मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.
इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.
महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -
'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.
इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.
यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
राम आर कृष्ण की समकालीनता
मैंने अपने इस ऐतिहासिक संलेख में अनेक स्तनों पर जोर देकर कहा है कि राम और कृष्ण समकालीन थे और इन दोनों के नेतृत्व में हुए संघर्ष को ही महाभारत कहा जाता है, यद्यपि शस्त्र युद्ध के पूर्व ही राम की हत्या किये जाने के कारण वे युद्ध में सम्मिलित नहीं थे. इसके प्रमाण स्वरुप 'राम' शब्द महाभारत ग्रन्थ के मूल वैदिक संस्कृत पाठ्य में अनेक स्थानों पर पाया जाता है किन्तु हिंदी अनुवादों में 'राम' के स्थान पर 'बलराम', 'परशुराम', आदि नाम देकर राम को महाभारत से पूर्णतः अनुपस्थित किया गया है, जो भारतीय जनमानस के विरुद्ध एक षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया है.
इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.
महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -
'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.
इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.
यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.
इस षड्यंत्र का विशेष कारण यह है कि कृष्ण चरित्र की तुलना में राम का चरित्र अतिश्रेष्ठ रहा है और दोनों की तलना करने पर कोई भी व्यक्ति कृष्ण को ईश्वर का स्वरुप स्वीकार नहीं कर सकता था. इसलिए कृष्ण भक्तों ने, जो बहुल संख्या में थे, राम को महाभारत से अनुपस्थित कर दिया और सभी अनुवाद इसी षड्यंत्र के अंतर्गत किये गए.
महाभारत ग्रन्थ में ही एक प्रसंग राम और कृष्ण के समकालीन होने की स्पष्ट पुष्टि करता है. यहाँ महाभारत ग्रन्थ के गीताप्रेस गोरखपुर द्वार प्रकाशित हिंदी-अनुवाद सहित संस्करण संवत २०६५, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण के प्रथम खंड, पृष्ठ ७५४ से आरम्भ, अध्याय ३१, 'सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय' प्रकरण में पृष्ठ ७५९ पर दिए गए श्लोक समूह ७३ में सहदेव के घटोत्कच के प्रति शब्दों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है -
'वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिए लंकापुरी में जाओ और वहां राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिल कर राजसूय यज्ञ के लिए भांति-भांति के बहुत से रत्न प्राप्त करो. महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट में मिली हुई सब वस्तुएं लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ. बेटा! यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय इस प्रकार कहना - 'कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है. आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें. आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा.' इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना.
इससे आगे के विवरण में विभीषण द्वारा घटोत्कच का स्वागत और उसे अनेक बहुमूल्य उपहार दिए जाने सम्मिलित हैं. इसी प्रसंग में यह भी उल्लिखित है कि सहदेव के पास द्रविड़ सेना थी. यद्यपि यह हिंदी अनुवाद दोषपूर्ण हो सकता है तथापि प्रसंग की उपस्थिति ही यह सिद्ध करती है कि महाभारत काल में विभीषण लंका के राजा थे जिनका राजतिलक राम द्वारा किया गया था. अतः राम और कृष्ण का समकालीन होना सिद्ध होता है.
यहाँ यह भी बाते दें कि इसी गीताप्रेस गोरखपुर के अनेक प्रकाशनों में राम को लाखों वर्ष पूर्व के त्रेता युग में, और कृष्ण को द्वापर युग में कहा गया है. यह सब सिद्ध करता है तथाकथित भारतीय विद्वान् केवल लकीर के फ़कीर हैं और वे तथ्यपरक शोध करने में असक्षम हैं.
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
हिन्दू मुस्लिम मानसिकताएं और सामंजस्य
भारत में प्रमुखतः हिन्दू और मुस्लिम दो ऐसे समुदाय निवास करते हैं जिनकी मानसिकताओं में भारी अंतराल हैं जिसके कारण इनके परस्पर सामंजस्य में बहुधा समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं. इनके अतिरिक्त ईसाई धर्मावलम्बी भी भारत में बसते हैं किन्तु ये मूलतः हिन्दुओं में से परिवर्तित होने के कारण हिन्दू मानसिकता ही रखते हैं और किसी दूसरे समुदाय से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करते. अतः इनकी उपस्थिति सामाजिक सौहार्द में बाधक नहीं है.
भारत राष्ट्र की संकल्पना मूलतः देवों की थी जिसमें धर्म के आधुनिक भाव के लिए कोई स्थान नहीं था. बाद में यहाँ यहूदी आये और उन्होंने यहाँ धर्म की स्थापना की जिसे अनेक कारणों से हिन्दू धर्म कहा गया जिसमें देव जाति भी सम्मिलित हो गयी या कर ली गयी. इसी अवधि में यहाँ यवन आये जो इस्लामिक परम्पराओं के स्रोत बने जिसे बाद में एक धर्म का रूप दे दिया गया.
