गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

वाग, वाज, वाक, वान, विजित, विजय

वाग, वाज, वाक
ये शब्द शास्त्रों में दो मंतव्यों के लिए उपयोग किये गए हैं - नाडी तथा चीख. इनका उद्भव लैटिन के शब्द vagus से हुआ है जिसका अर्थ नाडी है. लैटिन का ही एक अन्य शब्द vagitus है जिसका अर्थ चीख है. इसके देवनागरी स्वरुप भी वाग, वाज अथवा वाक् ही हैं. अतः इनके अर्थ प्रसंग के अनुरूप लिए जाते हैं. ग्रन्थ भावप्रकाश में नाडी के लिए वाज शब्द का उपयोग किया गया है.

वान
यह शब्द लैटिन के vana से उद्भूत है जिसका अर्थ रिक्त अथवा अभावपूर्ण है. जैसे लैटिन शब्द समूह 'वान ग्लोरिया' का अर्थ 'झूठा प्रदर्शन' है. इस प्रकार वान का अर्थ आधुनिक संस्कृत में विपरीत कर दिया गया है जो 'बलवान' जैसे शब्दों में बलयुक्त व्यक्ति के लिए उपयुक्त किया जाता है, जब कि इसका शास्त्रीय अर्थ 'बलहीन' है.

विजित, विजय
ये शब्द लैटिन के शब्दों vegere, vegetus से उद्भूत हैं जो क्रमशः जीवंत होने की क्रिया तथा संज्ञा हैं. तदनुसार विजय का अर्थ 'जीवंत' है. अंग्रेज़ी शब्द vegetable भी इन्ही से उद्भूत है जिसका अर्थ सब्जी है क्योंकि सब्जियों को जीवन-दायक माना जाता है.        

कंगाल उत्तर प्रदेश - जन-प्रतिनिधियों पर धन वर्षा

उत्तर प्रदेश भारत का एक ऐसा प्रदेश है जहां की उर्वरा भूमि किसी को भूखे पेट सोने को विवश नहीं करती. गंगा की गोद इस भूमि पर अति प्राचीन काल से घनी जनसँख्या बसती रही है केवल इसलिए कि यहाँ की धरा की गोद सदैव हरी-भारी रहती है. इस सब के होते हुए भी विगत २० वर्षों से यहाँ के शासन की बागडोर ऐसे हाथों में रही है जो केवल शोषण करना जानते हैं, शासन-प्रशासन के मूलभूत दायित्वों से उनका कोई वास्ता प्रतीत नहीं होता. फलस्वरूप प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं, भृष्टाचार का सर्व-व्यापी बोलबाला है, सड़कें टूटी-फूटी हैं और विद्युत् शक्ति केवल महत्वपूर्ण लोगों के घरों में रोशनी करती है, शिक्षा के मंदिर बच्चों को भिक्षा पाने के घर बना दिए गए हैं जिनमें अधिकाँश अस्थायी शिक्षक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और समय व्यतीत करने आते हैं. न्यायालय थप पड़े हैं और खुली रिश्वतखोरी के अड्डे बना दिए गए हैं.  

चुनाव का समय आता  है तो राजनेता अपनी तिजोरियां खोल देते हैं और लोगों के मध्य शराब की नदियाँ बहाते हुए वोट बटोर ले जाते हैं. इससे अपराधी और भृष्ट नेताओं के चुनाव के लिए जनता को ही दोषी करार दे दिया जाता है. कोई उनकी विवशता नहीं समझता कि उन्हें अल्प समय के लिए कुछ आनंद प्राप्त होता है और उनका बहक जाना स्वाभाविक है. दोष तो चुनाव प्रणाली का है, दोष संविधान का है जो धन के बदले वोट प्रणाली को रोक नहीं पाते हैं. एक विधान सभा सदस्य के चुनाव का अर्थ है प्रत्याशी के न्यूनतम पचास लाख रुपये का व्यय. फिर कैसे कोई इमानदार व्यक्ति चुनाव में उतारे और जनता के समक्ष एक अच्छा विकल्प बने. इतना व्यय कर चुनाव जीतने वाले व्यक्ति भृष्ट होने के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकते. उनकी भी विवशता है.

