मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अभ्यस्त होने की स्वायत्तता और विवशता

जीव के अवचेतन मन में जो समाहित होता है, वह स्वतः होता रहता है अथवा किया जाता रहता है. जो स्वतः होता रहता है वह शरीर के संतुलित सञ्चालन के लिए आवश्यक होता है इसलिए प्राकृत रूप से इस हेतु अवचेतन मन में समाहित होता है. जो कुछ व्यक्ति के अभ्यस्त होने के कारण किया जाता है वह भी उसके अवचेतन मन में समाहित होता है किन्तु इसे स्वयं व्यक्ति द्वारा ही प्रविष्ट कराया जाता है.

शरीर में पाचन, रक्त प्रवाह, आदि अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती रहती हैं जो एक श्रंखला द्वारा एक दूसरे से जुडी होती हैं और प्रकृति के कारण-प्रभाव सिद्धांत के अनुसार संचालित होती रहती हैं. किन्तु इनमें कोई अवरोध उत्पन्न होने से व्यक्ति का अवचेतन मन इन्हें नियमित करने का प्रयास करता है और असफल होने पर शरीर में अस्वस्थता के माध्यम से इसकी सूचना प्रदान करता है. अवचेतन मन में इस प्रकार की सूचनाओं की प्रविष्टि अंतर्चेतना से, माता-पिता से प्राप्त जींस के माध्यम से, अथवा व्यक्ति की पारिस्थितिकी के कारण होती है. यद्यपि इनका संचालन आदतों की तरह ही होता है किन्तु इनकी अनिवार्यता के कारण इन्हें आदत नहीं कहा जाता.

जो व्यक्ति बाइसाइकिल चलाने का अभ्यस्त है, उसे पैडल मारने पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती, यह क्रिया उसके अवचेतन मन द्वारा स्वतः संचालित की जाती रहती है. इस स्वतः संचालन के लिए व्यक्ति को इस क्रिया में कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. किन्तु इस क्रिया के लिए व्यक्ति विवश अथवा लालायित नहीं रहता अथवा बाइसाइकिल देखते ही उसके पैर पैडल मारने के लिए उद्यत नहीं हो जाते. मिट्टी खाने के अभ्यस्त बच्चे का मन मिट्टी देखते ही उसे खाने के लिए ललचा उठता है और वह अवसर पाते ही उसे मुख में डाल लेता है. यह भी उसके अवचेतन मन द्वारा संचालित होता है और इसके लिए भी बच्चे को कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. .

इस प्रकार से कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने के दो प्रभाव होते हैं - एक, जिसमें व्यक्ति लालायित अथवा विवश नहीं होता, और दूसरा, जिसमें व्यक्ति विवश अथवा लालायित हो जाता है. सामान्यतः, दूसरी प्रकार की अभ्यस्तता का प्रभाव ही व्यक्ति की आदत कहा जाता है, जो अच्छी अथवा बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं. जो आदतें व्यक्ति अथवा मानव समाज के हित में नहीं होतीं उन्हें बुरी तथा इसके विपरीत जो आदतें व्यक्ति एवं सम्माज के हित में होती हैं उन्हें बुरी आदतें कहा जाता है. स्वाभाविक है कि समाज व्यक्ति में बुरी आदतों को छुडाने तथा अच्छी आदतें डालने के प्रयास करता है जिसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाए जाते हैं.
The Now Habit: A Strategic Program for Overcoming Procrastination and Enjoying Guilt-Free Play

व्यक्ति में अपने पारिस्थितिकी के बारे में जिज्ञासा एक अंतर्चेतना के रूप में प्राकृत रूप से विद्यमान होती है, जिसके कारण वह कर्म करने के लिए उद्यत होता है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति की कामनाएं तथा हित-साधन भी उसे कर्म के लिए अथवा इसके विपरीत विवश करते हैं. कर्म करने अथवा न करने का तीसरा बड़ा कारण व्यक्ति का अपना संकल्प होता है जो उसकी जिज्ञासा, कामना अथवा हित साधन से निर्लिप्त हो सकता है. इस प्रकार व्यक्ति उक्त चार कारणों से कोई क्रिया करता है अथवा उसके विमुख होता है. इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को बुरी आदतों से मुक्त किया जा सकता है अथवा उसमें अच्छी आदतों का समावेश किया जा सकता है.