देव मूलतः वैज्ञानिक विचारधारा के पोषक थे और मानव सभ्यता का विकास ही उनका उद्येश्य था. यहूदी मूलतः जनसामान्य को ईश्वर के नाम से आतंकित कर उन पर मनोवैज्ञानिक शासन के मार्ग से राजनैतिक शासन कराने हेतु नियोजित थे. इसी उद्येश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने धर्म की स्थापना की और समाज को अल्पसंख्यक शासक और बहुसंख्यक शासित वर्गों में विभाजित कर दिया. शासक शासितों के शोषण से उन पर अपनी राज्य सत्ता बनाये रखते हैं. शासकों का शोषण के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं होता. इस प्रकार जो बहुसंख्यक शोषित समाज बना उसे हिन्दू नाम दे दिया गया. देव भी हिन्दुओं में सम्मिलित हो गए अथवा कर लिए गए.
यवनों और देवों में कई मौलिक अंतर थे. जब देव बस्तियां बसाकर सुनिश्चित स्थानों पर रहने लगे थे तब भी यवन जंगली घुमक्कड़ जीवन के अभ्यस्त थे जिसमें उनके निहित स्वार्थ थे. वे देव बस्तियों में घुसकर लूट-पाट करते और देवों की अर्जित संपदा ले जंगलों में अदृश्य हो जाया करते थे. बाद में उन्होंने कुछ देव बस्तियों को अपने अधिकार में ले लिया और उन्हें अपनी बस्तियां घोषित कर दिया. देव बस्तियों में जब जनसँख्या बढ़ती तो कुछ देव निर्जन स्थलों पर नयी बस्तियां बसाते और वहीं रहने लगते. दूसरी ओर यवन बस्तियों में जनसँख्या बढ़ने से वे देव बस्तियों को बलात अपने अधिकार में ले लेते थे जिससे उन्हें देवों की संपदाओं के साथ-साथ बस्तियां भी बिना श्रम किये मिल जाती थीं. इसी क्रम में इस्लाम धर्म का उदय हुआ और इस्लाम लूट-पाट का पर्याय बना जिसे धार्मिक जेहाद का नाम दे दिया गया. भारत में मुस्लिमों का आगमन भी इसी प्रकार हुआ.
हिन्दू और मुस्लिम मानसिकताओं में ध्रुवीय अंतराल है इसलिए भारत में उनके सहजीवन परस्पर संघर्ष के रहे हैं. मुस्लिमों का मांसाहार और हिन्दुओं का शाकाहार भी उनके इस अंतराल को गहन करता रहा है. मांसाहार सामान्यतः शरीर को पुष्ट करता है, जिससे व्यक्ति में कामुकता और आक्रामकता विकसित होती हैं. शाकाहार शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से विकास करता है जिसके कारण मांसाहार की तुलना में शरीर को उतनी पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती. साथ ही बौद्धिक विकास से चिन्तनशीलता, और चिंतन से आपराधिक आक्रामकता का हनन होता है.
शाब्दिक दृष्टि से देखा जाये तो भी मुसलमान का अर्थ अंग्रेज़ी का muscleman है जिसका अर्थ शारीरिक रूप से बलशाली है जबकि हिन्दू शब्द hind अर्थात पिछलग्गू का द्योतक है. तदनुसार प्रत्येक हिन्दू धर्म-सम्प्रदायों, गुरुओं, साधू-संतों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, ईंट-पत्थरों आदि अनेक वस्तुओं का पिछलग्गू होता है और जब तक उसे कोई आश्रय नहीं मिल जाता वह स्वयं को असहाय अनुभव करता रहता है. वर्तमान काल में जो हिन्दू आक्रामकता दिखाई देती है वह केवल मुस्लिम आक्रामकता की प्रतिक्रिया है, मौलिक रूप से आक्रामकता नहीं है.
अब चूंकि दोनों समुदायों को एक साथ ही रहना है इसलिए सामाजिक सौहार्द के लिए शासन स्तर पर ही कुछ कारगर उपाय किये जाने चाहिए अन्यथा यह अंतराल सदैव गहराता ही रहेगा और वर्ग संघर्ष होते ही रहेंगे.
समान नागरिक संहिता
नागरिक संहिता राष्ट्रीय स्तर पर सभी वर्गों के लिए एक समान निर्धारित की जानी चाहिए जिससे सामाजिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक केवल भारतीय बने, वह हिन्दू, मुस्लिम अथवा ईसाई न रहे. इस संहिता में विवाह, पालन-पोषण, आजीविका, संपत्ति-अधिकार, आदि के विधि-विधान निर्धारित हों.
