कोशिश करता है और इसमें दो बार सफल भी हुआ है. इस समूह को आशा थी कि सितम्बर-अक्टूबर, २०१० में होने वाले पंचायत चुनावों में भी उनका प्रत्याशी विजयी होगा और वे गाँव पर एक-क्षत्र शासन करते रहेंगे.

गाँव में मेरे सक्रिय होने और अनेक क्रांतिकारी सुधार किये जाने के कारण गाँव के अधिकाँश लोगों ने मुझसे प्रधान बनकर गाँव के सुधार के साथ-साथ गुंडागर्दी की समाप्ति का आग्रह किया. जनमत के समक्ष मुझे यह स्वीकार करना पडा किन्तु मेरी प्रथम शर्त यह है कि मैं किसी भी व्यक्ति को उसका मत पाने के लिए शराब अथवा कोई अन्य लालच नहीं दूंगा. लोगों ने यह भी स्वीकार कर लिया और वे स्वयं ही पारस्परिक चर्चाओं के माध्यम से मेरा प्रचार करने लगे. अनुमानतः गाँव के ७० प्रतिशत मतदाता मेरे पक्ष में हैं. मेरी लोकप्रियता से गुंडों में खलबली मची हुई है और वे किसी न किसी तरह मुझे गाँव से भगाने के प्रयासों में लगे हुए हैं.
 
गाँव के अधिकाँश लोग विगत ४० वर्षों से बिजली की बेधड़क चोरी कर रहे थे, जिससे बिजली उपकरण जर्जर अवस्था में थे और वोल्टेज सामान्य २३० के स्थान पर ५०-१०० रहता था. मैं लगभग ५ वर्ष पूर्व गाँव में अपने कंप्यूटर के साथ आया था और उपलब्ध वोल्टेज पर कंप्यूटर चलाया नहीं जा सकता था. इसलिए मैंने विद्युत् अधिकारियों से वोल्टेज में सुधार के साथ मुझे नियमानुसार विद्युत् कनेक्शन देने का आग्रह किया. विगत ५ वर्षों के मेरे सतत संघर्ष के बाद अब गाँव विद्युत् की स्थिति ठीक कहने योग्य है. इसी संघर्ष में अनेक विद्युत् चोरियां पकड़ी गयीं जिनके लिए गाँव वाले मुझे दोषी मानते हैं. इस पर भी मेरे आग्रहों पर १०० परिवारों ने विद्युत् के वैध कनक्शन करा लिए हैं. गुंडों को मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए यह एक बड़ा कारण स्वतः प्राप्त हो गया है.

गुंडों ने उक्त सुधरी विद्युत् व्यवस्था को विकृत करने का प्रयास किया जिसे मैंने कठोरता से रोक दिया. इस पर वे मुझसे और भी अधिक क्रुद्ध हो गए हैं. पिछले सप्ताह मैं गाँव में एक स्थान पर बैठ था कि शराब में धुत एक गुंडे ने आकर मुझे गालियाँ देना आरम्भ कर दिया जिसका मैंने अपनी स्वाभाविक सौम्यता से प्रतिकार किया. इस पर उसने मुझे पीट-पीट कर गाँव से भगा देने की धमकी भी दी. मेरे कुछ समर्थकों के अतिरिक्त शेष गाँव चुप है, किसी का साहस नहीं है जो मेरे साथ आकर खडा हो जाए. कोई भी व्यक्ति गुंडों द्वारा अपमानित नहीं होना चाहता.

 यह समूह गाँव में की गयी अनेक हत्याओं में भी लिप्त रहा है और नित्यप्रति अवैध गतिविधियाँ करता रहता है. स्वयं के बचाव के लिए यह समूह स्थानीय पुलिस से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखता है जबकि जनसामान्य पुलिस से दूरी बनाये रखता है. पुलिस कर्मी बहुधा इस समूह के साथ शराब आदि की दावतों में सम्मिलित होते रहते हैं. यही समूह गाँव के लोगों को झूठे आरोपों में फंसाकर पुलिस को आय भी कराता रहता है. इस कारण से पुलिस इस समूह के विरुद्ध किसी शिकायत पर ध्यान नहीं देती.