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

वृद्धावस्था और सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र

धर्मात्मा और धर्मोपदेशक प्रायः लोगों को मृत्यु का स्मरण कराकर उन्हें भयभीत करते रहते हैं ताकि वे उनके माध्यम से भगवान् के शरणागत बने रहें और उनका धर्म और ईश्वर का व्यवसाय फलता फूलता रहे. ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है उसे मृत्यु का आतंक अधिकाधिक सताने लगता है. यह है इस कृत्रिम मानवता का तथ्य. किन्तु वास्तविक मानव का सत्य इसके एक दम विपरीत है.


मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है कि ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है वह भावुक रूप में अधिकाधिक स्थिर और प्रसन्नचित्त रहने लगता है. इसके पीछे वह सिद्धांत है जिसे मैं 'सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र' कहना चाहूँगा. इसके अनुसार आयु में वृद्धि के साथ व्यक्ति को बोध होने लगता है कि अब उसके पास व्यर्थ करने योग्य पर्याप्त समय नहीं है. व्यक्ति अपनी सामान्य बुद्धि के आधार पर उसके पास जिस वस्तु का अभाव होता है, वह उसका अधिकाधिक सदुपयोग करता है. इस कारण से व्यक्ति वृद्धावस्था में समय का अधिकाधिक सदुपयोग करने के प्रयास करने लगता है. इस सदुपयोग में वह अधिकाधिक प्रसन्न रहने के प्रयास करता है, व्यर्थ की चिंताओं से दूर रहने लगता है, और समाज में सौहार्द स्थापित करना अपना धर्म समझने लगता है. जिसे कहा जा सकता है कि वह समाज के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है.

जनसंख्यात्मक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि जन्म और मृत्यु दरों में कमी आने के कारण आगामी समय में विश्व में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अधिक होगी. यहाँ तक कि कुछ लोगों का मत है कि ऐसे समय में वृद्धों की देखभाल करने के लिए युवाओं की संख्या भी पर्याप्त नहीं होगी. यह भय सच नहीं है क्योंकि वृद्धों की संख्या अधिक होने से मानव समाज भावुकता स्तर पर अधिक स्थिर, प्रसन्न और सामाजिक दायित्वों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा.

विश्लेषण के लिए हम तीन क्षेत्रों की वर्तमान जनसँख्या के आंकड़ों पर दृष्टिपात करते हैं -
संयुक्त राज्य अमेरिका -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८०.८ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १९.६%,
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६६.२%,
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १४.३%,

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.० वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - २१.२%
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६८.२%
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १०.३%

यूरोप -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८१.६  वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १५.३ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६५.३ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १९.४ %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.१ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १६.८ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६९.१ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - पुरुष १४.१ %

भारत -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ६५.६ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३०.९ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.१ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ५.० %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ६३.९ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३३.७ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.४ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ४.८ %

Population and Society: An Introduction to Demographyउपरोक्त जनसंख्यात्मक आंकड़ों से निम्नांकित तथ्य सामने आते हैं -

  • यूरोप में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अभी भी अधिक है जो इस तथ्य का प्रमाण है कि वहां लोग अधिक स्वस्थ और दीर्घजीवी हैं. इसका अर्थ यह भी है कि वृद्धों की संख्या की अधिकता का जन स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव होता है. 
  • भारत में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से बहुत कम है जिससे जन-स्वास्थ की बुरी स्थिति का आभास मिलता है. 
अतः हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भारत जैसे देशों में वृद्धों की अधिकता से जन-स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा और इससे कोई समस्या उठ खडी होने की संभावना नहीं है. वृद्धों के भावुक स्तर पर अधिक स्थिर होने का यही अर्थशास्त्र है. इसके विपरीत किशोरों और युवाओं में अवसाद, चिंताएं, व्यग्रता और निराशा जैसे ऋणात्मक भावों की अधिकता से सामाजिक भावुकता के अर्थशास्त्र पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है. अतः जहां तक वयता का प्रश्न है भावी मानव समाज अधिक साधन-संपन्न, विनम्र और बुद्धिमान सिद्ध होगा.