शासन इन विजित जन प्रतिनिधियों की अनेक प्रकार से क्षतिपूर्ति करता है - बार बार उनके वेतन और सुख-सुविधाएँ बढ़ाते हुए. अभी-अभी ८ फरवरी को उ० प्र० की मुख्यमंत्री ने एक ही बार में जन-प्रतिनिधियों (विधान सभा सदस्यों) को देश के सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्तियों की श्रेणी में ला दिया. अब इनकी मासिक वैध आय ५०,००० रुपये कर दी गयी है जो अभी तक ३०,००० रुपये थी. देखिये इस मासिक बढोतरी का नज़ारा -
वेतन - ३,००० से ८,०००  रुपये,
क्षेत्र भत्ता - १५,००० से २२,०००  रुपये,
स्वास्थ भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये,   
कर्मी भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये. 

इसी अनुपात में प्रदेश के सभी मंत्रियों और अन्य राजनैतिक पदासीनों के वेतन भत्ते भी बढ़ा दिए गए हैं. यह ऐसी अवस्था में किया गया है जब -
  1. प्रदेश के पास विद्यालयों में नियमित अध्यापक रखने के लिए दान नहीं है, 
  2. अनेक विभागों में कर्मचारियों के वेतन धनाभाव के कारण ६-६ महीने तक भगतान नहीं किये जाते, उन्हें केवल रिश्वतखोरी से प्राप्त धन पर अपना गुजारा करना पड़ता है. 
  3. प्रदेश के पास मार्गों के निर्माण, विदुत के प्रसार आदि के लिए धन नहीं है. ऐसे कार्यों के लिए जो ऋण आदि लिया जाता है वह वेतन भुगतानों में व्यय कर दिया जाता है. 
  4. प्रदेश में एक मजदूर को मात्र १,००० रुपये मासिक की आय पर अपने परिवार का पालन-पोषण करना होता है और उसे ऊपर की भी कोई आय नहीं होती. जबकि उसके प्रतिनिधि को ५०,००० रुपये मासिक दिए जाकर भी उसे असीमित ऊपर की आमदनी से मार्ग बी खोल दिए जाते हैं.
  5. प्रदेश की पूरी अर्थव्यवस्था उत्पादन आधारित न होकर भृष्टाचार आधारित हो गयी है. 
देश तो डूब ही रहा है, उत्तर प्रदेश इस दौड़ में सबसे आगे है, और आगे ही रहेगा. 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली

बौद्धिक जनतंत्र संसदीय शासन प्रणाली को नकारते हुए राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली का पक्षधर है, जिसमें जनता सीधे एक व्यक्ति को अपना शासक चुनती है. इसके पक्ष में निम्नांकित तर्क दिए जा सकते हैं -
  1. संसदीय शासन प्रणाली में शासन का दायित्व शासक दल के एक चुने गए समूह का होता है न कि किसी एक व्यक्ति का. शासन एक बहुआयामी जटिल कार्य है, इसमें भूल-चूक, छल-कपट, आदि के पर्याप्त अवसर उपस्थित रहते हैं. शासित लोगों को इनसे उत्पन्न कठिनाइयों के लिए किसी एक व्यक्ति तो उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, जिसे दोषी वा निर्दोष सभी एक समान प्रतीत होने लगते हैं और दोषी भी निर्दोषों की छाया में छिप जाते है. 
  2. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में सभी अच्छाइयों और बुराइयों का दायित्व राष्ट्राध्यक्ष का होता है और उसे शासितों की किसी भी कठिनाई के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है और दंड भी दिया जा सकता है. इससे शासन में गुणात्मक पक्ष को बल मिलाता है, जो सर्वदा वांछनीय है.
  3. जनता के समक्ष क्षेत्रानुसार अनेक सदस्य चुनने होते हैं जिनमें अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के चुने जा सकते हैं. मतदाता भी इस पर विशेष ध्यान इसलिए नहीं देते कि वे नहीं जानते कि उनके द्वारा चुने गए व्यक्ति की भावी भूमिका क्या होगी जिससे बुरे व्यक्तियों के चुने जाने की संभावना बढ़ जाती है. अंततः शासन में इनकी सीधी भागीदारी न होने पर भी ये शनैः-शनैः शक्तिशाली होते जाते हैं और एक दिन सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं. 
  4. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में मतदाता स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वे अपने राष्ट्र के लिए शासक चुन रहे हैं, और अपने दायित्व के प्रति अधिक सजग हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में सही व्यक्ति के राष्ट्राध्यक्ष चुने जाने की संभावना अधिक हो जाती है.
  5. संसदीय शासन प्रणाली में जनता शासक न चुनकर अपने प्रतिनिधि चुनती है तदुपरांत प्रतिनिधि शासक दल चुनते हैं. इस प्रकार शासक का चुनाव सीधा न होकर अदृश्य होता है और शासन गलत लोगों के हाथ में जाने की संभावना बढ़ती है, जबकि राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में शासक का सीधा चुनाव होने से अच्छे व्यक्ति के शासक चुने जाने की संभावना बहुत अधिक होती है.  
  6. स्वतंत्र भारत के जनतांत्रिक अनुभवों से ज्ञान हुआ है कि जन-प्रतिनिधि दल-बदल के घिनौने कृत्यों से जनता के द्वारा किये गए चुनाव को नकारने की सक्षमता रखते हैं, जिससे पूरा का पूरा जनतांत्रिक ढांचा बेईमानी प्रतीत होने लगता है. राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली में ऐसी कोई संभावना नहीं होती. 
उपरोक्त कारणों से बौद्धिक जनतंत्र का संवैधानिक ढांचा राष्ट्राध्यक्ष शासन प्रणाली के अनुसार बनाया गया है.यहाँ व्यक्ति और समूह के मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझना भी प्रासंगिक है. व्यक्ति जब स्वयं उत्तरदायी होता है तो अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह सर्वोत्तम तरीके से करता है. किन्तु जब वह एक समूह का अंग होता है तो उसका व्यक्तिगत दायित्व कहीं हो जाता है और वह अनुत्तरदायी अनुभव करते हुए ऐसा ही होने की संभावना रखता है.   