धर्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन निषिद्ध
धर्म-सम्प्रदाय ही समाज का वर्गीकरण करते हैं जबकि ये विशुद्ध रूप में व्यक्तिगत आस्था के विषय होते हैं. इसलिए प्रत्येक नागरिक को जहां व्यक्तिगत आस्था की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो वहीं इस आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिए जाने चाहिए. इस दृष्टि से देश में किसी मंदिर, मस्जिद अथवा गिरजाघर की कोई आवश्यकता नहीं होगी. वर्तमान के इस प्रकार के सभी स्थलों को कला और राष्ट्रीय संस्कृति के विकास केन्द्रों में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए.
अन्तर्जातीय विवाह
कुछ लोग हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदायों के मध्य वैवाहिक संबंधों को भी सामाजिक सौहार्द का एक माध्यम मान सकते हैं, किन्तु यह एक भ्रांत धारणा है. हिन्दू और मुस्लिम दो समान्तर किन्तु विरोधाभासी जीवन-शैलियाँ एवं विचारधाराएं हैं जिनमें वर्तमान परिस्थितियों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्वों में विरोधाभास उत्पन्न होने की संभावना है. उपरोक्त दो माध्यमों से दोनों के मध्य कुछ सामंजस्य स्थापना के बाद ही इस प्रकार के वैवाहिक सम्बन्ध निरापद हो सकते हैं.
भारत राष्ट्र की संकल्पना मूलतः देवों की थी जिसमें धर्म के आधुनिक भाव के लिए कोई स्थान नहीं था. बाद में यहाँ यहूदी आये और उन्होंने यहाँ धर्म की स्थापना की जिसे अनेक कारणों से हिन्दू धर्म कहा गया जिसमें देव जाति भी सम्मिलित हो गयी या कर ली गयी. इसी अवधि में यहाँ यवन आये जो इस्लामिक परम्पराओं के स्रोत बने जिसे बाद में एक धर्म का रूप दे दिया गया.
देव मूलतः वैज्ञानिक विचारधारा के पोषक थे और मानव सभ्यता का विकास ही उनका उद्येश्य था. यहूदी मूलतः जनसामान्य को ईश्वर के नाम से आतंकित कर उन पर मनोवैज्ञानिक शासन के मार्ग से राजनैतिक शासन कराने हेतु नियोजित थे. इसी उद्येश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने धर्म की स्थापना की और समाज को अल्पसंख्यक शासक और बहुसंख्यक शासित वर्गों में विभाजित कर दिया. शासक शासितों के शोषण से उन पर अपनी राज्य सत्ता बनाये रखते हैं. शासकों का शोषण के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं होता. इस प्रकार जो बहुसंख्यक शोषित समाज बना उसे हिन्दू नाम दे दिया गया. देव भी हिन्दुओं में सम्मिलित हो गए अथवा कर लिए गए.
यवनों और देवों में कई मौलिक अंतर थे. जब देव बस्तियां बसाकर सुनिश्चित स्थानों पर रहने लगे थे तब भी यवन जंगली घुमक्कड़ जीवन के अभ्यस्त थे जिसमें उनके निहित स्वार्थ थे. वे देव बस्तियों में घुसकर लूट-पाट करते और देवों की अर्जित संपदा ले जंगलों में अदृश्य हो जाया करते थे. बाद में उन्होंने कुछ देव बस्तियों को अपने अधिकार में ले लिया और उन्हें अपनी बस्तियां घोषित कर दिया. देव बस्तियों में जब जनसँख्या बढ़ती तो कुछ देव निर्जन स्थलों पर नयी बस्तियां बसाते और वहीं रहने लगते. दूसरी ओर यवन बस्तियों में जनसँख्या बढ़ने से वे देव बस्तियों को बलात अपने अधिकार में ले लेते थे जिससे उन्हें देवों की संपदाओं के साथ-साथ बस्तियां भी बिना श्रम किये मिल जाती थीं. इसी क्रम में इस्लाम धर्म का उदय हुआ और इस्लाम लूट-पाट का पर्याय बना जिसे धार्मिक जेहाद का नाम दे दिया गया. भारत में मुस्लिमों का आगमन भी इसी प्रकार हुआ.
हिन्दू और मुस्लिम मानसिकताओं में ध्रुवीय अंतराल है इसलिए भारत में उनके सहजीवन परस्पर संघर्ष के रहे हैं. मुस्लिमों का मांसाहार और हिन्दुओं का शाकाहार भी उनके इस अंतराल को गहन करता रहा है. मांसाहार सामान्यतः शरीर को पुष्ट करता है, जिससे व्यक्ति में कामुकता और आक्रामकता विकसित होती हैं. शाकाहार शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से विकास करता है जिसके कारण मांसाहार की तुलना में शरीर को उतनी पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती. साथ ही बौद्धिक विकास से चिन्तनशीलता, और चिंतन से आपराधिक आक्रामकता का हनन होता है.