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

स्वप्न दृष्टा

हम सभी स्वप्न देखते हैं - सोयी अवस्था में, और जागृत अवस्था में भी. किन्तु सच यह है कि हम स्वप्नों में कुछ भी नहीं देखते हैं क्योंकि देखा तो आँखों से जाता है जो स्वप्नावस्था में उन दृश्यों को नहीं देखतीं. तथापि हमें लगता है कि हम स्वप्नावस्था में देख रहे होते हैं. वस्तुतः स्वप्नावस्था में हमारे मस्तिष्क का वही भाग देख रहा होता है जो आँखों द्वारा देखे जाते समय उपयोग में आता है. यह भी निश्चित है कि मस्तिष्क की अधिकाँश गतिविधियों में हमारी स्मृति भी सक्रिय होती है. स्वप्नावस्था में यह स्मृति उन दृश्यों को ही प्रस्तुत करती है जो हम कभी देख चुके होते हैं, अथवा जिनकी हमने कभी कल्पना की होती है, किन्तु अनियमित और अक्रमित रूप में. इस अनियमितता और अक्रमितता के कारण ही हमारे स्वप्न यथार्थ से परे के घटनाक्रमों पर आधारित होते हैं.

जब हम जागृत अवस्था में अपने कल्पना लोक में निमग्न रहते हैं तब भी हम आँखों के माध्यम से देखी जा रही वस्तुओं के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देख रहे होते हैं. इस प्रकार हम देखने की क्रिया दो तरह से कर रहे होते हैं - आँखों से तथा मस्तिष्क से. किन्तु हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि जब हम आँखों से देखने की क्रिया पर पूरी तरह केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी मस्तिष्क की देखने की क्रिया शिथिल हो जाती है और जब हम अपने कल्पनाओं के माध्यम से दिवा-स्वप्नों में लिप्त होते हैं तब हमारी आँखों से देखने की क्रिया क्षीण हो जाती है. इससे सिद्ध यह होता है कि दोनों प्रकार की देखने की क्रियाओं में मस्तिष्क का एक ही भाग उपयोग में आता है जो एक समय एक ही प्रकार से देखने में लिप्त होता है.

हमारा आँखों के माध्यम से देखना भी दो प्रकार का होता है - वह जो हमें स्वतः दिखाई पड़ता है, और वह जो हम ध्यान से देखते हैं. स्वतः दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं में हमारा मस्तिष्क लिप्त नहीं होता इसलिए यह हमारी स्मृति में भी संचित नहीं होता जब कि जो भी हम ध्यान से से देखते हैं वह हमारी स्मृति में भी संचित होता रहता है और भविष्य में उपयोग में लिया जाता है.

जो हमें बिना ध्यान दिए स्वतः दिखाई देता रहता है वह भी दो प्रकार का होता है - एक वह जिससे हम कोई सम्बन्ध नहीं रखते, और दूसरा वह जो हमारी स्मृति में पूर्व-समाहित होता है किन्तु ध्यान न दिए जाने के कारण नवीन रूप में स्मृति में प्रवेश नहीं करता. इस दूसरे प्रकार के देखने में हमारा अवचेतन मन सक्रिय होता है और हमारा मार्गदर्शन करता रहता है. जब हम कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसके हम अभ्यस्त होते हैं तो हमें उस क्रिया पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती, तब हमारा अवचेतन मन हमारे शरीर का सञ्चालन कर रहा होता है. ऐसी अवस्था में हम अपने चेतन मन को अन्य किसी विषय पर केन्द्रित कर सकते हैं.
The Complete Dream Book, 2nd edition: Discover What Your Dreams Reveal about You and Your Life

वैज्ञानिकों में मतभेद है कि स्वप्नावस्था में दृश्य तरंग मस्तिष्क के किस अंग से आरम्भ होती है - दृष्टि क्षेत्र से अथवा स्मृति से किन्तु उनकी मान्यता है कि यह आँख से होकर मस्तिष्क में न जाकर मस्तिष्क में ही उठाती है. उनका ही मानना है कि व्यक्ति स्वप्न तभी देखता है जब उसकी सुषुप्त अवस्था में उसकी आँखों में तीव्र गति होती है. इस अवस्था को आर ई एम् (REM ) निद्रा कहा जाता है.

दिवास्वप्न देखना और कल्पना लोक में विचारना एक ही क्रिया के दो नाम हैं. व्यतीत काल की स्मृतियों में निमग्न रहना यद्यपि यदा-कदा सुखानुभूति दे सकता है किन्तु इसका जीवन में कोई विशेष महत्व नहीं होता. सुषुप्तावस्था के स्वप्न प्रायः भूतकाल की स्मृतियों पर आधारित होते हैं इस लिए ये भी प्रायः निरर्थक ही होते हैं.