शस्त्र, शास्त्र

शब्द युगल 'शस्त्र तथा शास्त्र' उसी तरह परस्पर सम्बद्ध है जिस प्रकार 'यज्ञ तथा याज्ञ' सम्बद्ध हैं, अर्थात पहला कार्य का किया जाना तथा दूसरा उसी से उद्भूत उत्पाद. शास्त्र शब्द के बारे में हमें निश्चित सूचना प्राचीन ग्रन्थ के नाम 'अर्थशास्त्र' से प्राप्त होती है जहां विष्णु गुप्त चाणक्य रचित ग्रन्थ को स्वयं लेखक द्वारा 'इदं अर्थशास्त्रं' कहा गया है, जिससे शास्त्र शब्द का अर्थ आधुनिक अर्थों में 'पुस्तक' अथवा 'ग्रन्थ' सिद्ध होता है.

अर्थशास्त्र में ही लेखक ने स्वयं को शास्त्रं च शास्त्रं का ज्ञाता लिखा है जो संकेत करता है कि शास्त्र शास्त्रों से बनते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि शास्त्रीय शब्द 'शस्त्र' का अर्थ हिंदी का 'शब्द' है क्योंकि शास्त्र शब्दों से बनते हैं. अतः विष्णु गुप्त चाणक्य अर्थ शास्त्र के सन्दर्भ में शब्दों और उनके उपयोग से लिखे गए ग्रंथों के ज्ञाता थे.

आधुनिक संस्कृत के अनुसार शस्त्र का अर्थ 'हथियार' और शास्त्र का अर्थ 'ग्रन्थ' लेने से भाषा विकृति उत्पन्न होती है जो उस समय पर होनी संभव नहीं है. किन्तु शास्त्रों के अर्थ भ्रांत करने के उद्देस्ग्य से आधुनिक संस्कृत में उत्पन्न की गयी सिद्ध होती है..

आरती

वेदों तथा शास्त्रों में पाया जाने वाला आरती शब्द लैटिन भाषा के artis से उद्भूत है जिसका अर्थ 'कलात्मक कार्य' अथवा इनका किया जाना है. अतः यह शब्द किसी विशिष्ट व्यक्ति के सन्दर्भ में ही उपयुक्त हुआ है और वहाँ उस व्यक्ति की कलात्मकता अथवा उस द्वारा किये गए कलात्मक कार्यों का उल्लेख होता है.
आधुनिक संस्कृत में आरती का अर्थ सम्बंधित व्यक्ति की पूजा अर्चना लिया जाता है, जो वेदों-शास्त्रों के सन्दर्भ में त्रुटिपूर्ण है.

परम्पराओं का बोझ ढोते हम

स्वतंत्र समाजों में परम्पराएं अनुभवों से उद्भूत होती हैं किन्तु लम्बे समय तक गुलाम रहे देशों में परम्पराएं कृत्रिम रूप से भी थोपी जा सकती हैं. भारत में ऐसा बहुत अधिक हुआ है. परम्पराएं कुछ सीमा तक बुद्धि उपयोग को अवरोधित करती हैं, और प्रायः हम उन्ही बातों को बिना विचारे मानते चले जाते हैं जो हमें परंपरागत रूप में प्राप्त होती हैं. वैसे भी गुलामी की मानसिकता वाले लोग स्वतंत्र चिंतन के अभ्यस्त नहीं होते इसलिए वे बहुत अधिक परंपरागत होते हैं. ऐसे लोगों को नवाचार से घृणा होती है और वे इसे अपनी भावनाओं का विरोधी होने के कारण समाज विरोधी होने का करार देने से भी नहीं चूकते.