शाब्दिक दृष्टि से देखा जाये तो भी मुसलमान का अर्थ अंग्रेज़ी का muscleman है जिसका अर्थ शारीरिक रूप से बलशाली है जबकि हिन्दू शब्द hind अर्थात पिछलग्गू का द्योतक है. तदनुसार प्रत्येक हिन्दू धर्म-सम्प्रदायों, गुरुओं, साधू-संतों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, ईंट-पत्थरों आदि अनेक वस्तुओं का पिछलग्गू होता है और जब तक उसे कोई आश्रय नहीं मिल जाता वह स्वयं को असहाय अनुभव करता रहता है. वर्तमान काल में जो हिन्दू आक्रामकता दिखाई देती है वह केवल मुस्लिम आक्रामकता की प्रतिक्रिया है, मौलिक रूप से आक्रामकता नहीं है.
अब चूंकि दोनों समुदायों को एक साथ ही रहना है इसलिए सामाजिक सौहार्द के लिए शासन स्तर पर ही कुछ कारगर उपाय किये जाने चाहिए अन्यथा यह अंतराल सदैव गहराता ही रहेगा और वर्ग संघर्ष होते ही रहेंगे.
समान नागरिक संहिता
नागरिक संहिता राष्ट्रीय स्तर पर सभी वर्गों के लिए एक समान निर्धारित की जानी चाहिए जिससे सामाजिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक केवल भारतीय बने, वह हिन्दू, मुस्लिम अथवा ईसाई न रहे. इस संहिता में विवाह, पालन-पोषण, आजीविका, संपत्ति-अधिकार, आदि के विधि-विधान निर्धारित हों.
धर्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन निषिद्ध
धर्म-सम्प्रदाय ही समाज का वर्गीकरण करते हैं जबकि ये विशुद्ध रूप में व्यक्तिगत आस्था के विषय होते हैं. इसलिए प्रत्येक नागरिक को जहां व्यक्तिगत आस्था की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो वहीं इस आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिए जाने चाहिए. इस दृष्टि से देश में किसी मंदिर, मस्जिद अथवा गिरजाघर की कोई आवश्यकता नहीं होगी. वर्तमान के इस प्रकार के सभी स्थलों को कला और राष्ट्रीय संस्कृति के विकास केन्द्रों में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए.
अन्तर्जातीय विवाह
कुछ लोग हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदायों के मध्य वैवाहिक संबंधों को भी सामाजिक सौहार्द का एक माध्यम मान सकते हैं, किन्तु यह एक भ्रांत धारणा है. हिन्दू और मुस्लिम दो समान्तर किन्तु विरोधाभासी जीवन-शैलियाँ एवं विचारधाराएं हैं जिनमें वर्तमान परिस्थितियों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्वों में विरोधाभास उत्पन्न होने की संभावना है. उपरोक्त दो माध्यमों से दोनों के मध्य कुछ सामंजस्य स्थापना के बाद ही इस प्रकार के वैवाहिक सम्बन्ध निरापद हो सकते हैं.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
संवेदनशीलता एवं सार्थकता
बहुधा ऐसा होता है कि जब मैं किसी गंभीर विषय पर लिखने बैठता हूँ तो हिंदी में उपयुक्त शब्दों का अभाव पाता हूँ. भावुक हिन्दीभाषी इसे मेरी भाषाई निर्बलता कहेंगे अथवा मुझसे रुष्ट होंगे. किन्तु सत्य यही है कि हिंदी में अभी भी शब्दों का नितांत अभाव है. अभी मैं जो लिखना चाहता हूँ उसे कोई हिंदी शीर्षक देना चाहता हूँ जिसका भाव अंग्रेज़ी के sensitivity and sensibility के समतुल्य हो किन्तु sensibility के लिए हिंदी समतुल्य शब्द नहीं पा रहा हूँ और इसके लिए 'सार्थकता' शब्द से काम चला रहा हूँ. आशा है प्रबुद्ध पाठक मुझे क्षमा करेंगे अथवा मुझे कोई उपयुक्त शब्द सुझायेंगे.
