गुरुवार, 13 मई 2010

राज, राज्य

Kingराज 
शास्त्रों में 'राज' शब्द ग्रीक भाषा   archos   से बनाया गया है जिसका अर्थ 'शासक' है. आधुनिक संस्कृत में भी इसे इसी अभिप्राय के लिए ऊपयोग किया जाता है.
The History of the Ancient World: From the Earliest Accounts to the Fall of Rome
राज्य
शास्त्रीय शब्द 'राज्य' राज से भिन्न है. यह ग्रीक शब्द   archaios   से बनाया गया है जिसका अर्थ प्राचीन है. अंग्रेज़ी का archaeology   भी इसी ग्रीक शब्द से बना है. 

बुधवार, 12 मई 2010

सरस्वती पथ और लोप कथा

शास्त्रों में वर्णित नदी सरस्वती के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं. साथ ही इसके लोप होने के बारे मैं भी अनेक कल्पनाएँ की गयीं हैं. किन्तु ऐसी कल्पनाएँ करते समय इस तथ्य पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि किसी अन्य नदी के लोप होने की घटना प्रकाश में नहीं आयी है, तो फिर सरस्वती का ही विलोपन क्यों हुआ जो अत्यंत विशाल जलधारा थी. हाँ, कुछ छोटे-मोटे नदी-नाले जलाभाव में सूख अवश्य गए हैं किन्तु वे भी अपने पदचिन्ह पीछे छोड़ जाते हैं. मैंने इन प्रश्नों पर गहन विचार किया है, और अपने ऐतिहासिक अन्वेषणों के आधार पर सरस्वती के विलोपन पर शोध किया है. यह प्रथम अवसर है जब में अपने शोध परिणामों को प्रकाशित कर रहा हूँ, जब कि इस सम्बंधित शोध मैंने १९९५-१९९७ की अवधि में किये थे.

अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.

सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.

यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.

मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है.  यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.

विलोपन का कारण 
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.

विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है. 

देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी 
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का  तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी.  आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है. 

सरस्वती पथ और लोप कथा

शास्त्रों में वर्णित नदी सरस्वती के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं. साथ ही इसके लोप होने के बारे मैं भी अनेक कल्पनाएँ की गयीं हैं. किन्तु ऐसी कल्पनाएँ करते समय इस तथ्य पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि किसी अन्य नदी के लोप होने की घटना प्रकाश में नहीं आयी है, तो फिर सरस्वती का ही विलोपन क्यों हुआ जो अत्यंत विशाल जलधारा थी. हाँ, कुछ छोटे-मोटे नदी-नाले जलाभाव में सूख अवश्य गए हैं किन्तु वे भी अपने पदचिन्ह पीछे छोड़ जाते हैं. मैंने इन प्रश्नों पर गहन विचार किया है, और अपने ऐतिहासिक अन्वेषणों के आधार पर सरस्वती के विलोपन पर शोध किया है. यह प्रथम अवसर है जब में अपने शोध परिणामों को प्रकाशित कर रहा हूँ, जब कि इस सम्बंधित शोध मैंने १९९५-१९९७ की अवधि में किये थे.

अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.

सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.

यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.

मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है.  यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.

विलोपन का कारण 
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.

विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है. 

देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी 
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का  तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी.  आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है. 

मंगलवार, 11 मई 2010

यथार्थ चिन्तन और कल्पना

पहले चिंतन के बारे में कुछ चिंतन. प्रत्येक मनुष्य अपनी प्राकृत अंतर्चेतना के अधीन अपने अनुभवों से प्राप्त सूचनाओं को अपनी स्मृति में संग्रहीत करता है. ये सूचनाएं व्यक्ति की पारिस्थितिकी से पांच संग्राहकों - आँखें, कान, नासिका, जिह्वा और त्वचा, द्वारा क्रमशः दृश्य, ध्वनि, गंध, स्वाद और स्पर्श के रूप में होती हैं.

