रविवार, 25 अप्रैल 2010
पर्व
शास्त्रों में 'पर्व' सब्द के दो भाव संभव हैं, क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों पर्विस तथा पर्वुस से उद्भूत किया गया है जिनके अर्थ क्रमशः 'आँगन' तथा 'छोटा' हैं. आधुनिक संस्कृत में 'पर्व' का अर्थ 'त्यौहार' है जो शब्द के मौलिक आशयों से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, इसलिए इस आधार पर किये गए शास्त्रीय अनुवाद विकृत होते हैं.
सत्य, सत्व
शास्त्रों में सत्य और सत्व शब्द लैटिन भाषा के satyrus से बनाए गए हैं जिसका अर्थ 'विलासी' है. आधुनिक संस्कृत में इनके अर्थ सच्चाई के भाव में लिए गए है जो 'विलासिता' से विपरीत भाव हैं. इस प्रकार शास्त्रों के आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवाद मूल आशय के विपरीत भाव व्यक्त करते हैं जिससे शात्रीय भावों में विकृति उत्पन्न होती है.
रविवार, 18 अप्रैल 2010
आर्यों का भारत आगमन
सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.
उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है. स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.
दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.
विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.
उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है. स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.
दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.
विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.
आर्यों का भारत आगमन
सिकंदर के भारत पर आक्रमण और उसके कृष्ण के सानिध्य में दक्षिण भारत में बस कर एक बड़े युद्ध की तैयारियों में जुट जाने से देवों में चिंता व्याप्त हो गयी. कृष्ण और पांडवों ने उन के योद्धाओं की एक-एक करके पहले ही हत्या कर दी थी इसलिए उनकी क्षीण हो चुकी थी, जिसके कारण वे स्वयं युद्ध करने में असमर्थ थे. उनमें से जो प्रमुख व्यक्ति जीवित थे उनमें विष्णु, जीसस ख्रीस्त, विश्वामित्र, भरत और कर्ण आदि सम्मिलित थे.
उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है. स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.
दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.
विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.
उधर सिकंदर ने पर्शिया के शासक डराय्स-द्वितीय को पराजित कर दिया था और वह महान योद्धा जंगलों में भटक रहा था. पर्शिया का साम्राज्य ही आर्य साम्राज्य था और उस समय उनका प्रमुख डराय्स ही था. यह जाति देवों की तरह ही एक सभ्य जाति थी और यवनों से आतंकित थी. विष्णु ने डराय्स-द्वितीय से संपर्क स्थापित किया और उसे भारत में सेना संगठित कर यवनों का मुकाबला करने को राजी कर लिया. डराय्स-द्वितीय का भारतीय नाम दुर्योधन रखा गया जो कौरव प्रमुख के रूप में विख्यात है. इस प्रकार आर्य जाति का भारत में आगमन हुआ. यह जाति मूल रूप से यूरोप में क्यूरा नदी पर बसती थी जिसके कारण इसे कुरु वंश भी कहा गया है. वहीं से आकर इस जाति ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया और बेबीलोन को अपनी राजधानी बनाकर विश्व के सुन्दरतम नगर के रूप में विकसित किया था. पर्शिया का एक अन्य नाम आर्यणाम था जिससे आधुनिक शब्द ईरान बना है. स्वयं के साम्राज्य की स्थापना हेतु आर्य जाति ने अनेक युद्ध किये थे जिसके कारण इन्हें युद्ध का अच्छा अनुभव था.
दुर्योधन के बारे में एक और ऐतिहासिक तथ्य प्रासंगिक है. उसके एक पूर्वज सायरस ने हिन्दुकुश पार करके सिन्धु घाटी के नगरों के समूह को गांधार नाम दिया था. इस प्रकार गान्धार, दुर्योधन और शकुनी का गुप्त सम्बन्ध स्थापित होता है.
