सोमवार, 7 जून 2010

सभ्यता और संस्कृति

आज पूरी मानव जाति की बुद्धिहीनता है कि वह सभ्यता और संस्कृति में अंतर कराना भूल बैठी है, और यह भूल ही इस सर्वश्रेष्ठ जाति को पतित कर रही है.  यह है इस अंतर को समझने का एक प्रयास.

सभ्यता से हम भली भांति परिचित हैं - मानव की जीवन को बेहतर बनाने की सतत उत्कंठा का परिणाम, जिसके माध्यम से मानव बीहड़ जंगलों की भटकन को त्याग कर शहर और गाँव बनकर उनमें बस गया और स्वयं का समाजीकरण किया. कार्य विभाजन और परस्पर सेवाओं और सामानों का आदान-प्रदान को भी समाजीकरण विकास हेतु माध्यम बनाया.यहाँ तक सब ठीक-ठाक चलता रहा और मानव सभ्यता विकसित होती रही.

समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर करता है और एक दूसरे से प्रभावित होता है. नवजात शिशु भी आरम्भ में अपने माता-पिता से तथा बाद में अपने समाज से बहुत कुछ सीखता है और अपने आचार-विचार, चरित्र और व्यवहार का निर्माण करता है. इसी को उसका संस्कारण कहा जाता है, और उसकी समग्र जीवन-शैली उसकी संस्कृति कहलाती है जो उसे समाज के देन होती है. यदि समाज किसी कारण से पथ-भृष्ट है तो उसकी संस्कृति भी प्रदूषित होगी, और यदि समाज सुमार्ग पर चल रहा होता है तो शिशु एक सुसंस्कृत नागरिक बनेगा. इस प्रकार संस्कृति अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जिन्हें हम सुसंस्कृति और कुसंस्कृति कह सकते हैं. अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य यह भूल गया कि उसकी संस्कृति पथ-भृष्ट भी हो सकती है, जिसके कारण उसने 'संस्कृति' को एक शुभ शब्द के रूप में मान लिया. इसके अशुभ होने की सम्भावना भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाई.

'संस्कृति' शब्द को शुभ माने जाने के व्यापक प्रभाव हुए - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति शब्दों को भुला गिया गया और संस्कृति का विलोम शब्द 'विकृति' माना गया जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यही कुसंस्कृति का भाव है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी संस्कृति पर गौरव अनुभव होने लगा बिना यह जाने कि उसकी संस्कृति वस्तुतः सुसंस्कृति है अथवा कुसंस्कृति. अतः संस्कृति जैसी भी रही, प्रत्येक व्यक्ति उसका विकास करता रहा, जिससे विभिन्न समाजों में ससंस्कृति और कुसंस्कृति दोनों विकसित होती रहीं, और दोनों पर ही उनके पात्रों को गौरव अनुभव होता रहा.

सभ्यता निश्चित रूप से एक शुभ परिकल्पना है - इसके अशुभ होने की कोई संभावना नहीं है, जब कि संस्कृति शुभ अथवा अशुभ हो सकती है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता और संस्कृति का कोई सुनिश्चित सम्बन्ध नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी संस्कृति पर गौरव की अनुभूति होने के कारण वह सभ्यता लो भूल बैठा और संस्कृति को ही सभ्यता का पर्याय मान लिया. इस भूल के कारण सभ्यता विकास कार्य पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, और संस्कृतियों - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति, दोनों का विकास किया जाने लगा जो आज भी किया जा रहा है.

यहाँ तक का यह अध्ययन विश्व मानव के बारे में है. इससे आगे हम इसी अध्ययन को भारत पर केन्द्रित करेंगे और जानने का प्रयास करेंगे कि आज हम सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष कहाँ खड़े हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि जब हम भारत अथवा भारतीय शब्द का उपयोग करते हैं तो उसका अर्थ जन-सामान्य भारतीय है न कि प्रत्येक भारतीय, जिनमें कुछ जन-सामान्य के सापेक्ष अच्छे अथवा बुरे अपवाद भी हो सकते हैं.

