प्रत्येक व्यक्ति प्राकृत रूप में भी अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक उत्पादित करने की क्षमता रखता है सभ्यता और वैज्ञानिक विकास कार्यों ने इस उत्पादन क्षमता को और भी अधिक संवर्धित किया है. इसलिए मानब जाति सही दिशा में चलने पर कभी अभावग्रस्त नहीं हो सकती. तथापि, आज विश्व की आधी से अधिक जनसँख्या अभावग्रस्त है और अभावों से सतत जूझ रही है. इसका कारण कुछ दुष्ट लोगों द्वारा राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सत्ताओं पर अधिकार कर अन्य लोगों का सतत शोसन करते रहना. अतः शोषण ही आधुनिक विश्व की गंभीरतम विडम्बना है. महामानव सदैव शोषण-विहीन समाज की संरचना के प्रयासों में लगे रहते हैं ताकि कोई भी अभावग्रस्त न रहे और अन्य सभी मनुष्य मानवीय जीवन जी सकें.
विश्व में शोषण व्यवस्था का उद्गम धर्मों के रूप में हुआ जब चतुर लोगों ने जनसाधारण को ईश्वर के नाम से आतंकित करके उनपर अपने मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किये. विश्व के सभी अभावग्रस्त लोग धर्मान्धता के कारण ही आज भी पिछड़े हैं और चतुर लोगों के चंगुल में शोषण के शिकार हो रहे हैं.
आधुनिक विश्व में जो लोग अपनी चिन्तनशीलता के कारण धर्मान्धता के शिकार होने से बच गए, दुष्टों ने उनपर दूसरा मनोवैज्ञानिक प्रहार किया और उनमें यह धारणा पनपायी कि प्रतिस्पर्द्धा ही विकास की जननी होती है. इसे अंतर-मानव और अंतर-वर्ग संघर्ष पल्लवित और पुष्पित हुए जिनका लाभ दुष्ट लोग उठाते रहे हैं.
प्रतिस्पर्द्धा सदैव आवश्यकता और उपलब्धि के असंतुलन से पनपती है और यह असंतुलन नियोजन में त्रुटियों के कारण उत्पन्न होता है. उदाहरण के लिए भारत में इंजीनियर समुदाय अपनी रचनात्मकता के कारण प्रतिष्ठा के शीर्ष पर रहा है. किन्तु अभी शासन की रीति-नीति और नियोजन दोषों के कारण इस समुदाय का एक बड़ा भाग बेरोजगारी का शिकार बना दिया गया है. देश को अभी केवल ५०,००० इंजीनियरों के प्रति वर्ष उत्पादन की आवश्यकता है जबकि मूर्ख एवं दुष्ट शासकों ने ३,००,००० प्रति वर्ष इंजीनियरों के उत्पादन की व्यवस्था कर दी. इससे देश के बहुमूल्य संसाधनों की भी बर्बादी की जा रही है.
समुचित नियोजन से देश के संसाधनों का ही सदुपयोग नहीं होता, प्रत्येक नागरिक प्रतिस्पर्द्धा एवं शोषण विहीन होकर सुखपूर्वक जीवनयापन कर सकता है. किन्तु यह शासकों के हित में नहीं होता इसलिए वे कदापि ऐसा नहीं होने देते. धर्मों के माध्यम से शासन ने ही राजनैतिक शासन की नींव डाली है. इसलिए ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जैसा कि शोषण और प्रतिस्पर्द्धा का परस्पर सम्बन्ध है. ये सभी असंतुलन से ही जन्म लेते हैं और उसी से पनपते हैं.
असंतुलन उत्पन्न होने के दो कारण संभव हैं - दुष्टता और बुद्धिहीनता. नियोजन का अभाव अथवा दोष इन्ही दोनों कारणों से जन्म लेते हैं, और यही दो कारण मानवता के अभिशाप हैं. प्रतीत ऐसा होता है कि ये दो कारण एक दूसरे से निरपेक्ष हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि इन दोनों का घनिष्ठ है. प्रत्येक बुद्धि-संपन्न व्यक्ति चिंतनशील होता है और वह कदापि दुष्ट नहीं हो सकता. इसलिए दुष्टता केवल बुद्धिहीनता का परिचायक होती है और इसे इन दोनों में से किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है. महामानव इन दोनों का विरोध करता है.