विष्णु स्वयं यवन आतंक के निशाने पर थे और वे अकेले खुले रूप में नहीं रह सकते थे. इसलिए उन्होंने शकुनी का छद्म रूप धारण किया और दुर्योधन के मामा बनकर कौरव पक्ष के नीतिकार के रूप में कार्य करते रहे. इस विषयक सन्दर्भ भावप्रकाश नामक शास्त्र में गुप्त रूप में उपलब्ध है. क्योंकि महाभारत में यवन समूह की विजय के बाद कोई भी तथ्य स्पष्ट रूप में नहीं लिखा जा सकता था, जबकि भाव प्रकाश नामक ग्रन्थ स्वस्तिका, लक्ष्मी और सरस्वती देवियों ने महाभारत युद्ध के बाद उडीसा के तितलागढ़ नामक स्थान पर एक गुफा में गुप्त वास में लिखा था. तित्लागढ़ विष्णु की माँ देवी सुमित्रा का मायका था जिसके निकट के विशाल घोडार नामक ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता अब दम तोड़ रही है तथापि आसपास की पहाड़ियों पर अनेक भित्तिचित्र आज भी विद्यमान हैं.
जमींदारी प्रथा की वापिसी और प्रतिकार उपाय
विश्व भर में औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक विकास कार्यों के होते हुए भी भारत की अर्थ-व्यवस्था की मेरु आज भी कृषि ही है, साथ ही इसी से यहाँ की लगातार बढ़ती जनसँख्या जीवित बनी हुई है. कृषि भूमि के स्वामियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - कृषक और कृषि-स्वामी. कृषि व्यवसाय में उपज के आधार पर हानिकर स्थिति के कारण कृषकों की रूचि इसमें कम होती जा रही है, केवल विवशता शेष रह गयी है. दूसरी ओर भूमि के तीव्र गति से बढ़ते मूल्यों के कारण अन्य व्यवसायियों की रुच कृषि भूमि के क्रय में बढ़ रही है जिसके कारण भूमि कृषकों के हाथों से खिसकती जा रही है.
कृषकों के पास कृषि भूमि के अभाव का दूसरा बड़ा कारण यह है भूमि स्वामित्व में कृषक के सभी पुत्रों का समान अधिकार होता है चाहे वे कृषि कार्य करते हों अथवा किसी अन्य व्यवसाय अथवा आजीविका साधन में लगे हुए हों. जो पुत्र कृषि कार्य न कर रहे होते हैं, इस प्रकार उन्हें आय के दो साधन उपलब्ध हो जाते हैं - उनका अपना व्यवसाय तथा कृषि भूमि से आय. इस कारण से कृषक सापेक्ष रूप में निरंतर निर्धन होते जा रहे हैं जबकि भूमि के अन्य स्वामी धनवान बनते जा रहे हैं. ये लोग अपनी सम्पन्नता का उपयोग प्रायः कृषि भूमि क्रय के लिए करते हैं. निर्धन कृषक भी इसका विरोध करने में असक्षम होते हैं और वे अपनी भूमि इन कृषि न करने वाले भू स्वामियों को अपनी भूमि विक्रय करते रहते हैं. इससे भी कृषि भूमि के स्वामित्व उन लोगों के हाथों में जा रहा है जो स्वयं कृषि नहीं करते और उसे कृषकों के माध्यम से मजदूरी पर करते हैं.