मैं पूरे भारत में अनेक स्थानों पर रहा हूँ और अनेक बार भ्रमण किया है. प्रत्येक स्थान पर वहां के लोगों की मानसिकता का आकलन किया है. अपने चारों तरफ जनसमुदाय देखता रहा हूँ, उनके आचार-विचार आदि का अध्ययन करता रहा हूँ. चोरी-चकोरी, छीना-झपटी, ठगी-डकैती, व्यभिचार-भृष्टाचार, झूठे प्रदर्शन और अभिव्यक्तियाँ, आदि भारतीय चरित्र के अभिन्न अंग बन गए हैं. प्रत्येक समाज में और स्थान पर कुछ आदर्श चरित्र भी होते हैं किन्तु वे समाज द्वारा तिरस्कृत और अपने-अपने जीवन में असफल ही पाए जाते हैं. इस आधार पर मेरी मान्यता है कि भारत में लम्बे समय से कुसंस्कृति ही विकसित होती रही है और इस पर हमें गौरव भी अनुभव होता रहा है. जो हमारे दोष हैं उनपर झूंठे चांदी के मुलम्मे चढ़ाये जाते रहे हैं, जिसके कारण हम अपने घावों को देख नहीं पाते और वे अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुके हैं. आज हम इस वास्तविकता को देखना भी नहीं चाहते और ऊपरी मुलाम्मों पर गौरव अनुभव कर स्वयं को संस्कृत मान लेते हैं. लिस रोग को जाना न जाए उसकी चिकित्सा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

The Interpretation Of Cultures (Basic Books Classics) 
भारत की उक्त विकसित एवं परिपक्व कुसंस्कृति का कारण भारत का नेतृत्व रहा है - कल तक की परतंत्रता में और आज की स्वतन्त्रता में भी. इसी दूषित नेतृत्व से उत्प्रेरित है भारत में खास लोगों का समाज जो आम समाज को भी इसी मार्ग पर धकेलता रहता है. आम आदमी के इस कुमार्ग पर जाने की विवशता है, साधनहीनता है, खास लोगों द्वारा उसका निरंतर शोषण है. इसलिए आम आदमी को इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता. ख़ास आदमी साधन संपन्न होते हुए भी लोभ और लालच के वशीभूत है और नेतृत्व की प्रेरणा से कुमार्ग पर चलते रहने हेत सदैव तत्पर रहता है. नेतृत्व को सत्ता चाहिए - सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक - प्रत्येक स्थिति में और किसी भी मूल्य पर. इसी के लिए वह स्वयं ही पतित नहीं है जनमानस को भी पतित कर रहा है. 

पूर्वाग्रह और दृष्टिकोण संतुलन

मनुष्य का सर्वाधिक घातक पूर्वाग्रह यह होता है कि उसे सभी सामान्य विषयों का ज्ञान है जबकि यथार्थ यह होता है कि हम सभी अल्पज्ञानी होते हैं किन्तु सार्वजनिक स्तर पर इसे स्वीकार नहीं करते. इस पूर्वाग्रह के कारण हम प्रत्येक विषय पर अपने पूर्वाग्रह का पोषण करते रहते हैं तथा सार्वजनिक स्तर पर उसे अभिव्यक्त भी करते हैं. प्रत्येक विषय पर 'इस बारे में मुझे ज्ञान नहीं है' - ऐसा बहुत कम सुनने में आता है, जबकि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम सोपान यही है कि हम अपनी अल्पज्ञता को पहचानें.

मानव स्वभाव की एक निर्बलता यह है कि जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति से मिलते हैं अथवा किसी नयी वस्तु को देखते हैं तो हमारा प्रथम प्रयास यह होता है कि हम उसके बारे में तुरंत कोई भावना बनाएं और अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त करें, जब कि अपेक्षित यह होता है कि हम शांत भाव से उस व्यक्ति अथवा वस्तु के बारे में सूचनाएं संग्रहित करें, उन्हें विश्लेषित करें और अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए उसके बारे में अपना दृष्टिकोण बनाएं. दृष्टिकोण बनाने से लेकर उसे अभिव्यक्त करने में भी पर्याप्त संयम की आवश्यकता होती है. इसमें महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रत्येक अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के ग्रहण करने हेतु होती है. अतः अभिव्यक्ति से पूर्व हमें सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा लक्ष्यित व्यक्ति हमारी अभिव्यक्ति को ग्रहण करने हेतु तत्पर है. ऐसा न होने पर हमारी अभिव्यक्ति निरर्थक होती है जो हमारे वाक्-संसाधन का दुरूपयोग है.

