आगरा के निकट एक प्रसिद्द एतिहासिक स्थल फतेहपुर सीकरी है जिसे अकबर द्वारा निर्मित बताया जा रहा है जबकि अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य सिद्ध कराते हैं कि अकबर से इसके निर्माण का कोई सम्बन्ध नहीं है. यह महाभारत से पूर्व देवों द्वारा बसाया गया एक लाल पत्थरों से बना नगर था जिसमें देव परिवार रहते थे. इसका निर्माण काल अब से लगभग २,५०० वर्ष पूर्व इस आधार पर सिद्ध होता है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ईसापूर्व ३२३ में हुआ जिसके १५ माह बाद महाभारत युद्ध हुआ. इस युद्ध में सिकंदर उपस्थित था जिसे 'महाभारत' ग्रन्थ में शिखंडी कहा गया है तथा जो समलैंगिक मैथुन के लिए प्रसिद्द था. इसकी समलैंगिकता का चित्रण अभी कुछ वर्ष पहले हॉलीवुड से निर्मित फिल्म Alexander में भी किया गया है.
फतेहपुर सीकरी लगभग ४ वर्ग किलोमीटर क्षत्र में फैला एक नगर था जो ध्वस्त किया जाकर केवल कुछ भवनों तक सीमित कर दिया गया है. मुस्लिम शासकों द्वारा कब्रिस्तान में परिवर्तित किये जाने के बाद भी वर्तमान भवन भी वास्तुकला और सौन्दर्य के अद्भुत उदाहरण हैं. इसके मुख्य भवन के प्रांगण में सलीम चिश्ती का स्मारक बना है जो स्पष्ट रूप से बाद का निर्माण है और संभवतः यही अकबर द्वारा बनवाया गया था. अकबर के शासन काल में भी यह नगर इतना भव्य था कि उसने इसे अपनी राजधानी बनने का प्रयास किया. किन्तु उसके इंजीनिअर इस नगर के प्राचीन जल-प्रदाय संस्थान को सक्रिय न कर सके और वह इसे त्याग कर दिल्ली चला आया. यह विशाल जल संस्थान अब भी सुरक्षित है किन्तु इसे समझने और सक्रिय करने के कोई प्रयास वर्तमान सरकारी वेतनभोगी तथाकथित विशेषज्ञों ने नहीं किये हैं. यदि यह नगर तथा जल संस्थान अकबर द्वारा बनवाया गया होता तो उसे जलाभाव में यह नगर छोड़ने की विवशता नहीं होती. नगर के पश्चिमी किनारे पर एक जलधारा का सतत प्रवाह रहता है जिसके समीप ही जल-संस्थान स्थित है.
नगर के मुख्य भवन का द्वार बुलंद दरवाजा कहलाता है जिसके विशाल मुख पर ईसा मसीह का एक वाक्य उत्कीर्ण है जो अकबर कदापि नहीं कराता क्योंकि विश्व का सबसे लम्बा युद्ध ईसाई और इस्लाम धर्मावलम्बियों के मध्य हुआ है जो ६३० से आरम्भ होकर १९वीं शताब्दी तक चला है.
अकबर इस नगर में एक युद्ध में विजय प्राप्ति के बाद आया था, उस समय ऐसे भव्य नगर का निर्माण करना एक असंभव कल्पना है. नगर के एक भवन को आज भी 'सीताजी की रसोई' कहा जाता है जो इस नगर का देवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है. जल संस्थान के दक्षिण में ऊंची चारदीवारी से घिरा एक प्रांगण है जिसके मद्य एक जलताल है. इस प्रांगण में देवी दुर्गा के पालतू शेर रखे जाते थे जिनपर सवारी कर वह दुष्टों का संहार करने जाया करती थीं. दुष्टों में उनका इतना आतंक था कि वे रात्रि भर जागृत रहते और देवी को प्रसन्न रखने के लिए उनके गुणगान कराते रहते. इसी प्रचलन को आज देवी-जागरण कहा जता है जो पुनजब क्षेत्र से फैलता हुआ उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों में प्रचलित है. यही देवी दुर्गा मूलतः ईसा मसीह की बड़ी बाहें मरियम थीं जो विष्णु से विवाह होने के कारण 'विष्णुप्रिया' भी कहलाती थीं. विष्णु का एक नाम लक्ष्मण होने के कारण इन्ही देवी को 'लक्ष्मी' के रूप में भी जाना जाता है. वैश्य समाज की ये आराध्य देवी हैं क्योंकि वैश्य (गुप्त) वंश का आरम्भ इन्ही के पुत्र चन्द्र गुप्त मोर्य से हुआ. काली के रूप में भी ये शतरूप\ओं का संहार किया करती थीं.