इस नयी पनपती व्यवस्था से शीघ्र ही कृषि क्षेत्र में जमींदारी व्यवस्था पुनः स्थापित हो जायेगी जो स्वतन्त्रता के बाद सन १९५० में उन्मूलित की गयी थी. जमींदारी उन्मूलन का मुख्य उद्येश्य कृषकों को भू स्वामित्व प्रदान करना था किन्तु स्वतंत्र देश की शासन व्यवस्था ही इसके प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर रही है. देश की स्वतन्त्रता और व्यवस्था की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि कृषि व्यवस्था अपने वांछित रूप में ६० वर्षों में ही दम तोड़ती प्रतीत हो रही है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में कृषि बूमि के स्वामित्व में उत्पन्न इस विकृति के दोनों कारणों का प्रतिकार करने के प्रावधान नहीं हैं जो इसके खोखलेपन को उजागर करता है. जमींदारी व्यवस्था की वापिसी से देश की सामाजिक व्यवस्था चरमरा जायेगी और कृषि क्षेत्र के दुरावस्था से देश की अर्थ व्यवस्था भी दुष्प्रभावित होगी. समाज में निर्धनों और धनवानों के मध्य खाई गहरी होती जायेगी जिससे सामाजिक अपराधों में वृद्धि होगी. रक्त रंजित क्रांति भी नकारी नहीं जा सकती. इसलिए भूमि प्रबंधन में उक्त विकृति के प्रति तुरंत कारगर उपाय करने की आवश्यकता है.
भूमि राष्ट्र की जल, वायु खनिज, आदि की तरह ही प्राकृत संपदा होती है, इस पर व्यक्तिगत स्वामित्व इसकी मूल प्राकृतिक व्यवस्था के प्रतिकूल है. इसलिए बौद्दिक जनतंत्र में समस्त भूमि को राष्ट्र के स्वामित्व में रखे जाने का प्रावधान है जो प्रत्येक उपयोक्ता को उसकी वास्तविक आवश्यकता के अनुसार समुचित कराधान पर उपलब्ध काराई जायेगी.
कृषकों के पास कृषि भूमि के अभाव का दूसरा बड़ा कारण यह है भूमि स्वामित्व में कृषक के सभी पुत्रों का समान अधिकार होता है चाहे वे कृषि कार्य करते हों अथवा किसी अन्य व्यवसाय अथवा आजीविका साधन में लगे हुए हों. जो पुत्र कृषि कार्य न कर रहे होते हैं, इस प्रकार उन्हें आय के दो साधन उपलब्ध हो जाते हैं - उनका अपना व्यवसाय तथा कृषि भूमि से आय. इस कारण से कृषक सापेक्ष रूप में निरंतर निर्धन होते जा रहे हैं जबकि भूमि के अन्य स्वामी धनवान बनते जा रहे हैं. ये लोग अपनी सम्पन्नता का उपयोग प्रायः कृषि भूमि क्रय के लिए करते हैं. निर्धन कृषक भी इसका विरोध करने में असक्षम होते हैं और वे अपनी भूमि इन कृषि न करने वाले भू स्वामियों को अपनी भूमि विक्रय करते रहते हैं. इससे भी कृषि भूमि के स्वामित्व उन लोगों के हाथों में जा रहा है जो स्वयं कृषि नहीं करते और उसे कृषकों के माध्यम से मजदूरी पर करते हैं.
इस नयी पनपती व्यवस्था से शीघ्र ही कृषि क्षेत्र में जमींदारी व्यवस्था पुनः स्थापित हो जायेगी जो स्वतन्त्रता के बाद सन १९५० में उन्मूलित की गयी थी. जमींदारी उन्मूलन का मुख्य उद्येश्य कृषकों को भू स्वामित्व प्रदान करना था किन्तु स्वतंत्र देश की शासन व्यवस्था ही इसके प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर रही है. देश की स्वतन्त्रता और व्यवस्था की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि कृषि व्यवस्था अपने वांछित रूप में ६० वर्षों में ही दम तोड़ती प्रतीत हो रही है.