जनसाधारण की हिन्दुस्तानी भाषा में कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने दिल, दिमाग अथवा इनके सामंजस्य के अधीन कार्य करता है. विशुद्ध दिल के अधीन कार्य कराने को मैं यहाँ 'संवेदनशीलता' कहना चाहूँगा और विशुद्ध दिमाग के अधीन कार्य करने को 'सार्थकता'. तकनीकी स्तर पर इन दो विधाओं को चिंतन-शून्यता तथा चिन्तनशीलता कहा जा सकता है. इसी संलेख के एक अन्य आलेख में मैंने इन्हें मन और मस्तिष्क के अधीन कार्य कहा है, जहां मैंने प्रतिपादित किया है कि मनुष्य का मन चिंतन-शून्य होता है और केवल इच्छाओं के अधीन होता है, जब कि उसका मस्तिष्क चिंतन का केंद्र होता है और सार्थकता के आधार पर शरीर से कार्य कराता है.
संवेदनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता को अनदेखी कर सकता है और वह अत्यधिक भावुक होता है. छोटा सा दुःख उसे विचलित कर देता है और वह जीवन से मोह भी त्याग सकता है. इनकी भावुकता दो प्रकार की होती है - ऋणात्मक जिसमें इनें अत्यधिक क्रोध अथवा द्वेष उत्पन्न हो जाता है और ऐसे आवेश में व्यक्ति हत्या जैसे सामाजिक अपराध भी कर बैठते हैं. इनकी ये प्रतिक्रियाएं प्रायः तत्क्षण होती हैं जिससे इन्हें चिंतन का समय नहीं मिलता. तीव्र कामेच्छा भी इसी प्रकार के ऋणात्मक आवेश के कारण होती है, जिसके अधीन व्यक्ति बलात्कार जैसे अपराध कर बैठता है. संवेदन व्यक्ति की धनात्मक भावुकता में व्यक्ति प्रेम, मोह, आदि के वशीभूत हो जाता है और उसमें आत्मबलिदान की भावना अति प्रबल हो जाती है. ऐसे व्यक्ति विरक्त सन्यासी हो सकते हैं और ऐसे व्यक्ति ही आत्महत्या भी कर लेते हैं.
दूसरी ओर चिंतनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता पर इतना अधिक चिंतन करते हैं कि वे उसके मानवीय पक्ष की अनदेखी कर देते हैं. ऐसे व्यक्ति निर्मोही अथवा निष्ठुर कहे जा सकते हैं क्योंकि वे सभी दूसरों को एक समान मानने के कारण किसी को भी अपना नहीं मान पाते. इस कारण ये सभी से एक समान व्यवहार करते हैं. इतना निश्चित है कि ऐसे व्यक्ति कभी कोई अपराध नहीं कर सकते. रचनात्मकता इस प्रकार के व्यक्तियों की विशेषता होती है जिसके कारण ये व्यक्ति लेखक, चित्रकार, आदि हो सकते हैं. ऐसे व्यक्तियों से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों को प्रायः ऐसा प्रतीत होता है कि इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं शून्य अथवा नगण्य होती हैं, जो एक ब्रंती मात्र है. वस्तुतः इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं अति उच्च कोटि की होती हैं किन्तु इनमें अपने-पराये की भावना नहीं होती. आन, यदि अपने-पराये की भावना को ही मानवीय भावना माना जाये तो कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति मानवीय भावना शून्य होते हैं.
मस्तिष्क व्यक्ति के ज्ञान का केंद्र होता है जिसके आधार पर वह चिंतन करता है. किन्तु ज्ञान के सतत प्रसार के कारण न तो मानवीय ज्ञान कभी पूर्ण हो सकता है और न ही किसी एक व्यक्ति को पूर्ण मानवीय ज्ञान हो सकता है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सीमित ज्ञान ही होता है इसलिए उसका चिंतन भी सीमित ही रहता है. इसलिए केवल ज्ञान अथवा चिंतन के आदार पर भी कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता. तथापि प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान ही उसकी सर्वोपरि निधि होती है.
न तो मन पूरी तरह दूषित होता है जिससे उसके अधीन कार्य करना त्याज्य हो, और न ही मस्तिष्क पूरी तरह शुद्ध होता है जिसके अधीन कार्य करना श्रेष्ठ हो. अतः वांछनीय यही है कि व्यक्ति मन और मस्तिष्क के सामंजस्य से कार्य करे.
जनसाधारण की हिन्दुस्तानी भाषा में कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने दिल, दिमाग अथवा इनके सामंजस्य के अधीन कार्य करता है. विशुद्ध दिल के अधीन कार्य कराने को मैं यहाँ 'संवेदनशीलता' कहना चाहूँगा और विशुद्ध दिमाग के अधीन कार्य करने को 'सार्थकता'. तकनीकी स्तर पर इन दो विधाओं को चिंतन-शून्यता तथा चिन्तनशीलता कहा जा सकता है. इसी संलेख के एक अन्य आलेख में मैंने इन्हें मन और मस्तिष्क के अधीन कार्य कहा है, जहां मैंने प्रतिपादित किया है कि मनुष्य का मन चिंतन-शून्य होता है और केवल इच्छाओं के अधीन होता है, जब कि उसका मस्तिष्क चिंतन का केंद्र होता है और सार्थकता के आधार पर शरीर से कार्य कराता है.
संवेदनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता को अनदेखी कर सकता है और वह अत्यधिक भावुक होता है. छोटा सा दुःख उसे विचलित कर देता है और वह जीवन से मोह भी त्याग सकता है. इनकी भावुकता दो प्रकार की होती है - ऋणात्मक जिसमें इनें अत्यधिक क्रोध अथवा द्वेष उत्पन्न हो जाता है और ऐसे आवेश में व्यक्ति हत्या जैसे सामाजिक अपराध भी कर बैठते हैं. इनकी ये प्रतिक्रियाएं प्रायः तत्क्षण होती हैं जिससे इन्हें चिंतन का समय नहीं मिलता. तीव्र कामेच्छा भी इसी प्रकार के ऋणात्मक आवेश के कारण होती है, जिसके अधीन व्यक्ति बलात्कार जैसे अपराध कर बैठता है. संवेदन व्यक्ति की धनात्मक भावुकता में व्यक्ति प्रेम, मोह, आदि के वशीभूत हो जाता है और उसमें आत्मबलिदान की भावना अति प्रबल हो जाती है. ऐसे व्यक्ति विरक्त सन्यासी हो सकते हैं और ऐसे व्यक्ति ही आत्महत्या भी कर लेते हैं.
दूसरी ओर चिंतनशील व्यक्ति प्रसंग की सार्थकता पर इतना अधिक चिंतन करते हैं कि वे उसके मानवीय पक्ष की अनदेखी कर देते हैं. ऐसे व्यक्ति निर्मोही अथवा निष्ठुर कहे जा सकते हैं क्योंकि वे सभी दूसरों को एक समान मानने के कारण किसी को भी अपना नहीं मान पाते. इस कारण ये सभी से एक समान व्यवहार करते हैं. इतना निश्चित है कि ऐसे व्यक्ति कभी कोई अपराध नहीं कर सकते. रचनात्मकता इस प्रकार के व्यक्तियों की विशेषता होती है जिसके कारण ये व्यक्ति लेखक, चित्रकार, आदि हो सकते हैं. ऐसे व्यक्तियों से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों को प्रायः ऐसा प्रतीत होता है कि इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं शून्य अथवा नगण्य होती हैं, जो एक ब्रंती मात्र है. वस्तुतः इन व्यक्तियों में मानवीय भावनाएं अति उच्च कोटि की होती हैं किन्तु इनमें अपने-पराये की भावना नहीं होती. आन, यदि अपने-पराये की भावना को ही मानवीय भावना माना जाये तो कहा जा सकता है कि ये व्यक्ति मानवीय भावना शून्य होते हैं.
मस्तिष्क व्यक्ति के ज्ञान का केंद्र होता है जिसके आधार पर वह चिंतन करता है. किन्तु ज्ञान के सतत प्रसार के कारण न तो मानवीय ज्ञान कभी पूर्ण हो सकता है और न ही किसी एक व्यक्ति को पूर्ण मानवीय ज्ञान हो सकता है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सीमित ज्ञान ही होता है इसलिए उसका चिंतन भी सीमित ही रहता है. इसलिए केवल ज्ञान अथवा चिंतन के आदार पर भी कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता. तथापि प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान ही उसकी सर्वोपरि निधि होती है.
न तो मन पूरी तरह दूषित होता है जिससे उसके अधीन कार्य करना त्याज्य हो, और न ही मस्तिष्क पूरी तरह शुद्ध होता है जिसके अधीन कार्य करना श्रेष्ठ हो. अतः वांछनीय यही है कि व्यक्ति मन और मस्तिष्क के सामंजस्य से कार्य करे.
संवेदनाविहीन शासन-प्रशासन
जनतंत्र वस्तुतः जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन कहा जाता है, किन्तु भारत में यह ऐसा प्रतीत नहीं होता. वर्तमान भारतीय शासन यद्यपि जनतांत्रिक कहा जाता है किन्तु इसमें ऐसा कोई तत्व विद्यमान नहीं है जिसके आधार पर इसे जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन कहा जा सके.