फतेहपुर सीकरी के मुख्य भवन के उत्तर में एक विद्यालय भवन है जहाँ देवों के बच्चे शिक्षा पाते थे. यह नगर उस समय बनाया गया जब यवन समुदाय ने देवों को सताना आरम्भ कर दिया था और देव पुरुष संघर्षों में व्यस्त रहते थे. इसलिए परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए इस नगर को बसाया गया जिसकी चारदीवारी में केवल एक द्वार था जो पूर्व की ओर आज भी स्थित है. नगर के मुख्य भवनों में देव परिवार रहते थे तथा स्त्रियाँ ग्रंथों के लेखन का कार्य करती थीं. महाभारत की रचना प्रमुखतः इसी नगर में की गयी जिसमें देव स्त्रियों का प्रमुख योगदान है.
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
मूषक
शास्त्रों के भ्रमात्मक एवं प्रचलित अर्थों के अनुसार मूषक का अर्थ चूहा कहा जाता है जिसे एक सुप्रसिद्ध देव गणेशजी का वाहन कहा जाता है जो एक मूर्खतापूर्ण भाव है. शास्त्रों में यह शब्द ग्रीक भाषा के शब्द moschos का देवनागरी स्वरुप है जिसका हिंदी अर्थ कस्तूरी जैसी सुगंधि वाला किन्तु इससे भिन्न एक द्रव्य है. अतः गणेशजी के सन्दर्भ में मूषक शब्द का उपयोग गणेश जी द्वारा इस द्रव्य के बारे में अध्ययन को इंगित करता है. यह द्रव्य अनेक फलों जैसे भिन्डी, खरबूजा, आदि में भी पाया जाता है.
गुरुवार, 25 मार्च 2010
पार्थ
पार्थ शब्द का उपयोग महाभारत में प्रचुर हुआ है जो ग्रीक भाषा के शब्द 'पर्ठेनोस' का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'मैथुन-विहीन' है अर्थात वह उत्पत्ति जिसमें मैथुन क्रिया का उपयोग न किया गया हो. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द को अर्जुन का एक नाम कहा गया है जो एक भ्रांत धारणा है.
इसी शब्द का दूसरा उपयोग तत्कालीन 'पार्थिया' राज्य के लिए भी किया गया है जो जो वर्तमान पूर्वी इरान भूभाग पर स्थित था.
इसी शब्द का दूसरा उपयोग तत्कालीन 'पार्थिया' राज्य के लिए भी किया गया है जो जो वर्तमान पूर्वी इरान भूभाग पर स्थित था.
ऋग
ऋग्वेद जैसे शब्दों में उपयुक्त ऋग शब्द लैटिन भाषा के शब्द regalis का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'शासक' अथवा 'शाही' है. तदनुसार ऋग्वेद में तत्कालीन शासन व्यवस्था का वर्णन है. विभिन्न अद्यात्मवादियों ने इस शब्द के अपनी-अपनी इच्छानुसार अनेक अर्थ लिए हैं और इस वेद के प्रचलित अनुवाद पूर्णतः भ्रमात्मक हैं.
शत
प्राथमिक विद्यालय का संघर्ष
सन १९६१ में जब में कक्षा ९ में पहुंचा था, तभी से अब सन २००० में अपने व्यावसायिक कार्यों से निवृति पाने तक की लगभग ४० वर्ष की अवधि में प्रमुखतः गाँव से बाहर ही रहा हूँ यद्यपि यदा-कदा संपर्क बना रहा है. सन २००० में जब स्थायी निवास की दृष्टि से यहाँ लौटा तो लोगों को आश्चर्य हुआ, वे कभी कल्पना नहीं कर सके थे कि मैं चीफ इंजिनियर तक के पदों पर कार्य करने वाला व्यक्ति कभी स्थायी रूप से गाँव में रहूँगा.