स्वतंत्र भारत के संविधान में कृषि बूमि के स्वामित्व में उत्पन्न इस विकृति के दोनों कारणों का प्रतिकार करने के प्रावधान नहीं हैं जो इसके खोखलेपन को उजागर करता है. जमींदारी व्यवस्था की वापिसी से देश की सामाजिक व्यवस्था चरमरा जायेगी और कृषि क्षेत्र के दुरावस्था से देश की अर्थ व्यवस्था भी दुष्प्रभावित होगी. समाज में निर्धनों और धनवानों के मध्य खाई गहरी होती जायेगी जिससे सामाजिक अपराधों में वृद्धि होगी. रक्त रंजित क्रांति भी नकारी नहीं जा सकती. इसलिए भूमि प्रबंधन में उक्त विकृति के प्रति तुरंत कारगर उपाय करने की आवश्यकता है.
भूमि राष्ट्र की जल, वायु खनिज, आदि की तरह ही प्राकृत संपदा होती है, इस पर व्यक्तिगत स्वामित्व इसकी मूल प्राकृतिक व्यवस्था के प्रतिकूल है. इसलिए बौद्दिक जनतंत्र में समस्त भूमि को राष्ट्र के स्वामित्व में रखे जाने का प्रावधान है जो प्रत्येक उपयोक्ता को उसकी वास्तविक आवश्यकता के अनुसार समुचित कराधान पर उपलब्ध काराई जायेगी.
शनिवार, 17 अप्रैल 2010
शासन व्यवस्था के तीन उद्भव और उनकी समीक्षा
ईसा से लगभग ४०० वर्ष पूर्व से विश्व के सभ्य समाजों ने स्वयं को व्यवस्थित करना आरम्भ कर दिया था. तब से उत्तरोत्तर काल में प्रमुखतः ३ प्रकार शासन व्यवस्थाएं उद्भूत हुईं.
परम ज्ञान का सिद्धांत
विश्व की प्रथम जनतांत्रिक व्यवस्था एथेंस नगर राज्य में लगभग ४०० ईसापूर्व में लागू की गयी थी जिसके प्रतिपादक देमोक्रितु थे. यह एक शासन न होकर व्यवस्था थी जिसमें नगर के सभी लोग अथेना नामक भवन में एकत्र होकर सार्वजनिक हित के निर्णय लिया करते थे. तब ये निर्णय नगर राज्य के प्रशासकों को क्रियान्वयन हेतु सौंप दिए जाते थे..
इस व्यवस्था के प्रतिपादक पूर्णतः उपयोगितावादी थे जो सामाजिक व्यवस्था में उग्र भावावेश के प्रबल विरोधी थे और ब्रह्माण्ड और व्यक्तिगत जीवन के स्वतः उद्भवन में आस्था रखते थे. सामाजिक व्यवस्था में वे सभी की भागीदारी के पक्षधर थे, यहाँ तक कि उस समय प्रचलित दासप्रथा के अंतर्गत दासों को भी वे भागीदार बनाते थे. इन्होने परम ज्ञान का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार मानवीय बुद्धि ही सर्वोपरि है जिसके सापेक्ष ही अन्य संकल्पनाओं का आकलन किया जाना चाहिए. अतः प्रत्येक काल में तात्कालिक मानवीय बुद्धि ही उस काल के परम सत्य को जान सकती है.
इस सिद्धांत के अनुसार ही सामाजिक व्यवस्था के निर्णय सामूहिक विवेक के माध्यम से लिए जाते थे जिसे परम बुद्धिमत्तापूर्ण मना जाता था. यह समाज में सौहार्द और सामंजस्य विकास हेतु व्यवस्था थी और केवल ऐसे समाज पर लागू की जा सकती थी जिसमें समाज वर्गीकृत न हो और विशेषतः प्रदूषित संस्कारों वाले व्यक्ति समाज के अंग न हों. समाज में विरोधाभास न होने के कारण ऐसी व्यवस्था में किसी चुनाव की आवश्यकता नहीं होती थी. अतः परस्पर विरोधाभासों वाले समाजों में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती.