यह शासन जनता द्वारा इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ की जनता जानती ही नहीं कि इस समय देश पर उसका शासन है. ऐसा मानने में जनता की दास मानसिकता आड़े आती है जो उसमें विगत २००० वर्ष की दासता में विकसित एवं परिपक्व हुई है. सर्वकार बनने के लिए जनता अपना मत तो देती है किन्तु इसे राष्ट्रीय भावना से परे निजी क्षुद्र स्वार्थों के लिए देती है जिससे चुने गए जन प्रतनिधि जनता के निजी स्वार्थों के प्रतिनिधि होते हैं, राष्ट्रीयता से उनका कोई सरोकार नहीं होता. चुनावों में मत देने के तीन विशेष आधार पाए जाते हैं - जातीय, धनप्राप्ति, तथा बलशाली का भय. ऐसे प्रतिनिधि सर्वकार बनाकर केवल अपने स्वार्थों के लिए कार्य करते हैं, जनता अथवा राष्ट्र उनकी दृष्टि में कहीं दूर तक भी स्थान नहीं रखते.
भारतीय शासन जनता के लिए इसलिए नहीं होता क्योंकि इसके लिए उसका चुनाव ही नहीं किया जाता. उसे चुना जाता है - जाति के आधार पर, धन प्राप्ति के लिए तथा बलशालियों के भय के कारण. ऐसे शासन में जनता पिसती रहती है और शासक वर्ग अपने वैभव-पूर्ण जीवन में जनता की समस्याओं के प्रति पूर्णतः उदासीन बना रहता है.
यह शासन जनता का इसलिए नहीं है क्योंकि जनता अपने प्रतिनिधि नहीं चुनती अपितु राजनेता अपनी जाति, धन अथवा बल के आधार पर जनता के मत बटोर कर चुने जाते हैं और वे सदैव सत्ता में बने रहने के उद्येश्य से अपने जातीय आधार, अपने धनाधार अथवा अपने बलाधार को ही पुष्ट करते रहते हैं.
इन सब कारणों से भारतीय शासन पूरी तरह जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनाविहीन बना रहता है. प्रशासन चूंकि शासकों द्वारा निर्देशित किया जाता है इसलिए वह भी राज्नाताओं के निजी हितो के पोषण हेतु ही कार्य करता रहता है और जन समस्याओं के प्रति पूरी तरह उदासीन बना रहता है. इस बारे में मेरे गाँव का एक उदाहरण प्रस्तुत है.
गाँव के मध्य एक राजकीय हैण्ड-पम्प लगभग ३० निर्धन परिवारों के लिए पेय जल का एकमात्र साधन ता जो विगत २ माह से खराब पडा हुआ है. इन दो महीनों से गर्मी अपने भीषणतम रूप में पड रही है और लोग बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं. इस हैण्ड-पम्प को सुचारू करने के लिए गाँव के प्रधान, खंड विकास अधिकारी ऊंचागांव, उप जिलाधिकारी स्याना, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर, से लगातार शिकायतें की जाती रही हैं किन्तु किसी के कान पर कोई जूँ नहीं रेंगी है. हाँ, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर से एक उत्तर अवश्य मिला है जिसमें लिखा है कि उक्त कार्य के लिए अभी धन उपलब्ध नहीं है.
अंततः इस बारे में मैंने एक पत्र उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री महोदया को बी लिखा जिन्होंने भी उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया प्रतीत होता है. यहाँ यह बताना प्रासंगिक है प्रदेश की वर्तमान सर्वकार दलितों की सर्वकार कही जाती है जो दलित नेताओं की प्रतिमाओं पर जनता का २,३०० करोड़ रूपया खर्च करने के लिए उद्यत है. इसी सर्वकार ने अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने विधायकों के वेतन भत्ते २५,००० रुपये से बढ़ाकर ५०,००० रुपये प्रति माह किये हैं. इस सबसे यही सिद्ध होता है कि प्रदेश सर्वकार के पास राजनेताओं के महिमा-मंडन के लिए धन का कोई अभाव नहीं है. धन का अभाव है तो बस निर्धन लोगों को पेय जल उपलब्ध कराने लिए ही है.
यह शासन जनता द्वारा इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ की जनता जानती ही नहीं कि इस समय देश पर उसका शासन है. ऐसा मानने में जनता की दास मानसिकता आड़े आती है जो उसमें विगत २००० वर्ष की दासता में विकसित एवं परिपक्व हुई है. सर्वकार बनने के लिए जनता अपना मत तो देती है किन्तु इसे राष्ट्रीय भावना से परे निजी क्षुद्र स्वार्थों के लिए देती है जिससे चुने गए जन प्रतनिधि जनता के निजी स्वार्थों के प्रतिनिधि होते हैं, राष्ट्रीयता से उनका कोई सरोकार नहीं होता. चुनावों में मत देने के तीन विशेष आधार पाए जाते हैं - जातीय, धनप्राप्ति, तथा बलशाली का भय. ऐसे प्रतिनिधि सर्वकार बनाकर केवल अपने स्वार्थों के लिए कार्य करते हैं, जनता अथवा राष्ट्र उनकी दृष्टि में कहीं दूर तक भी स्थान नहीं रखते.