गाँव में पिताजी के सामाजिक कार्य तथा उनकी लोकप्रियता मुझे विरासत में प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई. गाँव में कुछ दबंगों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था और वे अपनी इच्छानुसार लोगों और उनके साधनों का शोषण कर रहे थे. लोग उनसे दुखी थे किन्तु उनका विरोध यदा-कदा ही कर पाते थे. मेरा गाँव में आना उन्हें अच्छा लगा और मुझे एक गाँव-वासी की तरह तुरंत स्वीकार कर लिया गया.
सन ५६ में पिताजी ने गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय का भवन बनवाया था जहाँ राजकीय विद्यालय उसी समय से चल रहा था. यह बस्ती के अन्दर होने के कारण बच्चों के लिए सुविधाजनक था. मुझे सूचित किया गया कि गाँव का तत्कालीन प्रधान अपने कुछ मित्रों के सहयोग से उक्त प्राथमिक विद्याके को गाँव से बाहर ले जाने की योजना बना रहा है जो गाँव वालों को पसंद नहीं है. मैं गाँव प्रधान से मिला और विद्यालय के स्थापन का कारण पूछा तो मुझे बताया गया कि विद्यालय जिस भूमि पर बना है वह कुछ समय के लिए दान में ली गयी थी और उस दानदाता का उत्तराधिकारी उस भूमि की वापिसी की मांग कर रहा है. उसने सम्बंधित अधिकारियों को इस विषयक वैधानिक नोटिस भी भेज दिया था.
मैंने गाँव वालों की एक सभा बुलाई और उनसे विद्यालय के प्रस्तावित विस्थापन के बारे में उनके विचार आमंत्रित किये. प्रधान समूह के कुछ लोगों के अतिरिक्त शेष गाँव-वासी विद्यालय को वहीं रखने के पक्ष में थे और उनका कहना था कि नवीन प्रस्तावित स्थल गाँव के तालाब के पास है जिसमें कुछ समय पूर्व ही गाँव के तीन-चर बच्चे डूब कर मर चुके थे. दूसरा नए स्थान पर गाँव-वासियों को आगामी चुनावों में स्वतंत्र मतदान नहीं करने दिया जायेगा क्योंकि वह प्रधान समूह के लोगों से घिरा है और गाँव के बाहर किनारे पर है. मुझे यह सब तर्क-संगत लगा और प्रधान से विद्यालय को पुराने स्थान पर ही रखने का आग्रह किया, किन्तु सत्ता के मद से चूर दबंगों ने मेरे सुझाव को अस्वीकार कर दिया और अपनी इच्छानुसार कार्य करने का संकल्प दोहराया. यह गाँव वालों को स्वीकार नहीं था इसलिए मैंने उक्त विस्थापन न होने देने का संकल्प लिया.
गाँव में वैचारिक संघर्ष छिड़ गया - एक ओर निर्बल वर्ग का बहुमत और दूसरी ओर सबल वर्ग का अल्पमत. मैंने सम्बंधित अदिकारियों को गाँव वालों का विरोध दर्शाते हुए पात्र लिख दिए किन्तु उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ और नए स्थान पर विद्यालय भवन निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया गया. एक ओर गाँव-वासियों को संगठित करने तथा दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारियों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराते हुए उनसे निर्माण कार्य के लिए धन न देने का अभियान चल पड़ा जिसमें प्रधान वर्ग के अतिरिक्त गाँव के सभी वर्गों का सहयोग मिला. इस पर भी शिक्षा विभाग ने निर्माण हेतु धन प्रदान कर दिया.
अंततः यह विवाद जिलाधिकारी तक पहुंचा जो हमारे प्रतिनिधियों के तर्कों के समक्ष विद्यालय को पुराने स्थल पर ही रखने का आदेश दे देता तो दूसरी ओर कुछ राजनेताओं के दवाब में आकर विद्यालय स्थानांतरण के आदेश दे देता. इस कारण से निर्माण कार्य चलता रहा. मैं बुलंदशहर स्थित मुहाफिजखाने में गया जहां प्राचीन दस्तावेज़ संग्रहित रखे जाते हैं, और सन १९५४ से आगे के अपने गाँव संबंधी आलेखों की जांच आरम्भ की जिस पर मैंने पाया की विद्यालय की भूमि गाँव-सभा के नाम पर पिताजी ने १,००० रुपये में खरीदने के बाद उस पर भवन बनाया था. इस दस्तावेज की प्रतिलिपि प्राप्त कर ली गयी.