प्लेटो का सापेक्षतावाद सिद्धांत
एथेंस नगर राज्य के प्रबल विरोधी स्पार्टा राज्य द्वारा दैमोक्रितु से लगभग ३० वर्ष छोटे प्लेटो को एथेंस में वहां की व्यवस्था को भंग करने हेत भेजा गया था जिसने वहां जाकर अकादेमी नामक स्कूल की स्थापना की और वहां के शीर्ष विद्वान् सुकरात के शिष्य होने का आडम्बर किया. वह दैमोक्रितु के परम ज्ञान के सिद्धांत और जनतंत्र का घोर विरोधी था जिसके लिए उसने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में सापेक्षतावाद सिद्धांत और एक-क्षत्र शासन तंत्र का प्रतिपादन किया
इस सिद्धांत के अनुसार बौद्धिक ज्ञान परम ज्ञान न होकर केवल सापेक्ष ज्ञान होता है जो ज्ञान और विचारों की की प्रतीति मात्र होता है. वास्तविक ज्ञान परिस्थिति एवं काल-निरपेक्ष होता है जो मानवीय बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता. यह केवल चुनिन्दा व्यक्तियों को प्राप्त होता है जो शासन करने हेतु ही जन्म लेते हैं.
लोके का सापेक्षता सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार सभी मनुष्य अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करते हैं अतः कोई भी परम ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. इस कारण से सभी मानव आदर्श मानव के सापेक्ष आधे-अधूरे होते हैं. विश्व के सभी समुदाय ऐसे आधे-अधूरे व्यक्तियों के समुच्याय होते हैं. इस कारण से किसी भी मनुष्य को दूसरों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता. इसलिए सभी मनुष्यों को एक समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए और प्रत्येक को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए. आधुनिक जनतंत्र इसी सिद्धांत पर आधारित हैं.
समीक्षा
प्लेटो का सापेक्षता सिद्धांत और उसके अंतर्गत एक-क्षत्र शासन तंत्र एक कृत्रिम एवं कपट-पूर्ण संकल्पना थी जो जन-सामान्य को पशुतुल्य और चुनिन्दा व्यक्तियों को महामानव घोषित करती थी. भारत में प्रचलित अवतारवाद, भाग्यवाद, आदि संकल्पनाएँ भी इसी प्लेटो और उसकी अकादेमी की देनें थीं. इन्हें किसी भी दृष्टि से मानवीय नहीं कहा जा सकता.
लोके के सापेक्षता सिद्धांत में अपूर्णता को समानता का आधार माना गया है, जो एक ऋणात्मक दर्शन है. इस आधार पर स्थापित शासन व्यवस्था के अंतर्गत समाज में अप्पोर्नता का ऋणात्मक बोध जागृत होना स्वाभाविक है. इस कारण से बेन्त्रेन्द रसेल जैसे आधुनिक दार्शनिकों ने आधुनिक जनतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में धनात्मक बिंदु खोजने के निष्फल प्रयास किये. इस कारण से वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्थाएं सफल नहीं हो पा रही हैं.
ज्ञान-विज्ञानं सतत संवर्धित होता रहर है इसलिए किसी भी समय मानवीय ज्ञान परम स्थिति में नहीं कहा जा सकता, तथापि मानवीय गयम तत्कालीन अवस्था में पूर्ण हो सकता है. इसके अतिरिक्त मानवता के पास ज्ञान प्राप्त करने का बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ साधन है, जिसके आधार पर ही दैमोक्रितु ने मानवीय ज्ञान को ही परम ज्ञान कहा था यद्यपि उसे तात्कालिक परम ज्ञान कहना चाहिए था. इसलिए, दैमोक्रितु का परम क्यां का सिद्धांत ही मानव जाति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सिद्धांत है.