गाँव में फ़ैली गुंडागर्दी और मेरे विरुद्ध किये गए उक्त दुर्व्यवहार की शिकायत मैंने नर्सेना पुलिस थाने में १२ जून को की थी, साथ ही गाँव के ७ भद्र लोगों का प्रतिनिधि भी पुलिस थाने के प्रभारी से मिला था. किन्तु आज तक पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी है. ज्ञात हुआ है कि एक विधायक ने पुलिस को कार्यवाही न करने का निर्देश दिया है जिसका संरक्षण गुंडों को प्राप्त है. मेरे पारिवारिक इतिहास के कारण अनेक राजनेताओं से मेरे भी सम्बन्ध हैं किन्तु मैं उनका उपयोग अपने निजी स्वार्थों में नहीं करना चाहता.

क्या कोई पाठक मुझे सुझायेंगे कि मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए गाँव की सेवा कैसे करूं. मैं किसी भी मूल्य पर गाँव छोड़ने को तैयार नहीं हूँ. मुझे कोई भय भी नहीं है किन्तु मैं क़ानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहता किन्तु गुंडागर्दी की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प हूँ.

गुरुवार, 6 मई 2010

सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत मेरा अनुभव

सूचना अधिकार अधिनियम भारत का बहुचर्चित अधिनियम है जिसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक कार्यालय सेउससे सम्बंधित विषयों पर सूचना पाने का अधिकार दिया गया है.  किन्तु इस बारे में मेरा अनुभव कुछ इस प्रावधान के विपरीत है. राजकीय पदों पर आसीन अधिकारियों ने अपने व्यक्तिगत हितों में ऐसे उपाय खोज लिए हैं जिनसे व्यक्ति को उसकी वांछित सूचना प्राप्ति से वंचित किया जा सकता है. 

अपने गाँव में विद्युत् उपलब्धि की स्थिति सधारने के लिए मैं लगभग ५ वर्षों से प्रयास और संघर्ष करता रहा हूँ, किन्तु उनसे कोई विशेष परिणाम नहीं मिला. अंततः मेरे एक मित्र के विद्युत् प्रशासन में उच्च पदासीन होने के कारण उसके स्थानीय अधिकारियों पर दवाब देने से गाँव में विद्युत् की जर्जर लाइनों को सुधारने का कार्य किया गया. इसके लिए स्थानीय अधिकारियों ने एक ठेकेदार को काम सौंपा. किन्तु ठेकेदार ने कार्य संतोषजनक नहीं किया. किन्तु मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता था जब तक कि मुझे यह पाता न चले कि ठेकेदार को क्या कार्य करने का आदेश दिया गया है. अतः मैंने निर्धारित शुल्क के साथ अधिशासी अभियंता, विद्युत् वितरण खंड ३, पश्चिमांचल विद्युत् वितरण निगम लिमिटेड, बुलंदशहर को आवेदन किया जिसमें मैंने गाँव खंदोई में लाइनों की दशा सुधारने हेतु ठेकेदार को दिए गए आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करनी चाही.

मेरे आवेदन पर सम्बंधित कर्मी ने मेरे प्रतिनिधि को बताया कि १ माह के अन्दर वांछित सूचना प्रदान कर दी जायेगी.  इसके बाद मेरा प्रतिनिधि अनेक बार उक्त कार्यालय गया किन्तु उसे किसी न किसी बहाने से सूचना प्रदान नहीं की गयी. आवेदन के लगभग ३ महीने बाद मैं स्वयं उक्त कार्यालय में गया और सम्बंधित कर्मी से सूचना की मांग की, जिसपर मुझे बताया गया कि सूचना डाक द्वारा भेज दी गयी है. मैंने उस सूचना के प्रतिलिपि लेनी चाही तो बताया गया कि अभी व्यस्तता के कारण यह संभव नहीं है और इसे बाद में दिया जा सकता है. मुझे इस बारे में डाक से कोई पत्र नहीं मिला.