दस्तावेज को लेकर मैं कुछ गाँव-वासियों को साथ लेकर उप जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना देने पहुँच गया आर उसे दस्तावेज़ दिखाया. आरम्भ में उप जिलाधिकारी ने हम सबको भयभीत कर भगाने का प्रयास किया जिस पर मुझे आवेश आ गया और मैंने उप जिलाधिकारी को धमकी दी कि मुझे वही करना पड़ेगा जो मेरे पिताजी अँगरेज़ अधिकारियों के साथ किया करते थे. देश में जनता का शासन है और उस जैसे अधिकारी केवल सेवक मात्र थे और उसे चेतावनी दी कि वह शहंशाह बनने का प्रयास न करे.
उसकी समझ में मेरी धमकी आ गयी और उसने मुझसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि मैं क्या चाहता था. मैंने उसे बताया कि पुलिस को आदेश देकर निर्माण कार्य तुरंत रोका जाये, और विद्यालय का नवीन भवन पुराने स्थान पर ही बनाया जाये. उसने पुलिस को आदेश किया औए उसे मुझे थमा दिया कि मैं पुलिस को वह आदेश दे दूं. गाँव में एक पुलिस निरीक्षक पहुंचा और निर्माण कार्य रोकने के स्थान पर उसे तीव्र गति से पूर्ण करने का व्यक्तिगत परामर्श देकर चला आया. इसकी सूचना मुझे मिल गयी और मैंने उप जिलाधिकारी को फ़ोन पर इसकी सूचना देते हुए बताया कि मैं गाँव-वासियों के साथ पुनः धरना देने आ रहा हूँ. किन्तु उसने मुझसे न आने का सुझाव दिया और आश्वासन दिया कि निर्माण कार्य रोक दिया जायेगा. उसने स्वयं आकर निर्माण कार्य रोक देने का आदेश दे दिया जिसका तुरंत अनुपालन हुआ.
अगले ही दिन जिलाधिकारी ने राजनेताओं के दवाब में आकर निर्माण कार्य पूरा करने का आदेश दे दिया और कार्य तीव्र गति से आरम्भ कर दिया गया. अब मेरे पास गांधीजी के सर्ताग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष नहीं था..रात में ही विद्यालय प्रांगण में पंडाल लगवा दिए गए, और मैं जिलाधिकारी, पुलिस और मुख्य चिकित्साधिकारी को सूचित कर प्रातः आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गया. गाँव वालों की भीड़ मेरे पास जमा रहने लगी. स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित होने लगे और आसपास के गाँव वाले भी मेरे समर्थन में एकत्र होने लगे. २५०० की जनसँख्या वाले गाँव में मेरे आसपास लगभग १००० स्त्री-पुरुषों का समुदाय मेरे पास रहने लगा.
भूख हड़ताल के तीसरे दिन उप जिलाधिकारी, पुलिस क्षेत्राधिकारी और एक पुलिस दल कुछ मजदूरों को लेकर मेरे पास पहुंचे और मुझसे पूछा कि वे कहाँ बैठें ताकि दोनों पक्षों के दस्तावेजों की जांच कर सकें. मैंने कहा कि वे मेरे पास भूमि पर ही बैठकर जांच करें. दूसरे पक्ष को भी बुला लिया गया और उनका पक्ष भी सुना गया. अंततः मुझसे पूछा गया कि विद्यालय के नए बावन की नींव की खुदाई कहाँ होनी थी और गाँव-वासियों के सुझावानुसार खुदाई आरम्भ कर दी गयी. साथ ही प्रधान पक्ष को भी आदेश दिया गया कि वे दूसरे स्थान पर हुए निर्माण को ध्वस्त कराएँ और सभी निर्माण सामग्री को इसी स्थान पर लाकर भवन निर्माण आरम्भ करें. संतोषजनक आश्वासन पर भूख-हड़ताल समाप्त कर दी गयी.
इस प्रकरण से जहाँ मुझे नैतिक बल मिला वहीं गाँव-वासियों को मेरी कार्य पद्यति पर विश्वास भी हो गया. यह मेरा प्रथम सामाजिक प्रयोग था जो पूर्णतः सफल रहा.