इस सिद्धांत में ज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है. जिस समय और जिस स्थान पर यह सिद्धांत प्रतिपादित और लागू किया गया था, तब अथेन्स की समस्त जनसँख्या बौद्धिक थी और उनमें बौद्धिक अंतराल नगण्य थे. इसलिए जनतांत्रिक व्यवस्था सफल सिद्ध्हो रही थी. आज, विशेषकर विकास-शील और अविकसित विश्व में लोगों में बौद्धिक समानता नहीं है इसलिए मानव-मानव में बौद्धिक अंतराल के कारण सभी को अपेक्षित ज्ञान होना संभव नहीं हो पा रहा है. इसलिए दैमोक्रितु के सिद्धांत के अनुपालन के लिए राजनैतिक सत्ता बौद्धिक वर्ग के हाथों में होनी चाहिए. इसी में समस्त मानव जाति का कल्याण निहित है. बौद्धिक जनतंत्र की परिकल्पना इसी उद्येश्य को समर्पित है.
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परम ज्ञान का सिद्धांत
विश्व की प्रथम जनतांत्रिक व्यवस्था एथेंस नगर राज्य में लगभग ४०० ईसापूर्व में लागू की गयी थी जिसके प्रतिपादक देमोक्रितु थे. यह एक शासन न होकर व्यवस्था थी जिसमें नगर के सभी लोग अथेना नामक भवन में एकत्र होकर सार्वजनिक हित के निर्णय लिया करते थे. तब ये निर्णय नगर राज्य के प्रशासकों को क्रियान्वयन हेतु सौंप दिए जाते थे..
इस व्यवस्था के प्रतिपादक पूर्णतः उपयोगितावादी थे जो सामाजिक व्यवस्था में उग्र भावावेश के प्रबल विरोधी थे और ब्रह्माण्ड और व्यक्तिगत जीवन के स्वतः उद्भवन में आस्था रखते थे. सामाजिक व्यवस्था में वे सभी की भागीदारी के पक्षधर थे, यहाँ तक कि उस समय प्रचलित दासप्रथा के अंतर्गत दासों को भी वे भागीदार बनाते थे. इन्होने परम ज्ञान का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार मानवीय बुद्धि ही सर्वोपरि है जिसके सापेक्ष ही अन्य संकल्पनाओं का आकलन किया जाना चाहिए. अतः प्रत्येक काल में तात्कालिक मानवीय बुद्धि ही उस काल के परम सत्य को जान सकती है.
इस सिद्धांत के अनुसार ही सामाजिक व्यवस्था के निर्णय सामूहिक विवेक के माध्यम से लिए जाते थे जिसे परम बुद्धिमत्तापूर्ण मना जाता था. यह समाज में सौहार्द और सामंजस्य विकास हेतु व्यवस्था थी और केवल ऐसे समाज पर लागू की जा सकती थी जिसमें समाज वर्गीकृत न हो और विशेषतः प्रदूषित संस्कारों वाले व्यक्ति समाज के अंग न हों. समाज में विरोधाभास न होने के कारण ऐसी व्यवस्था में किसी चुनाव की आवश्यकता नहीं होती थी. अतः परस्पर विरोधाभासों वाले समाजों में यह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती.
प्लेटो का सापेक्षतावाद सिद्धांत
एथेंस नगर राज्य के प्रबल विरोधी स्पार्टा राज्य द्वारा दैमोक्रितु से लगभग ३० वर्ष छोटे प्लेटो को एथेंस में वहां की व्यवस्था को भंग करने हेत भेजा गया था जिसने वहां जाकर अकादेमी नामक स्कूल की स्थापना की और वहां के शीर्ष विद्वान् सुकरात के शिष्य होने का आडम्बर किया. वह दैमोक्रितु के परम ज्ञान के सिद्धांत और जनतंत्र का घोर विरोधी था जिसके लिए उसने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में सापेक्षतावाद सिद्धांत और एक-क्षत्र शासन तंत्र का प्रतिपादन किया
इस सिद्धांत के अनुसार बौद्धिक ज्ञान परम ज्ञान न होकर केवल सापेक्ष ज्ञान होता है जो ज्ञान और विचारों की की प्रतीति मात्र होता है. वास्तविक ज्ञान परिस्थिति एवं काल-निरपेक्ष होता है जो मानवीय बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता. यह केवल चुनिन्दा व्यक्तियों को प्राप्त होता है जो शासन करने हेतु ही जन्म लेते हैं.