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
फतेहपुर सीकरी की सत्यता
आगरा के निकट एक प्रसिद्द एतिहासिक स्थल फतेहपुर सीकरी है जिसे अकबर द्वारा निर्मित बताया जा रहा है जबकि अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य सिद्ध कराते हैं कि अकबर से इसके निर्माण का कोई सम्बन्ध नहीं है. यह महाभारत से पूर्व देवों द्वारा बसाया गया एक लाल पत्थरों से बना नगर था जिसमें देव परिवार रहते थे. इसका निर्माण काल अब से लगभग २,५०० वर्ष पूर्व इस आधार पर सिद्ध होता है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ईसापूर्व ३२३ में हुआ जिसके १५ माह बाद महाभारत युद्ध हुआ. इस युद्ध में सिकंदर उपस्थित था जिसे 'महाभारत' ग्रन्थ में शिखंडी कहा गया है तथा जो समलैंगिक मैथुन के लिए प्रसिद्द था. इसकी समलैंगिकता का चित्रण अभी कुछ वर्ष पहले हॉलीवुड से निर्मित फिल्म Alexander में भी किया गया है.
फतेहपुर सीकरी लगभग ४ वर्ग किलोमीटर क्षत्र में फैला एक नगर था जो ध्वस्त किया जाकर केवल कुछ भवनों तक सीमित कर दिया गया है. मुस्लिम शासकों द्वारा कब्रिस्तान में परिवर्तित किये जाने के बाद भी वर्तमान भवन भी वास्तुकला और सौन्दर्य के अद्भुत उदाहरण हैं. इसके मुख्य भवन के प्रांगण में सलीम चिश्ती का स्मारक बना है जो स्पष्ट रूप से बाद का निर्माण है और संभवतः यही अकबर द्वारा बनवाया गया था. अकबर के शासन काल में भी यह नगर इतना भव्य था कि उसने इसे अपनी राजधानी बनने का प्रयास किया. किन्तु उसके इंजीनिअर इस नगर के प्राचीन जल-प्रदाय संस्थान को सक्रिय न कर सके और वह इसे त्याग कर दिल्ली चला आया. यह विशाल जल संस्थान अब भी सुरक्षित है किन्तु इसे समझने और सक्रिय करने के कोई प्रयास वर्तमान सरकारी वेतनभोगी तथाकथित विशेषज्ञों ने नहीं किये हैं. यदि यह नगर तथा जल संस्थान अकबर द्वारा बनवाया गया होता तो उसे जलाभाव में यह नगर छोड़ने की विवशता नहीं होती. नगर के पश्चिमी किनारे पर एक जलधारा का सतत प्रवाह रहता है जिसके समीप ही जल-संस्थान स्थित है.
नगर के मुख्य भवन का द्वार बुलंद दरवाजा कहलाता है जिसके विशाल मुख पर ईसा मसीह का एक वाक्य उत्कीर्ण है जो अकबर कदापि नहीं कराता क्योंकि विश्व का सबसे लम्बा युद्ध ईसाई और इस्लाम धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो ६३० से आरम्भ होकर १९वीं शताब्दी तक चला है.
अकबर इस नगर में एक युद्ध में विजय प्राप्ति के बाद आया था, उस समय ऐसे भव्य नगर का निर्माण करना एक असंभव कल्पना है. नगर के एक भवन को आज भी 'सीताजी की रसोई' कहा जाता है जो इस नगर का देवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है. जल संस्थान के दक्षिण में ऊंची चारदीवारी से घिरा एक प्रांगण है जिसके मद्य एक जलताल है. इस प्रांगण में देवी दुर्गा के पालतू शेर रखे जाते थे जिनपर सवारी कर वह दुष्टों का संहार करने जाया करती थीं. दुष्टों में उनका इतना आतंक था कि वे रात्रि भर जागृत रहते और देवी को प्रसन्न रखने के लिए उनके गुणगान कराते रहते. इसी प्रचलन को आज देवी-जागरण कहा जता है जो पुनजब क्षेत्र से फैलता हुआ उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों में प्रचलित है. यही देवी दुर्गा मूलतः ईसा मसीह की बड़ी बाहें मरियम थीं जो विष्णु से विवाह होने के कारण 'विष्णुप्रिया' भी कहलाती थीं. विष्णु का एक नाम लक्ष्मण होने के कारण इन्ही देवी को 'लक्ष्मी' के रूप में भी जाना जाता है. वैश्य समाज की ये आराध्य देवी हैं क्योंकि वैश्य (गुप्त) वंश का आरम्भ इन्ही के पुत्र चन्द्र गुप्त मोर्य से हुआ. काली के रूप में भी ये शतरूप\ओं का संहार किया करती थीं.
