मंगलवार, 4 मई 2010

भारत की आदि भाषा और लिपियाँ

प्रत्येक मानव समुदाय की आदि भाषा ध्वन्यात्मक होती रही है जिसमें शब्दों के सुनिश्चित स्वरुप नहीं होते थे. ध्वनि के स्रोत जिह्वा को शास्त्रों में 'लिंग' कहा गया है, जिसे स्वर के भाव में भी लिया गया है. अंग्रेज़ी का आधुनिक शब्द  lenguage  भी इसी शब्द से बना है.

लेखन प्रक्रिया के प्रादुर्भाव ने शब्दों को सुनिश्चित स्वरुप दिए हैं. इसलिए प्रत्येक भाषा विकास का आरम्भ अक्षरों के स्वरुप निर्धारण से ही हुआ है. भारत में भी ऐसा ही हुआ. अक्षरों के विन्यास को आधुनिक काल में 'लिपि' कहा जाता है किन्तु भारत के शास्त्रीय काल में ऐसा नहीं था. उस समय 'लिपि' का अर्थ 'चिकनाई' था.

आधुनिक काल की तरह शास्त्रीय काल में भाषा और लिपि के लिए प्रथक शब्द नहीं थे, अतः दोनों के लिए एक ही शब्द 'श्री' का उपयोग किया जाता था. इसी शब्द का उपयोग 'लिखित' के भाव में भी किया जाता रहा है. तदनुसार अनेक शास्त्रों के नाम श्री से आरम्भ होते हैं यथा 'श्रीमद्भगवद्गीता', श्रीमद्भागवत' आदि जहां 'श्री' का तात्पर्य लिखित स्वरुप से है.

भारत भूमि पर सर्वप्रथम ज्ञात श्री 'ब्राह्मी' थी जो ब्रह्मा द्वारा प्रस्तावित की गयी थी और आरंभिक ग्रंथों और शिलालेखों में इसका उपयोग किया गया था. ब्रह्मा को ही रामायण में राम कहा गया है. भारत विकास को समर्पित और ब्रह्मा एवं विश्वामित्र के सहयोगी मित्र जीसस ख्रीस्त थे जिन्होंने खरोष्टि श्री का प्रस्ताव किया. भारत के अनेक शिलालेख खरोष्टि में भी उपलब्ध हैं. आरम्भ में यह श्री दायें से बाएं को लिखी जाती थी. इसका कारण इसके प्रनायक का मूल स्थान इजराइल होना है जिस क्षेत्र की लिपियाँ पर्शियन, अरबिक आदि का दायें से बाएं लिखा जाना था. ब्राह्मी के प्रभाव में खरोष्टि को संशोधित कर बाएं से दायें लिखे जाने हेतु विकसित किया गया.



उपरोक्त देवों ने ही बाद में एक वैज्ञानिक श्री का विकास किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. इसके बाद सभी वेदों और शास्त्रों को इसी श्री में लिखा गया. जिनकी भाषा तथा लिपि 'देवनागरी' ही कही जाती है. आज देवनागरी को एक लिपि के रूप में जाना जाता है, जबकि देवनागरी भाषा को 'वैदिक संस्कृत' कह दिया जाता है. यह श्री एक लिपि के रूप में आज भी प्रचलित है तथा भारत की एक भाषाओं जैसे संस्कृत, हिंदी, मराठी, आदि की अधिकृत लिपि है.

लिंग, शिवलिंग

Speaking in Tonguesशास्त्रीय शब्द 'लिंग' लैटिन भाषा के शब्द  'lingua'  से बनाया हुआ है जिसका अर्थ 'जिह्वा' है. इसे वचनों के भाव में भी लिया गया है. तदनुसार 'शिवलिंग' का अर्थ 'सुवचन' है. इसे 'पालन करने योग्य' संकेतों के रूप में भी लिया गया है. आधुनिक संस्कृत में लिंग का अर्थ नर, मादा भेद के लिए किया जाता है जिसका शास्त्रीय सन्दर्भों से कोई मेल नहीं है.   

श्री

The Scriptभारतीय शास्त्रों में 'श्री' शब्द लैटिन के शब्द  'scriptum'  से उद्भूत हुआ है जिसका अर्थ 'लेखन प्रतीक' है. आधुनिक संस्कृत के इसके अर्थ 'ऐश्वर्य' से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. शास्त्रीय काल में भाषा तथा लिपि के लिए प्रथक शब्द नहीं थे अतः दोनों के लिए 'श्री' शब्द का ही उपयोग किया जाता था.