मानवता एवं स्वयं के जीवन के लिए वही दिवास्वप्न महत्वपूर्ण होते हैं जो भविष्य के बारे में स्वस्थ मन के साथ देखे जाते हैं. ऐसे स्वप्नदृष्टा ही विश्व के मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं. प्रगति सदैव व्यवहारिक क्रियाओं से होती है और प्रत्येक व्यवहारिक क्रिया से पूर्व उसका भाव उदित होता है जो दिवास्वप्न में ही उदित होता है. अतः प्रत्येक प्रगति कू मूल स्रोत एक दिवास्वप्न होता है.

आरम्भ एक नयी चुनौती का

मेरे गाँव खंदोई का प्रधान एक ऐसे व्यक्ति की पत्नी बन गयी है जिसे अधिकाँश लोग नहीं चाहते - उसके आपराधिक चरित्र के कारण. चूंकि वर्तमान भारतीय जनतंत्र की परम्परा के अनुसार, स्त्री प्रधानों के पति ही प्रधान पद का दायित्व एवं कार्यभार संभालते हैं, इसलिए उक्त आपराधिक चरित्र वाला व्यक्ति ही प्रधान माना जा रहा है.


उसे चुनाव में पड़े १५०० मतों में से केवल ४२२ मत पड़े, शेष चार विरोधियों में बँट गए जिसके कारण वह चुना गया. यह भारतीय जनतंत्र और संविधान की निर्बलता है जो अल्पमत प्राप्तकर्ता को भी विजयी बनाती है. ग्राम प्रधान विकास के लिए उत्तरदायी होता है जिसके लिए उसे सार्वजनिक धन प्रदान किया जाता है. इस धन के उपयोग में भारी हेरफेर की जाती है. इसी के लिए अधिकाँश प्रधान पद प्रत्याशी मतदाताओं पर भारी धन व्यय करके यह पद प्राप्त करने के प्रयास करते हैं.

इस व्यक्ति को प्रधान बनने से रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद, निराश, निस्सहाय, निर्धन ग्रामवासियों ने मुझे दायित्व दिया है कि मैं सार्वजनिक धन के दुरूपयोग को न होने दूं. किसी पद या प्रतिष्ठा की लालसा न होते हुए भी मैं इस दायित्व से पीछे नहीं हट सकता. इस दायित्व के लिए ग्राम के निर्धनतम और दलित लोगों ने मुझे अपने मोहल्ले से अपने प्रतिनिधि के रूप में ग्राम पंचायत का सदस्य चुना है. मेरे सदस्य पद पर चुने जाने की अनेक विशेषताएं रही हैं.

सत्ता पक्ष ने मेरा भरपूर विरूद्ध - नैतिक एवं अनैतिक, किया. यहाँ तक कि मतदाताओं को नकद धन के प्रलोभन भी दिए गए. ये अधिकाँश मतदाता भूमिहीन मजदूर हैं और बहुत से प्रधान समूह के यहाँ मजदूरी करके अपने आजीविका चलाते हैं. इसलिए उन्हें मजदूरी न दिए जाने की धमकियां भी दी गयीं. तथापि मतदाता मेरे समर्थन पर अडिग रहे. ऐसा विरल ही होता है, विशेषकर तब जब मतदाता अशिक्षित एवं निर्धन हों. इसका एक विशेष कारण यह था कि मतदाता अपने हितों की रक्षा के लिए स्वयं मुझे अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते थे जब कि मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी. उन्हें मुझ पर भरोसा है कि मैं उन्हें कोई हानि नहीं होने दूंगा तथा मेरे कारण ग्राम विकास कार्यों में भी भृष्टाचार नहीं होगा. 