भारतीय शासन जनता के लिए इसलिए नहीं होता क्योंकि इसके लिए उसका चुनाव ही नहीं किया जाता. उसे चुना जाता है - जाति के आधार पर, धन प्राप्ति के लिए तथा बलशालियों के भय के कारण. ऐसे शासन में जनता पिसती रहती है और शासक वर्ग अपने वैभव-पूर्ण जीवन में जनता की समस्याओं के प्रति पूर्णतः उदासीन बना रहता है.
यह शासन जनता का इसलिए नहीं है क्योंकि जनता अपने प्रतिनिधि नहीं चुनती अपितु राजनेता अपनी जाति, धन अथवा बल के आधार पर जनता के मत बटोर कर चुने जाते हैं और वे सदैव सत्ता में बने रहने के उद्येश्य से अपने जातीय आधार, अपने धनाधार अथवा अपने बलाधार को ही पुष्ट करते रहते हैं.
इन सब कारणों से भारतीय शासन पूरी तरह जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनाविहीन बना रहता है. प्रशासन चूंकि शासकों द्वारा निर्देशित किया जाता है इसलिए वह भी राज्नाताओं के निजी हितो के पोषण हेतु ही कार्य करता रहता है और जन समस्याओं के प्रति पूरी तरह उदासीन बना रहता है. इस बारे में मेरे गाँव का एक उदाहरण प्रस्तुत है.
गाँव के मध्य एक राजकीय हैण्ड-पम्प लगभग ३० निर्धन परिवारों के लिए पेय जल का एकमात्र साधन ता जो विगत २ माह से खराब पडा हुआ है. इन दो महीनों से गर्मी अपने भीषणतम रूप में पड रही है और लोग बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं. इस हैण्ड-पम्प को सुचारू करने के लिए गाँव के प्रधान, खंड विकास अधिकारी ऊंचागांव, उप जिलाधिकारी स्याना, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर, से लगातार शिकायतें की जाती रही हैं किन्तु किसी के कान पर कोई जूँ नहीं रेंगी है. हाँ, अधिशाषी अभियंता जल निगम बुलंदशहर से एक उत्तर अवश्य मिला है जिसमें लिखा है कि उक्त कार्य के लिए अभी धन उपलब्ध नहीं है.
अंततः इस बारे में मैंने एक पत्र उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री महोदया को बी लिखा जिन्होंने भी उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया प्रतीत होता है. यहाँ यह बताना प्रासंगिक है प्रदेश की वर्तमान सर्वकार दलितों की सर्वकार कही जाती है जो दलित नेताओं की प्रतिमाओं पर जनता का २,३०० करोड़ रूपया खर्च करने के लिए उद्यत है. इसी सर्वकार ने अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने विधायकों के वेतन भत्ते २५,००० रुपये से बढ़ाकर ५०,००० रुपये प्रति माह किये हैं. इस सबसे यही सिद्ध होता है कि प्रदेश सर्वकार के पास राजनेताओं के महिमा-मंडन के लिए धन का कोई अभाव नहीं है. धन का अभाव है तो बस निर्धन लोगों को पेय जल उपलब्ध कराने लिए ही है.
रविवार, 25 अप्रैल 2010
ब्रुवन, ब्रीवि
ब्रुवन
शास्त्रों में 'ब्रुवन' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द bryon से बनाया गया है जिसका अर्थ 'काई' है जो ठहरे हुए पानी में प्रायः उग आती है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'बोलना' लिया गया है जो शास्त्रीय अनुवाद में विकृति उत्पन्न करता है.
ब्रीवि
आधुनिक संस्कृत में ब्रीवि शब्द भी 'बोलने' के भाव में लिया जाता है, किन्तु इसका वास्तविक अर्थ 'छोटा' या संक्षेप' है क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द brevis से उद्भूत है. अंग्रेज़ी भाषा का शब्द brief भी लैटिन के इसी शब्द से बनाया गया है.
शास्त्रों में 'ब्रुवन' शब्द ग्रीक भाषा के शब्द bryon से बनाया गया है जिसका अर्थ 'काई' है जो ठहरे हुए पानी में प्रायः उग आती है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'बोलना' लिया गया है जो शास्त्रीय अनुवाद में विकृति उत्पन्न करता है.
ब्रीवि
आधुनिक संस्कृत में ब्रीवि शब्द भी 'बोलने' के भाव में लिया जाता है, किन्तु इसका वास्तविक अर्थ 'छोटा' या संक्षेप' है क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द brevis से उद्भूत है. अंग्रेज़ी भाषा का शब्द brief भी लैटिन के इसी शब्द से बनाया गया है.
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