आज संध्या लगभग ४ बजे एक बरात में गया था और अभी कुछ समय पूर्व लगभग १-३० पर लौटा हूँ. इन लगभग १० घंटों में से ७ घंटे का समय यात्रा में व्यतीत हुआ जो ग्रामीण पथ पर चलने वाली एक खटारा बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर ९० किलोमीटर आने जाने में लगा. आश्चर्य यह देख कर हुआ कि बारात का सम्बन्ध विवाह प्रक्रिया से नगण्य था - केवल जाना, खाना, और आना. विवाह प्रक्रिया इस दौरान समान्तर रूप से संचालित की जाती रही और अधिकाँश बारातियों से उसमे सम्मिलित होने की अपेक्षा भी नहीं की गयी. तथापि ऐसी निरुद्देश्य बारातों का प्रचलन है और सामाजिक संबंधों को बनाये रखने के लिए इनमें जाना पड़ता है. बारात वर पक्ष तथा कन्या पक्ष, दोनों पर आर्थिक भार होती है तथापि परंपरागत रूप में हम सब यह करते चले आ रहे हैं. कभी समय था जब बारात में जाना सामाजिकता का विस्तार होता था, आज ऐसा भी नहीं है.

ऐसी परम्पराओं को अधिकांश लोग निरर्थक मानते हैं और इनके प्रत्येक अनुपालन के बाद पछताते हैं, तथापि बार-बार ऐसा ही करते जाते हैं. ऐसा हम इसलिए करते जाते हैं क्योंकि हम सामाजिक परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं जुटा पाते. कभी-कभी यह भी सोचकर अनुपालन करते जाते हैं कि कोई हमें क्या कहेगा. हम भारतीयों का मानस दब्बू और कायर बन गया है.
ऐसा व्यवहार केवल सामाजिक प्रचलनों तक सीमित नहीं है, ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में भी हम प्रायः ऐसा ही व्यवहार करते है. उदाहरण के लिए इतिहास, जो भावुकताविहीन एवं तथ्यपरक होना चाहिए, को भी हम अपने मनोनुकूल होने पर ही सहन करते हैं अन्यथा उसे बिना कोई तर्क दिए नकार देते हैं. वस्तुतः भारतीय जन-मानस तथ्यपरक नहीं रह गया है, उसे केवल वही सुनना या पढ़ना अच्छा लगता है जो परम्परागत रूप से कहा या लिखा जाता रहा है, चाहे वह कितना भी दूषित क्यों न हो, कितना भी तर्कविहीन क्यों न प्रतीत होता हो.

सहमति के लिए किसी साहस की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परम्पराओं और परंपरागत ज्ञान के विरोध के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है जो प्रायः भारतीय लोगों में नहीं है. परम्पराओं को इसी प्रकार ढोते रहने के कारण ही भारत लगभग २००० वर्ष गुलाम रहा. अब स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु स्थिति गुलामी से भी बदतर है, विशेषकर जन-साधारण के लिए. किन्तु विरोध का स्वर न पहले कभी बुलंद हुआ और न अब हो रहा है. केवल स्वतंत्रता संग्राम इसका अपवाद रहा जो अभूतपूर्व रूप से सफल भी रहा. किसी ने साहस जगाया आर हम जागृत हो गए. किन्तु ऐसा सदैव नहीं हुआ है और न अब हो रहा है.

साहस का अभाव हमें सतत डस रहा है, परम्पराएं हमें निगल रही हैं और हम निश्चिन्त भाव से वही कहते और करते चले जा रहे हैं जो समाज में परंपरागत रूप से व्याप्त है. विरोध का साहस केवल बुद्धिजीवी कर सकते हैं किन्तु भारत में वे भी बुद्धिवादी न रहकर परम्परावादी बन गए हैं और बनी बनाई लकीर से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. परंपरा-विरोधी स्वरों का दमन करने में ही ये अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं और इसी को बुद्धिमत्ता समझ रहे हैं. यथार्थ से ये कोई वास्ता रखना ही नहीं चाहते जबकि जानते हैं कि गुलामी के कारण भारतीय समाज यथार्थ से बहुत अधिक दूर चला गया है.