लिपि

Fat: An Appreciation of a Misunderstood Ingredient, with Recipesशास्त्रों में उपस्थित शब्द 'लिपि' दो भावों में उपयोग किया गया है. एक भाव में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द  'lipidus'  से बना है जिसका अर्थ चिकनाई वाले द्रव्य जैसे वसा, तेल, घी, आदि है.

दूसरे भाव में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द  lepis   से बना है जिसका अर्थ छिलका अथवा आवरक परत है. इसी भाव में इसे वस्त्रों के लिए भी उपयोग किया गया है. 



आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'लेखन प्रतीक' है जिसका शास्त्रीय शब्द से कोई सम्बन्ध नहीं है.

संस्कार, संस्कृत

Final Examinationशब्द 'संस्कार' और' संस्कृत' प्रायः परस्पर सबंधित माने जाते हैं, किन्तु शास्त्रीय भाषा में ऐसा नहीं है.

किसी भी शब्द के आदि में 'सं' लगा होने का अर्थ होता है कि करता और कर्म साथ-साथ चलित हैं. संस्कार और संस्कृत ऐसे ही शब्द हैं जो लैटिन भाषा के क्रमशः  scar  और  scrut   शब्दों से बनाए गए हैं. इनमें से प्रथम का अर्थ 'दाग' तथा दूसरे का अर्थ 'परीक्षा' है. इस प्रकार शास्त्रों में 'संस्कार' शब्द का अर्थ 'दाग-सहित' और 'संस्कृत' का अर्थ 'परीक्षित होना' है. शास्त्रों में उपस्थित शब्द 'संस्कृत' का आधुनिक भाषा 'संस्कृत' से कोई सम्बन्ध नहीं है. वस्तुतः उस समय संस्कृत नामक कोई भाषा थी ही नहीं. 

स्वचेतना और प्रयोगधर्मिता

अपने बारे में जानने की उत्सुकता तो सभी मनुष्यों में होगी ही - ऐसी व्यापक धारणा है. किन्तु सत्य इसके विपरीत है. मनुष्य प्रायः दूसरों के बारे में जानने के लिए अपने बारे में जानने से अधिक उत्सुक रहते हैं, विशेषकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में उन्हें अतीव आनंद  आता है. इसके पीछे एक बलवती धारणा यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में तो जानता ही होगा. अपने बारे में जानना ही स्वचेतना कहलाता है.

प्रत्येक मनुष्य में कुछ सद्गुण तथा कुछ दुर्गुण होते हैं. अपने सद्गुणों को पहचानना तथा उनका प्रचार-प्रसार करना सभी को अच्छा लगता है किन्तु अपने दुर्गुणों अथवा अपनी निर्बलताओं को पहचानना प्रायः असुविधाजनक होता है इसलिए इसके प्रयास नगण्य ही किये जाते हैं. वस्तुतः किसी मनुष्य की असफलता का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही होता है कि वह अपनी निर्बलताओं को नहीं जानता  है, इसलिए अवांछित दुस्साहस कर बैठता है और असफल होता है. इसलिए अपनी निर्बलताओं को जानना अपनी सबलताओं को जानने से अधिक महत्वपूर्ण होता है. निर्बलताओं को जानकर वह सफल हो या न हो, असफल होने से अवश्य बच सकता है. और यदि व्यक्ति अपनी निर्बलताओं को नष्ट करना चाहे तो उसे अपनी निर्बलताओं को प्रकाशित भी करना होगा - स्वयं के लिए. ऐसा करके ही वह इन्हें दूर करने के लिए सार्थक प्रयास कर सकता है.

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य अपनी निर्बलताओं को स्वयं नहीं पहचानता, इसके लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है - विशेषकर व्यसन जैसी उन निर्बलताओं को जो उसकी आदत में समाहित हो गयी होती हैं. इसी लिए किसी कवि ने कहा है -

निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छबाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल हॉट सुभाय.

अर्थात आलोचक को समीप रखने से अपने स्वभाव की समीक्षा और उसका परिष्कारण हो सकता है.