हमारे पूर्वाग्रह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं तथा विषयों के बारे में ही नहीं होते, ये हमारे स्वयं के बारे में भी होते हैं तथा ये यथार्थ से सुदूर भी हो सकते हैं. यदा-कदा ऐसा भी होता है कि हम अपनी निर्बलताएँ जानते तो हैं किन्तु उन्हें दूसरों के समक्ष स्वीकार करने से कतराते हैं. ये दोनों स्थितियाँ ही मानवीय निर्बलताएँ हैं जो हमें कृत्रिमता की ओर धकेलती रहती हैं. स्वयं के बारे में इन्हीं कृत्रिमताओं के कारण ही हम अपने प्रयासों में असफल होते हैं जो हमारे अधिकाँश दुखों के कारण होती हैं. 

मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी होता है तथापि सार्वजनिक स्तर पर वह स्वयं को परमार्थी दर्शाता है. इसी कृत्रिमता से हमारे पूर्वाग्रह  प्रदूषित होते हैं. वस्तुतः हमारे परमार्थ भी दूरगामी स्वार्थ ही होते हैं, इस प्रकार स्वार्थी होना पूर्णतः दोष नहीं है. आवश्यकता बस इतनी है कि हम अपनी स्वार्थपरता को पहचानें, स्वीकारें और इससे किसी अन्य व्यक्ति को आहत न होने दें.

एक अन्य कृत्रिमता जो हमारे मानस में बसा दी गयी है वह है अहंकार के बारे में, जो कोई दोष नहीं है, और प्राकृत है. किन्तु इसे दोष कहकर हम इसे स्वीकार नहीं करते तथापि अहंकारी होते हैं. अहंकार का वास्तविक अर्थ 'मैं कर्ता हूँ' है जिसमें कोई दोष नहीं है और यह हमारे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का प्रतीक है. वस्तुतः मनुष्य ही कर्ता है, सृष्टा है और विधाता है. आवश्यकता यह है कि हम अपनी प्राकृत क्षमताओं को पहचानें, उनपर अटूट विश्वास करें, और उनका मानव सभ्यता विकास हेतु सदुपयोग करें.  

हमारे पूर्वाग्रह और हमारी कृत्रिमताएँ ही हमारे दृष्टिकोणों को प्रदूषित करते हैं और हमारे सम्यक संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने में बाधक होते हैं. इसलिए हमें सम्यक दृष्टिकोण विकसित करने हेतु अपने पूर्वाग्रहों और कृत्रिमताओं से मुक्त होने की आवश्यकता होती है. इसके लिए हमें किसी अन्य के मार्गदर्शन की भी अनिवार्यता नहीं होती, आवश्यकता होती है बस हमारे चिंतन करने की - पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर.
The Power Of Point Of View: Make Your Story Come To Life

जिस प्रकार हमारे प्रत्येक वार्तालाप का प्रबल पक्ष हमारा श्रवण होता है, उसी प्रकार किसी विषय में संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने का प्रबल बिंदु उस विषयक दूसरे सम्बंधित व्यक्तियों का दृष्टिकोण जानना होता है. यद्यपि हमारे और दूसरों के दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण होने की संभावना रखते हैं, तथापि इन सभी के संश्लेषण से हम यथार्थपरक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं.

