रविवार, 13 दिसंबर 2009

जनमानस : अंग्रेजी और भारतीय राज में

अब स्वतंत्र भारत के लोकतान्त्रिक राज में लोग कहने लगे हैं कि इससे तो अंग्रेजी राज ही अच्छा था. क्यों पनप रही है यह धारणा जबकि तब से अब तक लोगों के जीवन स्टार में भरी सुधार आया है?

विकास केवल भारत का ही नहीं हुआ है किन्तु यह प्रक्रिया विश्व स्तर पर हुई है. विकास एक सापेक्ष परिमाप है, तदनुसार यदि एक समाज दूसरे समाज से अधिक विकास करता है तो दूसरे समाज का पिछड़ना कहा जाएगा. इस दृष्टि से भारत विकास की दर में अनेक देशों से पिछड़ा है. अतः भारत का विकास या यहाँ के लोगों के जीवन स्तर में सुधार कोई अर्थ नहीं रखता. इसे एक प्राकृत प्रक्रिया के अंतर्गत स्वीकार लिया जाता है और इसका श्रेय किसी शाशन को नहीं दिया जा सकता. यहाँ तक की यह भी कहा जा सकता है की भारत के विकास की दर अपेक्षाकृत कम रही है जिसके लिए शाशन उत्तरदायी है.

वास्तविक विकास देश के सकल घरेलु उत्पाद से नहीं मापा जा सकता. इसकी सही परिमाप देश के निर्धनतम व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार से किया जाना चाहिए. आज भी भारत का निर्धनतम व्यक्ति लगभग उसी स्तर पर जीवन यापन कर रहा है जिस पर वह अंग्रेजी राज में करता था. अतः उसके लिए देश की स्वतंत्रता तथा इसके सकल घरेलु उत्पाद में वृद्धि कोई अर्थ नहीं रखती. इस दृष्टि से स्वतंत्र भारत के शाषन को असफल ही कहा जायेगा.

अंग्रेजी शाशन में देश की सम्पदा तथा लोगों का शाशकों द्वारा भरपूर शोषण किया जाता था. स्वतंत्रता के बाद इस शोषण में जो परिवर्तन आया है उसका प्रभाव केवल शाषक वर्ग पर पड़ा है जिसमे राजनेता तथा राज्यकर्मी सम्मिलित हैं. जनसाधारण तथा व्यवसायी वर्ग का शोषण उतना ही हो रहा है जितना अंग्रेजी राज में होता था. अतः इन वर्गों को शाषन परिवर्तन का कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है. इस कारन से शाषन के प्रति इनकी भावना आज भी वैसी ही है जैसी अंग्रेजी शाषन के प्रति थी.

भारत में अँगरेज़ शाषक शोषण चाहे जितना भी करते रहे हों, वे अपनी रानी के प्रति निष्ठावान थे और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि वे अनुशाषित थे. अंग्रेजी राज में जनसाधारण छल-कपट से दूर था. वह अपनी दयनीय निर्धन अवस्था में ईमानदारी के साथ परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करता था. न्याय व्यवस्था ठीक थी, अपराधियों को दण्ड दिया जाता था और जनसाधारण सुरक्षित था.

स्वतंत्र भारत का शाषक वर्ग न तो किसी के प्रति निष्ठावान है और न ही अनुशाषित. छल-कपट और भ्रष्टाचार उनकी रग-रग में बसा है. इसका प्रभाव व्यापक रूप से जनमानस पर पड़ा है. आज जनमानस भी अपने नेताओं से प्रेरणा पाता हुआ भृष्ट और बेईमान हो गया है. सार्वजनिक सम्पदा कि चोरी आम बात हो गयी है जिसका कोई प्रतिकार शाशको के पास नहीं है क्योंकि वे सब भी यही कर रहे हैं. सामाजिक अपराधों में वृद्धि हुई है जिससे जनसाधारण असुरक्षित हो गया है. न्याय व्यवस्था चरमरा गयी है तथा अपराधी वर्ग ने राजनैतिक सत्ता हथिया ली है जिससे जनसाधारण असुरक्षा कि भावना से पीड़ित है. जनमानस में इस परिवर्तन के कारण ही अंग्रेजी राज को भारतीय राज से अच्छा कहा जाने लगा है.

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.

पृष्ठभूमि


मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.