इसके बाद के विगत तीन महीनों में मैं स्वयं तीन बार उक्त कार्यालय गया हूँ किन्तु कभी तो सम्बंधित कर्मी नहीं मिलता और जब मिलता है तो स्वयं को व्यस्त बताकर मुझे कोई सूचना प्रदान नहीं करता. मेरे पूछने पर उसने बताया कि सूचना डाकघर द्वारा उनके डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत भेजी गयी थी किन्तु मुझे उसका कोई विवरण नईं दिया गया. यहाँ यह धताव्य है कि डाक-प्रेषण प्रमाण के अंतर्गत पत्र के पहुँचने की कोई सुनिश्चितता नहीं होती अतः डाक कर्मी द्वारा जारी ऐसे प्रमाण का कोई महत्व नहीं होता. इसीलिये सूचना न देने के लिए इस माध्यम का उपयोग किया जाता है. इससे सूचने दुए बिना ही सूचना दिए जाने की औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है. 

 चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन यापन की समस्याओं में इतना उलझा रहता है कि वह बार बार किसी सुदूर कार्यालय में जा नहीं सकता और उसे सूचना प्राप्ति से सरलता से वंचित किया जा सकता है. मुझे वांछित सूचना प्रदान न किये जाने से सिद्ध यही होता है कि गाँव में विद्युत् लाइनों के सुधार का कार्य ठेकेदार ने आदेश के अनुसार पूर्ण नहीं किया है और अधिकारियों के साथ मिलकर इस सम्बंधित धन का कुछ अंश हड़प लिया है. किन्तु मेरी अपनी व्यस्तताएं एवं संसाधनों का अभाव मुझे इसी कार्य के लिए पूर्ण समर्पण से रोके रहते हैं जिसका लाभ सम्बंधित अधिकारी उठा रहे हैं और मैं उनके तथाकथित भ्रिश आचरण को सहन कर रहा हूँ.

जन साधारण के ऐसे अनुभवों से सिद्ध यही होता है कि भारत में क़ानून केवल छापे जाने और प्रकाशित कर लोगों को भ्रमित करने के लिए बनाए जाते हैं, शासन-प्रशासन को सही मार्ग पर चलने अथवा जानता की कोई सहायता करने में वे असमर्थ ही रहते हैं. 
मेरे कुछ मित्रों के अनुभव भी इसी प्रकार के हैं जिनसे सिद्ध यही होता है कि यह प्रावधान भी अन्य जनसेवा प्रावधानों की तरह ही एक ढकोसला मात्र है, और यह प्रावधान लोगों को शासकों एवं प्रशासकों के मंतव्यों के बारे में भ्रमित करने हेतु ही लिया गया है.

गुरुवार, 25 मार्च 2010

प्राथमिक विद्यालय का संघर्ष

सन १९६१ में जब में कक्षा ९ में पहुंचा था, तभी से अब सन २००० में अपने व्यावसायिक कार्यों से निवृति पाने तक की लगभग ४० वर्ष की अवधि में प्रमुखतः गाँव से बाहर ही रहा हूँ यद्यपि यदा-कदा संपर्क बना रहा है. सन २००० में जब स्थायी निवास की दृष्टि से यहाँ लौटा तो लोगों को आश्चर्य हुआ, वे कभी कल्पना नहीं कर सके थे कि मैं चीफ इंजिनियर तक के पदों पर कार्य करने वाला व्यक्ति कभी स्थायी रूप से गाँव में रहूँगा.

गाँव में पिताजी के सामाजिक कार्य तथा उनकी लोकप्रियता मुझे विरासत में प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई. गाँव में कुछ दबंगों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था और वे अपनी इच्छानुसार लोगों और उनके साधनों का शोषण कर रहे थे. लोग उनसे दुखी थे किन्तु उनका विरोध यदा-कदा ही कर पाते थे. मेरा गाँव में आना उन्हें अच्छा लगा और मुझे एक गाँव-वासी की तरह तुरंत स्वीकार कर लिया गया.