फतेहपुर सीकरी के मुख्य भवन के उत्तर में एक विद्यालय भवन है जहाँ देवों के बच्चे शिक्षा पाते थे. यह नगर उस समय बनाया गया जब यवन समुदाय ने देवों को सताना आरम्भ कर दिया था और देव पुरुष संघर्षों में व्यस्त रहते थे. इसलिए परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए इस नगर को बसाया गया जिसकी चारदीवारी में केवल एक द्वार था जो पूर्व की ओर आज भी स्थित है. नगर के मुख्य भवनों में देव परिवार रहते थे तथा स्त्रियाँ ग्रंथों के लेखन का कार्य करती थीं. महाभारत की रचना प्रमुखतः इसी नगर में की गयी जिसमें देव स्त्रियों का प्रमुख योगदान है.
फतेहपुर सीकरी लगभग ४ वर्ग किलोमीटर क्षत्र में फैला एक नगर था जो ध्वस्त किया जाकर केवल कुछ भवनों तक सीमित कर दिया गया है. मुस्लिम शासकों द्वारा कब्रिस्तान में परिवर्तित किये जाने के बाद भी वर्तमान भवन भी वास्तुकला और सौन्दर्य के अद्भुत उदाहरण हैं. इसके मुख्य भवन के प्रांगण में सलीम चिश्ती का स्मारक बना है जो स्पष्ट रूप से बाद का निर्माण है और संभवतः यही अकबर द्वारा बनवाया गया था. अकबर के शासन काल में भी यह नगर इतना भव्य था कि उसने इसे अपनी राजधानी बनने का प्रयास किया. किन्तु उसके इंजीनिअर इस नगर के प्राचीन जल-प्रदाय संस्थान को सक्रिय न कर सके और वह इसे त्याग कर दिल्ली चला आया. यह विशाल जल संस्थान अब भी सुरक्षित है किन्तु इसे समझने और सक्रिय करने के कोई प्रयास वर्तमान सरकारी वेतनभोगी तथाकथित विशेषज्ञों ने नहीं किये हैं. यदि यह नगर तथा जल संस्थान अकबर द्वारा बनवाया गया होता तो उसे जलाभाव में यह नगर छोड़ने की विवशता नहीं होती. नगर के पश्चिमी किनारे पर एक जलधारा का सतत प्रवाह रहता है जिसके समीप ही जल-संस्थान स्थित है.
नगर के मुख्य भवन का द्वार बुलंद दरवाजा कहलाता है जिसके विशाल मुख पर ईसा मसीह का एक वाक्य उत्कीर्ण है जो अकबर कदापि नहीं कराता क्योंकि विश्व का सबसे लम्बा युद्ध ईसाई और इस्लाम धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो ६३० से आरम्भ होकर १९वीं शताब्दी तक चला है.