शनिवार, 5 जून 2010

शासन और व्यवस्था का अंतराल

भारत में बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना की दिशा में कदम रखने से पूर्व हम अपने बौद्धिक साथियों को शासन और व्यवस्था के शब्द जाल से परिचित करना चाहेंगे. बहुधा शासन-व्यवस्था शब्द-समूह का उपयोग सहज भाव से कर लिया जाता है किन्तु इस शब्द समूह में एक छल समाहित है. वस्तुतः शासन और व्यवस्था दो प्रथक विषय हैं और दोनों का कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है. शासन शोषण का पर्याय है जहां समाज को शासक और शासित वर्गों में विभाजित रखा जाता है. यह मानवता को सामंती युग की देन है और भारत में अभी-भी प्रचलित है. इस में अल्पसंख्यक शासक वर्ग अपने छल-बल से बहुसंख्यक शासित वर्ग का निरंतर शोषण करता रहता है ताकि शोषित वर्ग कदापि शोषण का विरोध करने में समर्थ ही न हो सके.

शासक वर्ग कोई उत्पादक कार्य नहीं करता अपितु शासितों द्वारा किये गए उत्पादन का स्वामी बन बैठता है. किन्तु यह स्वामित्व वहीं तक सीमित रखा जाता है जहां तक कि शासित वर्ग जीवित रह सके क्योंकि शासक वर्ग को शासितों की सतत आवश्यकता होती है. भारतीय पांडित्य परंपरा में इसी को दरिद्र नारायण की पूजा कहा जाता है जिसमें दरिद्रों का अस्तित्व आवश्यक होता है.

Fundamentals of Human Resource Managementसंपदा का समुचित वितरण और सभी द्वारा इसका उपभोग किया जाना 'व्यवस्था' कहलाता है. व्यवस्था में कोई स्वामी नहीं होता किन्तु सभी उत्पादक एवं उपभोक्ता होते हैं. इसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके उपभोग के अनुसार वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती हैं. किसी वस्तु का अभाव होने पर सभी के उपभोग में कमी कर दी जाती है, तथा वस्तु की अधिकता होने पर सभी के उपभोग से शेष राशि भावी उपयोग हेतु सार्वजनिक संपदा के रूप में संचित कर दी जाती है. महाभारत पूर्व भारत में देवों द्वारा ऐसी ही व्यवस्था लागू की गयी थी. व्यवस्था में न कोई शासक होता है और न ही कोई शासित. समाज व्यवस्था हेतु कुछ नागरिकों को व्यवस्थापक नियुक्त कर देता है. लगभग २५०० वर्ष पूर्व एथेंस में स्थापित विश्व का प्रथम जनतंत्र ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे देमोक्रितु ने प्रतिपादित किया था. शासन के पक्षधर प्लेटो और अरिस्तु इसके घोर विरोधी थे.
 
आधुनिक स्वतंत्र समाजों में किसी शासन की आवश्यकता न होकर केवल व्यवस्था की आवश्यकता है. बौद्धिक जनतंत्र भी ऐसी ही व्यवस्था का पक्षधर है.

बुधवार, 2 जून 2010

ग्राम

Lots of Letters: From A to Zशास्त्रों में 'ग्राम' शब्द 'अक्षर' के अर्थ में उपयुक्त है जो ग्रीक भाषा के शब्द  gramma   से बना है. आधुनिक संस्कृत में इसे 'गाँव' के अर्थ में उपयोग किया जाता है जिसका शास्त्रीय भाव से कोई सम्बन्ध नहीं है.  

भूत, भूतानि

Botany: An Introduction to Plant Biologyशास्त्रों में  'भूत' और 'भूतानि' शब्द वनस्पतियों के लिए उपयोग किये गए हैं. इनमें से 'भूत' लैटिन भाषा के शब्द  phytum   से बना है तथा 'भूतानि'  ग्रीक भाषा के  botane   अथवा  botanikos   से उद्भूत हैं. इन शब्दों का उपयोग हरियाली, बगीचा आदि भावों के लिए भी किया गया है. आधुनिक संस्कृत के काल्पनिक अर्थों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है.  

द्रुम

ChiRunning: A Revolutionary Approach to Effortless, Injury-Free Runningशास्त्रों में 'द्रुम' शब्द 'एक दौड़' के लिए उपयोग किया गया है जो ग्रीक भाषा के शब्द  dromos   से बनाया गया है. आधुनिक संस्कृत में इसके अनेक भिन्न अर्थ लिए गए हैं.