गाँव में पिताजी के सामाजिक कार्य तथा उनकी लोकप्रियता मुझे विरासत में प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई. गाँव में कुछ दबंगों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था और वे अपनी इच्छानुसार लोगों और उनके साधनों का शोषण कर रहे थे. लोग उनसे दुखी थे किन्तु उनका विरोध यदा-कदा ही कर पाते थे. मेरा गाँव में आना उन्हें अच्छा लगा और मुझे एक गाँव-वासी की तरह तुरंत स्वीकार कर लिया गया.
सन ५६ में पिताजी ने गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय का भवन बनवाया था जहाँ राजकीय विद्यालय उसी समय से चल रहा था. यह बस्ती के अन्दर होने के कारण बच्चों के लिए सुविधाजनक था. मुझे सूचित किया गया कि गाँव का तत्कालीन प्रधान अपने कुछ मित्रों के सहयोग से उक्त प्राथमिक विद्याके को गाँव से बाहर ले जाने की योजना बना रहा है जो गाँव वालों को पसंद नहीं है. मैं गाँव प्रधान से मिला और विद्यालय के स्थापन का कारण पूछा तो मुझे बताया गया कि विद्यालय जिस भूमि पर बना है वह कुछ समय के लिए दान में ली गयी थी और उस दानदाता का उत्तराधिकारी उस भूमि की वापिसी की मांग कर रहा है. उसने सम्बंधित अधिकारियों को इस विषयक वैधानिक नोटिस भी भेज दिया था.
मैंने गाँव वालों की एक सभा बुलाई और उनसे विद्यालय के प्रस्तावित विस्थापन के बारे में उनके विचार आमंत्रित किये. प्रधान समूह के कुछ लोगों के अतिरिक्त शेष गाँव-वासी विद्यालय को वहीं रखने के पक्ष में थे और उनका कहना था कि नवीन प्रस्तावित स्थल गाँव के तालाब के पास है जिसमें कुछ समय पूर्व ही गाँव के तीन-चर बच्चे डूब कर मर चुके थे. दूसरा नए स्थान पर गाँव-वासियों को आगामी चुनावों में स्वतंत्र मतदान नहीं करने दिया जायेगा क्योंकि वह प्रधान समूह के लोगों से घिरा है और गाँव के बाहर किनारे पर है. मुझे यह सब तर्क-संगत लगा और प्रधान से विद्यालय को पुराने स्थान पर ही रखने का आग्रह किया, किन्तु सत्ता के मद से चूर दबंगों ने मेरे सुझाव को अस्वीकार कर दिया और अपनी इच्छानुसार कार्य करने का संकल्प दोहराया. यह गाँव वालों को स्वीकार नहीं था इसलिए मैंने उक्त विस्थापन न होने देने का संकल्प लिया.
गाँव में वैचारिक संघर्ष छिड़ गया - एक ओर निर्बल वर्ग का बहुमत और दूसरी ओर सबल वर्ग का अल्पमत. मैंने सम्बंधित अदिकारियों को गाँव वालों का विरोध दर्शाते हुए पात्र लिख दिए किन्तु उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ और नए स्थान पर विद्यालय भवन निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया गया. एक ओर गाँव-वासियों को संगठित करने तथा दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारियों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराते हुए उनसे निर्माण कार्य के लिए धन न देने का अभियान चल पड़ा जिसमें प्रधान वर्ग के अतिरिक्त गाँव के सभी वर्गों का सहयोग मिला. इस पर भी शिक्षा विभाग ने निर्माण हेतु धन प्रदान कर दिया.
अंततः यह विवाद जिलाधिकारी तक पहुंचा जो हमारे प्रतिनिधियों के तर्कों के समक्ष विद्यालय को पुराने स्थल पर ही रखने का आदेश दे देता तो दूसरी ओर कुछ राजनेताओं के दवाब में आकर विद्यालय स्थानांतरण के आदेश दे देता. इस कारण से निर्माण कार्य चलता रहा. मैं बुलंदशहर स्थित मुहाफिजखाने में गया जहां प्राचीन दस्तावेज़ संग्रहित रखे जाते हैं, और सन १९५४ से आगे के अपने गाँव संबंधी आलेखों की जांच आरम्भ की जिस पर मैंने पाया की विद्यालय की भूमि गाँव-सभा के नाम पर पिताजी ने १,००० रुपये में खरीदने के बाद उस पर भवन बनाया था. इस दस्तावेज की प्रतिलिपि प्राप्त कर ली गयी.