सही आलोचक वही होता है जो मनुष्य की निर्बलताओं और सबलताओं दोनों को पहचाने, क्योंकि निर्बलताओं का दमन सबलताओं के माध्यम से ही होता है. जो आलोचक केवल छिद्रान्वेषी होते हैं, वे मनुष्य में निर्बलताओं के प्रति हीन भावना उत्पन्न करते हैं किन्तु उससे उबरने में सहायक नहीं होते. इसलिए निंदकों के प्रति भी सचेत रहना चाहिए.  

मनुष्य का अपनी  निर्बलताओं को जानना जितना आवश्यक होता है, उतना ही आवश्यक अपनी सबलताओं को जानना होता है. अन्यथा सबलताओं का सदुपयोग ही नहीं हो पाता. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य अपनी सबलताओं को भली-भांति जानता है किन्तु परिस्थितियोंवश उनका सदुपयोग नहीं कर पाता. इससे मनुष्य में अवसाद और निराशा उत्पन्न होते हैं.

अपनी सबलताओं का आकलन तभी होता है जब उनके व्यवहारिक उपयोग के प्रयास किये जाएँ. बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य को अपनी सबलता के बारे में सकारात्मक भ्रम होता है किन्तु जब उस सबलता के परीक्षण का समय आता है तो मनुष्य असफल होता है और उसका भ्रम दूर होता है. असफल होकर भ्रम दूर करना बुद्धिमत्ता नहीं है, इसलिए सबलता के व्यवहारिक उपयोग से पूर्व ही व्यक्ति को उसका परीक्षण कर लेना चाहिए. इस में व्यक्ति का प्रयोगधर्मी होना अत्यधिक सहायता करता है.

व्यक्ति का प्रयोगधर्मी होना भी उसकी एक सबलता होती है. इसी के माध्यम से व्यक्ति अपनी सबलताओं और निर्बलताओं का सही आकलन कर सकता है. अनजाने निर्जन पथों पर अग्रसरण करने का साहस ही प्रयोगधर्मिता का स्रोत होता है. अनजाना पथ वही है जिसपर व्यक्ति पहले कभी न गया हो, तथा निर्जन पथ का आशय उस पथ से है जिस पर कभी कोई न चला हो अथवा जिसपर नगण्य ही कभी चले हों. ऐसे पथों पर चलने हेतु मनुष्य में अदम्य साहस की आवश्यकता होती है. अतः साहस प्रयोगधर्मिता का, और प्रयोगधर्मिता स्वचेतना के मूल होते हैं.

व्यक्ति के प्रयोगधर्मी होने की पृष्ठभूमि यह है कि प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ सबलताएँ अवश्य होती हैं किन्तु इनका ज्ञान होना सहज नहीं होता, कभी-कभी परिस्थितियां भी इनके ज्ञान में बाधक होती हैं. बच्चे प्रायः जो हाथ पड़ता है उसी के विविध उपयोग करने के प्रयास करते हैं, यह उनकी प्रयोगधर्मिता हे होती है जो उन्हें अनजाने पथों पर अग्रसरित करती है. इसीसे यह भी सिद्ध होता है कि प्रयोगधर्मिता मनुष्य की अंतर्चेतना में समाहित होती है किन्तु किन्तु परिस्थितिवश यह उजागर नहीं हो पाती. अतः अंतर्चेतना के स्फुरित होने के लिए परिस्थितियों का दमन भी आवश्यक हो जाता है.

व्यवहारिक जीवन में परिस्थितियों का दमन लगभग असंभव होता है किन्तु प्रायोगिक स्तर पर इन्हें सरलता से अनदेखा किया जा सकता है. अतः प्रयोगधर्मिता परिस्थितियों से मुक्त होती है जिसका उपयोग स्वचेतना के लिए कभी भी किया जा सकता है.

अंत में प्रयोगधर्मिता के बारे में भी कुछ शब्द प्रासंगिक हैं. प्रयोगधर्मिता का अर्थ है - सावधानीपूर्वक दुस्साहस करते हुए अंधे मार्ग पर चलना और पूर्ण संचेतना के साथ परिणामों का पर्यवेक्षण करना. इस प्रकार प्राप्त सकारात्मक परिणाम सबलताएँ और ऋणात्मक परिणाम निर्बलताएँ स्वीकार की जाएँ.