सन ५६ में पिताजी ने गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय का भवन बनवाया था जहाँ राजकीय विद्यालय उसी समय से चल रहा था. यह बस्ती के अन्दर होने के कारण बच्चों के लिए सुविधाजनक था. मुझे सूचित किया गया कि गाँव का तत्कालीन प्रधान अपने कुछ मित्रों के सहयोग से उक्त प्राथमिक विद्याके को गाँव से बाहर ले जाने की योजना बना रहा है जो गाँव वालों को पसंद नहीं है. मैं गाँव प्रधान से मिला और विद्यालय के स्थापन का कारण पूछा तो मुझे बताया गया कि विद्यालय जिस भूमि पर बना है वह कुछ समय के लिए दान में ली गयी थी और उस दानदाता का उत्तराधिकारी उस भूमि की वापिसी की मांग कर रहा है. उसने सम्बंधित अधिकारियों को इस विषयक वैधानिक नोटिस भी भेज दिया था.

मैंने गाँव वालों की एक सभा बुलाई और उनसे विद्यालय के प्रस्तावित विस्थापन के बारे में उनके विचार आमंत्रित किये. प्रधान समूह के कुछ लोगों के अतिरिक्त शेष गाँव-वासी विद्यालय को वहीं रखने के पक्ष में थे और उनका कहना था कि नवीन प्रस्तावित स्थल गाँव के तालाब के पास है जिसमें कुछ समय पूर्व ही गाँव के तीन-चर बच्चे डूब कर मर चुके थे. दूसरा नए स्थान पर गाँव-वासियों को आगामी चुनावों में स्वतंत्र मतदान नहीं करने दिया जायेगा क्योंकि वह प्रधान समूह के लोगों से घिरा है और गाँव के बाहर किनारे पर है. मुझे यह सब तर्क-संगत लगा और प्रधान से विद्यालय को पुराने स्थान पर ही रखने का आग्रह किया, किन्तु सत्ता के मद से चूर दबंगों ने मेरे सुझाव को अस्वीकार कर दिया और अपनी इच्छानुसार कार्य करने का संकल्प दोहराया. यह गाँव वालों को स्वीकार नहीं था इसलिए मैंने उक्त विस्थापन न होने देने का संकल्प लिया.

गाँव में वैचारिक संघर्ष छिड़ गया - एक ओर निर्बल वर्ग का बहुमत और दूसरी ओर सबल वर्ग का अल्पमत. मैंने सम्बंधित अदिकारियों को गाँव वालों का विरोध दर्शाते हुए पात्र लिख दिए किन्तु उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ और नए स्थान पर विद्यालय भवन निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया गया. एक ओर गाँव-वासियों को संगठित करने तथा दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारियों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराते हुए उनसे निर्माण कार्य के लिए धन न देने का अभियान चल पड़ा जिसमें प्रधान वर्ग के अतिरिक्त गाँव के सभी वर्गों का सहयोग मिला. इस पर भी शिक्षा विभाग ने निर्माण हेतु धन प्रदान कर दिया.

अंततः यह विवाद जिलाधिकारी तक पहुंचा जो हमारे प्रतिनिधियों के तर्कों के समक्ष विद्यालय को पुराने स्थल पर ही रखने का आदेश दे देता तो दूसरी ओर कुछ राजनेताओं के दवाब में आकर विद्यालय स्थानांतरण के आदेश दे देता. इस कारण से निर्माण कार्य चलता रहा. मैं बुलंदशहर स्थित मुहाफिजखाने में गया जहां प्राचीन दस्तावेज़ संग्रहित रखे जाते हैं, और सन १९५४ से आगे के अपने गाँव संबंधी आलेखों की जांच आरम्भ की जिस पर मैंने पाया की विद्यालय की भूमि गाँव-सभा के नाम पर पिताजी ने १,००० रुपये में खरीदने के बाद उस पर भवन बनाया था. इस दस्तावेज की प्रतिलिपि प्राप्त कर ली गयी.
 