सूचनाएं आरम्भ में अव्यवस्थित अवस्था में होती हैं जिनके उपयोग में असुविधा होना संभव होता है. इसलिए इन सूचनाओं को मस्तिष्क द्वारा व्यवस्थित और अंतर्लाग्नित किया जाता है. इस प्रकार व्यवस्थित और अंतर्लाग्नित सूचनाएं ही मनष्य का ज्ञान कहलाती हैं. ज्ञान को कैसे, कब और कहाँ उपयोग में लिया जाये यह मनुष्य की बुद्धि का कार्य होता है और इस समन्वय को मनुष्य का बोध कहा जाता है. ज्ञान को बोध में संपरिवर्तित करना ही चिंतन कहा जाता है. इस प्रकार चिंतन स्मृति में संग्रहीत सूचनाओं का उपयोग है, जिस में स्मृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है. 
The Innovator's Toolkit: 50+ Techniques for Predictable and Sustainable Organic Growth 
चिंतन दो प्रकार का हो सकता है - यथार्थपरक और कल्पनापरक. पहले से ही परस्पर लग्नित सूचनाओं के उपयोग को यथार्थपरक चिंतन कहा जाता है क्योंकि यह पूर्वानुभावों पर आधारित होता है. इन्ही पूर्वानुभवों के कारण ही सूचनाएं पहले से ही लग्नित होती हैं. किन्तु कल्पनाशील व्यक्ति उन सूचनाओं को भी समन्वित करने के प्रयास करते हैं जो पूर्वानुभावों के आधार पर लग्नित नहीं होती हैं. इस कार्य में व्यक्ति की रचनाधर्मिता क्रियाशील होती है जिससे वह ऐसी बात कहता अथवा ऐसा कर्म करता है जिसका अनुभव किसी ने कभी पहले किया ही न हो. इसे व्यक्ति का नवाचार भी कहा जाता है.      

सोमवार, 10 मई 2010

रोग प्रवंचन उपाय

रोगों की रोकथाम उनकी चिकित्सा की तुलना में सस्ती और अति लाभकर सिद्ध होती है. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में रोगों की रोक्थाम्म पर विशेष बल है. इसके निम्नांकित उपाय प्रस्तावित हैं -

नशीले द्रव्यों पर पूर्ण प्रतिबन्ध
लोगों में मानसिक रोगों की उत्पत्ति में नशीले द्रव्यों जैसे तम्बाकू, शराब, अफीम, गांजा, भांग आदि का प्रमुख योगदान होता है. इनके उपयोग से व्यक्तिगत और सामाजिक अर्थव्यवस्था दुष्प्रभावित होती है जिससे रोगों की समुचित चिकित्सा भी संभव नहीं हो पाती. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र इस प्रकार के सभी द्रव्यों के उत्पादन एवं वितरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध की व्यवस्था है. स्त्रियों पर अत्याचार भी इसी प्रकार के द्रयों के सेवन के कारण होते हैं. इसका उल्लंघन देशद्रोह माना जायेगा जिसके लिए मृत्यु दंड का प्रावधान है.

कुछ लोगों के लिए स्वास्थ कारणों से इनके सेवन को आवश्यक माना जाता हैं किन्तु बौद्धिक जनतंत्र ऐसे लोगों को रियायत देकर पूरे समाज को दूषित होने का खतरा नहीं उठता और ऐसे लोगों को भी इसकी अनुमति नहीं दी जायेगी.

सामाजिक वानिकी एवं पर्यावरण संरक्षण
देश भर में भूमि तल पर स्वस्थ पर्यावरण के निर्माण के लिए बौद्धिक जनतंत्र सभी नदी-नालों, सड़को, रेल पटरियों के किनारों पर वृक्ष उगाने के लिए कृत-संकल्प है. इससे देश की अर्थ व्यवस्था पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ेगा. इसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति के लिए न्यूनतम एक वृक्ष लगाये जाने का लक्ष्य है.