दस्तावेज को लेकर मैं कुछ गाँव-वासियों को साथ लेकर उप जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना देने पहुँच गया आर उसे दस्तावेज़ दिखाया. आरम्भ में उप जिलाधिकारी ने हम सबको भयभीत कर भगाने का प्रयास किया जिस पर मुझे आवेश आ गया और मैंने उप जिलाधिकारी को धमकी दी कि मुझे वही करना पड़ेगा जो मेरे पिताजी अँगरेज़ अधिकारियों के साथ किया करते थे. देश में जनता का शासन है और उस जैसे अधिकारी केवल सेवक मात्र थे और उसे चेतावनी दी कि वह शहंशाह बनने का प्रयास न करे.
उसकी समझ में मेरी धमकी आ गयी और उसने मुझसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि मैं क्या चाहता था. मैंने उसे बताया कि पुलिस को आदेश देकर निर्माण कार्य तुरंत रोका जाये, और विद्यालय का नवीन भवन पुराने स्थान पर ही बनाया जाये. उसने पुलिस को आदेश किया औए उसे मुझे थमा दिया कि मैं पुलिस को वह आदेश दे दूं. गाँव में एक पुलिस निरीक्षक पहुंचा और निर्माण कार्य रोकने के स्थान पर उसे तीव्र गति से पूर्ण करने का व्यक्तिगत परामर्श देकर चला आया. इसकी सूचना मुझे मिल गयी और मैंने उप जिलाधिकारी को फ़ोन पर इसकी सूचना देते हुए बताया कि मैं गाँव-वासियों के साथ पुनः धरना देने आ रहा हूँ. किन्तु उसने मुझसे न आने का सुझाव दिया और आश्वासन दिया कि निर्माण कार्य रोक दिया जायेगा. उसने स्वयं आकर निर्माण कार्य रोक देने का आदेश दे दिया जिसका तुरंत अनुपालन हुआ.
अगले ही दिन जिलाधिकारी ने राजनेताओं के दवाब में आकर निर्माण कार्य पूरा करने का आदेश दे दिया और कार्य तीव्र गति से आरम्भ कर दिया गया. अब मेरे पास गांधीजी के सर्ताग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष नहीं था..रात में ही विद्यालय प्रांगण में पंडाल लगवा दिए गए, और मैं जिलाधिकारी, पुलिस और मुख्य चिकित्साधिकारी को सूचित कर प्रातः आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गया. गाँव वालों की भीड़ मेरे पास जमा रहने लगी. स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित होने लगे और आसपास के गाँव वाले भी मेरे समर्थन में एकत्र होने लगे. २५०० की जनसँख्या वाले गाँव में मेरे आसपास लगभग १००० स्त्री-पुरुषों का समुदाय मेरे पास रहने लगा.
भूख हड़ताल के तीसरे दिन उप जिलाधिकारी, पुलिस क्षेत्राधिकारी और एक पुलिस दल कुछ मजदूरों को लेकर मेरे पास पहुंचे और मुझसे पूछा कि वे कहाँ बैठें ताकि दोनों पक्षों के दस्तावेजों की जांच कर सकें. मैंने कहा कि वे मेरे पास भूमि पर ही बैठकर जांच करें. दूसरे पक्ष को भी बुला लिया गया और उनका पक्ष भी सुना गया. अंततः मुझसे पूछा गया कि विद्यालय के नए बावन की नींव की खुदाई कहाँ होनी थी और गाँव-वासियों के सुझावानुसार खुदाई आरम्भ कर दी गयी. साथ ही प्रधान पक्ष को भी आदेश दिया गया कि वे दूसरे स्थान पर हुए निर्माण को ध्वस्त कराएँ और सभी निर्माण सामग्री को इसी स्थान पर लाकर भवन निर्माण आरम्भ करें. संतोषजनक आश्वासन पर भूख-हड़ताल समाप्त कर दी गयी.
इस प्रकरण से जहाँ मुझे नैतिक बल मिला वहीं गाँव-वासियों को मेरी कार्य पद्यति पर विश्वास भी हो गया. यह मेरा प्रथम सामाजिक प्रयोग था जो पूर्णतः सफल रहा.
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आमरण भूख हड़ताल,
खंदोई,
प्राथमिक विद्यालय
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