दस्तावेज को लेकर मैं कुछ गाँव-वासियों को साथ लेकर उप जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना देने पहुँच गया आर उसे दस्तावेज़ दिखाया. आरम्भ में उप जिलाधिकारी ने हम सबको भयभीत कर भगाने का प्रयास किया जिस पर मुझे आवेश आ गया और मैंने उप जिलाधिकारी को धमकी दी कि मुझे वही करना पड़ेगा जो मेरे पिताजी अँगरेज़ अधिकारियों के साथ किया करते थे. देश में जनता का शासन है और उस जैसे अधिकारी केवल सेवक मात्र थे और उसे चेतावनी दी कि वह शहंशाह बनने का प्रयास न करे.

उसकी समझ में मेरी धमकी आ गयी और उसने मुझसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि मैं क्या चाहता था. मैंने उसे बताया कि पुलिस को आदेश देकर निर्माण कार्य तुरंत रोका जाये, और विद्यालय का नवीन भवन पुराने स्थान पर ही बनाया जाये. उसने पुलिस को आदेश किया औए उसे मुझे थमा दिया कि मैं पुलिस को वह आदेश दे दूं. गाँव में एक पुलिस निरीक्षक पहुंचा और निर्माण कार्य रोकने के स्थान पर उसे तीव्र गति से पूर्ण करने का व्यक्तिगत परामर्श देकर चला आया. इसकी सूचना मुझे मिल गयी और मैंने उप जिलाधिकारी को फ़ोन पर इसकी सूचना देते हुए बताया कि मैं गाँव-वासियों के साथ पुनः धरना देने आ रहा हूँ. किन्तु उसने मुझसे न आने का सुझाव दिया और आश्वासन दिया कि निर्माण कार्य रोक दिया जायेगा. उसने स्वयं आकर निर्माण कार्य रोक देने का आदेश दे दिया जिसका तुरंत अनुपालन हुआ.

अगले ही दिन जिलाधिकारी ने राजनेताओं के दवाब में आकर निर्माण कार्य पूरा करने का आदेश दे दिया और कार्य तीव्र गति से आरम्भ कर दिया गया. अब मेरे पास गांधीजी के सर्ताग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष नहीं था..रात में ही विद्यालय प्रांगण में पंडाल लगवा दिए गए, और मैं जिलाधिकारी, पुलिस और मुख्य चिकित्साधिकारी को सूचित कर प्रातः आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गया. गाँव वालों की भीड़ मेरे पास जमा रहने लगी. स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित होने लगे और आसपास के गाँव वाले भी मेरे समर्थन में एकत्र होने लगे. २५०० की जनसँख्या वाले गाँव में मेरे आसपास लगभग १००० स्त्री-पुरुषों का समुदाय मेरे पास रहने लगा.

A Fine, Fine Schoolभूख हड़ताल के तीसरे दिन उप जिलाधिकारी, पुलिस क्षेत्राधिकारी और एक पुलिस दल कुछ मजदूरों को लेकर मेरे पास पहुंचे और मुझसे पूछा कि वे कहाँ बैठें ताकि दोनों पक्षों के दस्तावेजों की जांच कर सकें. मैंने कहा कि वे मेरे पास भूमि पर ही बैठकर जांच करें. दूसरे पक्ष को भी बुला लिया गया और उनका पक्ष भी सुना गया. अंततः मुझसे पूछा गया कि विद्यालय के नए बावन की नींव की खुदाई कहाँ होनी थी और गाँव-वासियों के सुझावानुसार खुदाई आरम्भ कर दी गयी. साथ ही प्रधान पक्ष को भी आदेश दिया गया कि वे दूसरे स्थान पर हुए निर्माण को ध्वस्त कराएँ और सभी निर्माण सामग्री को इसी स्थान पर लाकर भवन निर्माण आरम्भ करें. संतोषजनक आश्वासन पर भूख-हड़ताल समाप्त कर दी गयी.