इससे भीषण गर्मी और शीत का शमन होगा जो अधिकाँश रोगों के कारण होते हैं. इस योजना के क्रियान्वयन में वनस्पति के चुनाव पर विशेष ध्यान दिया जायेगा क्योंकि देश के शत्रु  इस भूमि पर अनेक हानिकर पेड़-पौधे उगाते रहे हैं जो बिना किसी शोध के आज भी प्रचलित हैं. एक सामान्य नियम यह है कि भारत की जलवायु के अनुकूल वे वृक्ष हैं जिनकी पत्तियां चिकनी तथा पतली होती हैं.

प्रदूषण की रोकथाम के लिए औद्योगिक प्रदूषक द्रव्यों को उनके उद्गम पर ही उपचारित किया जाएगा और उनका नदी नालों में डालना पूर्ण प्रतिबंधित होगा.

परिवार नियोजन
स्त्री जाति के स्वास्थ पर उनके ऊपर बारम्बार मातृत्व का भार एक बड़ा कारण होता है. इसी से बच्चों का स्वास्थ भी दुष्प्रभावित होता है. देश में सीमित जनसँख्या का ही उपयोग एवं पोषण किया जा सकता है, इसलिए भी जनसँख्या का नियंत्रण अनिवार्य है. वर्तमान में जनतांत्रिक प्रावधानों के अंतर्गत राजनैतिक सत्ता हथियाने के उद्येश्य से अनेक जातियां और वर्ग अपनी जनसंख्याओं में अप्रत्याशित वृद्धि कर रहे हैं. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में तीन से अधिक बच्चे उत्पन्न करने वाले युगलों को सदैव के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया जायेगा, और चौथे, पांचवे, आदि बच्चों के मताधिकार की न्यूनतम आयु सामान्य मताधिकार आयु २५ वर्ष के स्थान पर क्रमशः ३०, ३५, आदि वर्ष निर्धारित होगी. यह प्रावधान सभी पर लागू होगा और जाति, धर्म,क्षेत्र आदि का कोई इचार नहीं किया जाएगा.

भोजन और पोषण
भारत में शक्कर और सब्जियों के उत्पादन और खपत पर विशेष शोधों की आवश्यकता है क्योंकि अधिकाँश रोग इन्ही के माध्यम से पनप रहे हैं. शीरा युक्त शक्कर जैसे गुड, आदि शरीर में बड़ी शीघ्रता से सड़ने लगते हैं और रोग उत्पन्न करने लगते हैं. वैसे भी मनुष्य को शुद्द शक्कर खाने की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि इसकी पर्याप्त मात्रा फलों और अन्नों से प्राकृत रूप में उपलब्ध हो जाती है.

अनेक सब्जियां जैसे लौकी, तोरई आदि पोषण विहीन होती हैं जिनका भारत में बहुत प्रचलन है. इनकी खपत से लोगों को दालों के प्रति रुझान कम होता है जो संतुलित पोषण के लिए अनिवार्य होती हैं. नाईटशेड परिवार की अनेक सब्जियां जैसे आलू, बैंगन, टमाटर, आदि पर शोध किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि इनके गुण धर्म मानावानुकूल होने की संभावना अल्प है.

देश में फलों की खपत विश्व की तुलना में बहुत कम है जिससे भी स्वास्थ दुष्प्रभावित होता है. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र देश में फलों के उत्पादन और खपत को प्रोत्साहित करेगा.

स्वच्छता
स्वच्छता स्वास्थ का पर्याय होती है जबकि के जनजीवन में अनेक प्रकार की गंदगियाँ और गंदे व्यवहार व्याप्त हैं. मेले आदि पर नदी स्नान छूट की बीमारियों के प्रसार का प्रमुख कारण है जो इस देश की संस्कृति में समाहित है. छोटे-छोटे घरों में पशुपालन के कारण पशुओं के मॉल मूत्र घर में रहने वाले पुरुषों, बच्चों और स्त्रियों में अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देते हैं.