लोके का सापेक्षता सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार सभी मनुष्य अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करते हैं अतः कोई भी परम ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता. इस कारण से सभी मानव आदर्श मानव के सापेक्ष आधे-अधूरे होते हैं. विश्व के सभी समुदाय ऐसे आधे-अधूरे व्यक्तियों के समुच्याय होते हैं. इस कारण से किसी भी मनुष्य को दूसरों पर शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता. इसलिए सभी मनुष्यों को एक समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए और प्रत्येक को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए. आधुनिक जनतंत्र इसी सिद्धांत पर आधारित हैं.
समीक्षा
प्लेटो का सापेक्षता सिद्धांत और उसके अंतर्गत एक-क्षत्र शासन तंत्र एक कृत्रिम एवं कपट-पूर्ण संकल्पना थी जो जन-सामान्य को पशुतुल्य और चुनिन्दा व्यक्तियों को महामानव घोषित करती थी. भारत में प्रचलित अवतारवाद, भाग्यवाद, आदि संकल्पनाएँ भी इसी प्लेटो और उसकी अकादेमी की देनें थीं. इन्हें किसी भी दृष्टि से मानवीय नहीं कहा जा सकता.
लोके के सापेक्षता सिद्धांत में अपूर्णता को समानता का आधार माना गया है, जो एक ऋणात्मक दर्शन है. इस आधार पर स्थापित शासन व्यवस्था के अंतर्गत समाज में अप्पोर्नता का ऋणात्मक बोध जागृत होना स्वाभाविक है. इस कारण से बेन्त्रेन्द रसेल जैसे आधुनिक दार्शनिकों ने आधुनिक जनतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में धनात्मक बिंदु खोजने के निष्फल प्रयास किये. इस कारण से वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्थाएं सफल नहीं हो पा रही हैं.
ज्ञान-विज्ञानं सतत संवर्धित होता रहर है इसलिए किसी भी समय मानवीय ज्ञान परम स्थिति में नहीं कहा जा सकता, तथापि मानवीय गयम तत्कालीन अवस्था में पूर्ण हो सकता है. इसके अतिरिक्त मानवता के पास ज्ञान प्राप्त करने का बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ साधन है, जिसके आधार पर ही दैमोक्रितु ने मानवीय ज्ञान को ही परम ज्ञान कहा था यद्यपि उसे तात्कालिक परम ज्ञान कहना चाहिए था. इसलिए, दैमोक्रितु का परम क्यां का सिद्धांत ही मानव जाति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सिद्धांत है.
इस सिद्धांत में ज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है. जिस समय और जिस स्थान पर यह सिद्धांत प्रतिपादित और लागू किया गया था, तब अथेन्स की समस्त जनसँख्या बौद्धिक थी और उनमें बौद्धिक अंतराल नगण्य थे. इसलिए जनतांत्रिक व्यवस्था सफल सिद्ध्हो रही थी. आज, विशेषकर विकास-शील और अविकसित विश्व में लोगों में बौद्धिक समानता नहीं है इसलिए मानव-मानव में बौद्धिक अंतराल के कारण सभी को अपेक्षित ज्ञान होना संभव नहीं हो पा रहा है. इसलिए दैमोक्रितु के सिद्धांत के अनुपालन के लिए राजनैतिक सत्ता बौद्धिक वर्ग के हाथों में होनी चाहिए. इसी में समस्त मानव जाति का कल्याण निहित है. बौद्धिक जनतंत्र की परिकल्पना इसी उद्येश्य को समर्पित है.
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