इससे उक्त नए दायित्व का भार मेरे कन्धों पर आ गया है. इसके साथ ही उक्त प्रधान पति के आपराधिक गिरोह से मेरी शत्रुता भी प्रबल होगी, क्योंकि वे अपने दुश्चरित्रता से बाज नहीं आने वाले और मैं अपने विरोध से. ग्राम पंचायत के कार्य क्षेत्र विकास कार्यालय से संचालित होते हैं. इसलिए मैंने ग्राम पंचायत का सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद क्षेत्र विकास अधिकारियों से दो निवेदन किये हैं -
    Aristotle on Political Enmity and Disease: An Inquiry into Stasis (S U N Y Series in Ancient Greek Philosophy)
  • ग्राम खंदोई से सम्बंधित सभी बैठकों में केवल विधिवत चुने गए व्यक्ति ही उपस्थित हों न कि उनके पति अथवा अन्य संबंधी. 
  • ग्राम खंदोई में आपराधिक चरित्र के लोगों का बोलबाला है इसलिए ग्राम संबंधी सभी अनुलेखों की जांच-पड़ताल ध्यान से की जाये. इसमें कोई भी भूल अथवा धांधली होने पर मैं उसका डटकर विरोध करूंगा. 
इस सबसे ग्राम कार्यों में मेरी व्यस्तता और भी अधिक बढ़ जायेगी. 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

आदर्श और वास्तविकता में सामंजस्य स्थापन

अधिकाँश लोग अपनी वास्तविकताओं से दूर भागने के प्रयासों में अपने आदर्श की कल्पनाओं में निमग्न रहते हैं. यही उनके दुखों का कारण बनता है. शोधों में पाया गया है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अपनी वास्तविकता से अधिक असंतुष्ट रहती हैं. साथ ही यह भी पाया गया है कि पुरुषों के आदर्शों में स्त्रियों के आदर्शों की तुलना में अधिक भिन्नता होती है, जिसका अर्थ यह है कि पुरुष भिन्न प्रकार से सोचते हैं जब कि सभी स्त्रियाँ लगभग एक जैसा  सोचती हैं. इसका अर्थ यह भी है कि पुरुष अपनी वास्तविकताओं से समझौता करने में अधिक निपुण होते हैं. फलस्वरूप पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दुखी रहती हैं. 


इसके निराकरण के दो उपाय हैं - अपनी वास्तविकता को ही अपना आदर्श बनाएं अथवा अपने आदर्श को अपनी वास्तविकता बनायें. सीधे रूप में ये दोनों प्रक्रियाएं ही दुष्कर प्रतीत होती हैं. इसका दूसरा उपाय अधिक व्यवहारिक है जो हमें पुरुष प्रकृति से प्राप्त होता है - अपने आदर्श को अधिकतम व्यापक बनाएं जिससे कि अधिकतर वास्तविकताएं इसके घेरे में आ जाएँ. प्राकृत रूप से पुरुष इसमें अधिक समर्थ होते हैं, स्त्रियों के लिए कुछ दुष्कर है. इसका कारण है स्त्रियों की सुकोमलता और उनमें समर्पण भाव का आधिक्य, जो दोनों ही सकारात्मक गुण हैं. अतः इन्हें भी निर्बल नहीं किया जाना चाहिए. 


आदर्श प्रमुखतः दो प्रकार के होते हैं - मुझे कैसा बनना है, और मुझे क्या चाहिए. किन्तु दोनों का मूल पारस्परिक अनुकूलता है. अतः प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उसकी दूसरों से अनुकूलता द्वारा निर्धारित होता है. इसलिए आदर्श की व्यापकता के लिए हम सोचें कि हम किस-किस के अनुकूल हैं न कि हमारे अनुकूल कौन है और साथ ही हम अपनी अनुकूलता को अधिकाधिक व्यापक करें. अनुकूलता की व्यापकता चारित्रिक लचक प्रतीत होती है किन्तु यह उससे से भिन्न है. व्यक्ति अपने चरित्र और स्वभाव पर अडिग रहते हुए भी अपनी अनुकूलता को व्यापक कर सकता है, अधिकाधिक अध्ययन से - लोगों का, समाज का, वस्तुओं का, और सर्वोपरि स्वयं के व्यक्तित्व, जीवन शैली और बाहरी प्रस्तुति का.  
Personality: Theory and Research



व्यक्ति क्या है - एक शरीर और तदनुसार उसका मन, एक बुद्धि और तदनुसार उसका व्यवहार, एक संकल्प और तदनुसार उसके कार्य-कलाप, एक रूप और तदनुसार उसकी प्रभाविता, और एक सार्वभौमिक इच्छाशक्ति - जीवन का आनंद, आदि, आदि.. स्वयं का अध्ययन करें, अन्वेषण करें और अपने परिभाषा को व्यापक स्वरुप दें. आदर्श की व्यापकता के लिए इनमें से किसी को भी लचकदार बनाने की आवश्यकता नहीं है अपितु इन सभी के समावेश की आवश्यकता होती है.