बंद स्थान में स्नान करना स्वास्थ के लिए अनेक प्रकार से लाभकर होता है - शरीर के गुप्तांगों की सफाई, नदी स्नान की वर्जना, खुले वातावरण के तापमान से रक्षा आदि.

पीने का पानी, जो अभी तक स्वच्छ रूप में देश की बड़ी जनसँख्या को उपलब्ध नहीं कराया गया है, रोगों का प्रमुख जन्मदाता रहा है. अतः प्रत्येक व्यक्ति को स्वच्छ जल उपलब्ध कराना बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकता है.     

जनगणना और मतदाता सूची के छिद्र

भारत की वर्तमान जनसँख्या लगभग १,२००,०००,००० कही जाती है. किन्तु इस बारे में जो अव्यवस्था मेरे गाँव के रूप में दिखाई देती है वही सर्वत्र व्याप्त है. मेरे गाँव में इस समय लगभग १,७०० मतदाता हैं किन्तु इनमें से लगभग ३०० ऐसे मतदाता हैं जो गाँव से बाहर रहते हैं और गाँव में विशेष अवसरों पर ही आते हैं. ऐसे व्यक्ति अन्यत्र अपने व्यवसाय अथवा सेवा कार्य करते हैं, इन्होने अपने स्थायी निवास भी वहीं बना लिए हैं, वहीं इनके राशन कार्ड आदि बने हुए हैं और वहां की मतदाता सूचियों में भी इनके नाम सम्मिलित हैं. लिन्तु ये नहीं चाहते कि इनके नाम गाँव की मतदाता सूची से निकाले जाएँ और न ही शासन की ओर से इस बारे में कोई कार्यवाही की जाती है. प्रत्येक चुनाव से पूर्व मतदाता सूचियों के जो संशोधन किये जाते हैं उनमें नए नाम तो जोड़े जाते हैं किन्तु कोई पुराना नाम नहीं निकाला जाता. इस प्रकार गाँव में लगभग २० प्रतिशत अनधिकृत मतदाता हैं, जिसे राष्ट्र स्तर पर भी सत्य माना जा सकता है.
Votes and Violence: Electoral Competition and Ethnic Riots in India 
अभी उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनाव होने हैं जिसके लिए राज्य चुनाव आयोग ने मतदाता सूची पुनार्वीक्सन के आदेश दिए हैं. मैंने राज्य चुनाव आयुक्त को गाँव की सूची से ऐसे मतदाताओं के नाम कटे जाने का आग्रह किया है जिनके माम अन्यत्र की मतदाता सूचियों में भी सम्मिलित हैं. किन्तु इस बारे में न तो मुझे कोई उत्तर दिया गया है और न ही मतदाता सूची संशोधकों को समुचित आदेश दिए गए हैं.  

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि राज्य चुनाव आयोग तथा भारत के मुख्य चुनाव आयोग अपनी-अपनी प्रथक मतदाता सूचियों का निर्माण एवं उनका संशोधन करते हैं जब कि दोनों के मानदंड एक समान हैं और प्रथक मतदाता सूचियों का कोई औचित्य नहीं है. तथापि इस कार्य में बार-बार सार्वजनिक धान का दुरूपयोग किया जा रहा है.
Various Census of India 
जो स्थिति मतदाता सूची की है वही स्थिति जनगणना की भी है. गाँव की जनसँख्या ३५०० के लगबग कही जाती है किन्तु इनमें से लगभग ६०० व्यक्ति बाहर रहते हैं और उनके नाम उनके वर्तमान निवास स्थानों की जनगणना में भी निश्चित रूप से सम्मिलित होंगे.

यह  सब दर्शाता है कि हमारी कार्य प्रणाली और संस्कृति कैसी है और हम व्यक्तिगत, सम्माजिक और मानसिक रूप में कितने स्वस्थ हैं. अधिकतम लाभ पाने की लालसा हमारी संस्कृति बन गयी है इसका परिणाम चाहे कुछ भी हो.