इस प्रकरण से जहाँ मुझे नैतिक बल मिला वहीं गाँव-वासियों को मेरी कार्य पद्यति पर विश्वास भी हो गया. यह मेरा प्रथम सामाजिक प्रयोग था जो पूर्णतः सफल रहा.   

मंगलवार, 23 मार्च 2010

मेरा गाँव खंदोई

मेरा गाँव खंदोई देश के कृषि प्रधान क्षेत्र गंगा-यमुना दोआब में गंगा नदी से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पर बुलंदशहर जनपद में स्थित है. यह क्षेत्र कला और संस्कृति की दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ा है तथापि राजनैतिक चेतना से भरपूर है. किन्तु यह राजनैतिक चेतना देश की राजनीति की तरह ही निजी स्वार्थों पर केन्द्रित है, देश और समाज के हितों से इसका कोई सरोकार नहीं रह गया है. परन्तु यह सदा से ऐसा नहीं था.

देश के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरे गाँव का योगदान दूर तक जाना जाता था जिसका क्षत्रीय नेतृत्व मेरे पिताजी श्री करनलाल करते रहे थे. पिताजी की राजनैतिक चेतना १९४० से आरम्भ होकर १९९० तक सक्रिय रही जिसके दौरान वे देश की स्वतंत्रता के लिए तथा बाद में समाजवादी आंदोलनों में लगभग बीस बार जेल गए. इन जेल यात्राओं में देश में १९७६-७७ की आपातस्थिति भी सम्मिलित है जब जवाहरलाल नेहरु की पुत्री इंदिरा गांधी ने देश पर अपनी तानाशाही थोपी थी और देश-भक्तों से कारागारों को भर दिया था. यह देश के राजनैतिक पतन का आरम्भ था जो उग्र होता रहा और पिताजी राजनीति से शनैः-शनैः दूर होते गए.

१९७७ से ही पिताजी ने ग्राम-स्तर की राजनीति का परित्याग कर दिया था जिससे गाँव की राजनैतिक सत्ता धीरे-धीरे असामाजिक तत्वों ने हथिया ली. ऐसा ही पूरे देश में भी हुआ है अतः देश के प्रत्येक गाँव की राजनैतिक स्थिति देश की राजनैतिक स्थिति का ही प्रतिबिम्ब है, मेरा गाँव भी इसका अपवाद नहीं रह पाया है. गाँव में शिक्षा केवल नाम मात्र के लिए रह गयी है, शराबखोरी बच्चों को भी डस रही है, विकास और समाज कल्याण के नाम पर केवल भृष्टाचार व्याप्त है. सार्वजनिक संपत्तियों पर सामर्थ्यवानों के निजी अधिकार स्थापित हैं. बिजली की चोरी अधिकार समझी जाने लगी है और इसका खुला दुरूपयोग किया जा रहा है. विद्युत् अधिकारी इसके प्रति उदासीन हैं अथवा इसके माध्यम से अपनी जेबें भर रहे हैं. जनसाधारण अपने जीवन-यापन की व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा है कि उसके जीवन में मानवीय चिंतन के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति सबकुछ निजी स्वार्थों की आपूर्ति हेतु ही करता है, सामाजिक चिंतन उसकी जीवन चर्या और बुद्धि से बहुत दूर हो गया है.

ऐसी स्थिति में मैं अब से लगभग ५ वर्ष पूर्व सन १९६१ के बाद यहाँ स्थायी निवास के लिए आ पहुंचा हूँ और यहाँ की स्थिति देखकर दुखी हूँ. इसी संवेदना से उदित हुआ है मेरा यह संलेख जो यहाँ मेरे सामाजिक और राजनैतिक सरोकारों और प्रयोगों का एक झरोखा होगा.