अकबर इस नगर में एक युद्ध में विजय प्राप्ति के बाद आया था, उस समय ऐसे भव्य नगर का निर्माण करना एक असंभव कल्पना है. नगर के एक भवन को आज भी 'सीताजी की रसोई' कहा जाता है जो इस नगर का देवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है. जल संस्थान के दक्षिण में ऊंची चारदीवारी से घिरा एक प्रांगण है जिसके मद्य एक जलताल है. इस प्रांगण में देवी दुर्गा के पालतू शेर रखे जाते थे जिनपर सवारी कर वह दुष्टों का संहार करने जाया करती थीं. दुष्टों में उनका इतना आतंक था कि वे रात्रि भर जागृत रहते और देवी को प्रसन्न रखने के लिए उनके गुणगान कराते रहते. इसी प्रचलन को आज देवी-जागरण कहा जता है जो पुनजब क्षेत्र से फैलता हुआ उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों में प्रचलित है. यही देवी दुर्गा मूलतः ईसा मसीह की बड़ी बाहें मरियम थीं जो विष्णु से विवाह होने के कारण 'विष्णुप्रिया' भी कहलाती थीं. विष्णु का एक नाम लक्ष्मण होने के कारण इन्ही देवी को 'लक्ष्मी' के रूप में भी जाना जाता है. वैश्य समाज की ये आराध्य देवी हैं क्योंकि वैश्य (गुप्त) वंश का आरम्भ इन्ही के पुत्र चन्द्र गुप्त मोर्य से हुआ. काली के रूप में भी ये शतरूप\ओं का संहार किया करती थीं.
फतेहपुर सीकरी के मुख्य भवन के उत्तर में एक विद्यालय भवन है जहाँ देवों के बच्चे शिक्षा पाते थे. यह नगर उस समय बनाया गया जब यवन समुदाय ने देवों को सताना आरम्भ कर दिया था और देव पुरुष संघर्षों में व्यस्त रहते थे. इसलिए परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए इस नगर को बसाया गया जिसकी चारदीवारी में केवल एक द्वार था जो पूर्व की ओर आज भी स्थित है. नगर के मुख्य भवनों में देव परिवार रहते थे तथा स्त्रियाँ ग्रंथों के लेखन का कार्य करती थीं. महाभारत की रचना प्रमुखतः इसी नगर में की गयी जिसमें देव स्त्रियों का प्रमुख योगदान है.
मूषक
शास्त्रों के भ्रमात्मक एवं प्रचलित अर्थों के अनुसार मूषक का अर्थ चूहा कहा जाता है जिसे एक सुप्रसिद्ध देव गणेशजी का वाहन कहा जाता है जो एक मूर्खतापूर्ण भाव है. शास्त्रों में यह शब्द ग्रीक भाषा के शब्द moschos का देवनागरी स्वरुप है जिसका हिंदी अर्थ कस्तूरी जैसी सुगंधि वाला किन्तु इससे भिन्न एक द्रव्य है. अतः गणेशजी के सन्दर्भ में मूषक शब्द का उपयोग गणेश जी द्वारा इस द्रव्य के बारे में अध्ययन को इंगित करता है. यह द्रव्य अनेक फलों जैसे भिन्डी, खरबूजा, आदि में भी पाया जाता है.
गुरुवार, 25 मार्च 2010
पार्थ
पार्थ शब्द का उपयोग महाभारत में प्रचुर हुआ है जो ग्रीक भाषा के शब्द 'पर्ठेनोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'मैथुन-विहीन' है अर्थात वह उत्पत्ति जिसमें मैथुन क्रिया का उपयोग न किया गया हो. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अर्जुन का एक नाम कहा गया है जो एक भ्रांत धारणा है.
इसी शब्द का दूसरा उपयोग तत्कालीन 'पार्थिया' राज्य के लिए भी किया गया है जो जो वर्तमान पूर्वी इरान भूभाग पर स्थित था.
इसी शब्द का दूसरा उपयोग तत्कालीन 'पार्थिया' राज्य के लिए भी किया गया है जो जो वर्तमान पूर्वी इरान भूभाग पर स्थित था.
ऋग
ऋग्वेद जैसे शब्दों में उपयुक्त ऋग शब्द लैटिन भाषा के शब्द regalis का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'शासक' अथवा 'शाही' है. तदनुसार ऋग्वेद में तत्कालीन शासन व्यवस्था का वर्णन है. विभिन्न अद्यात्मवादियों ने इस शब्द के अपनी-अपनी इच्छानुसार अनेक अर्थ लिए हैं और इस वेद के प्रचलित अनुवाद पूर्णतः भ्रमात्मक हैं.
शत
सदस्यता लें
संदेश (Atom)