बुधवार, 2 जून 2010
लम्बन
शास्त्रीय शब्द 'लम्बन' लैटिन भाषा के शब्द लम्बनें से उद्भूत है जिसका अर्थ 'लेना' है, जबकि आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'आश्रय' माना गया है जो शास्त्रीय अनुवाद हेतु अनुपयोगी है.
समरथ को नहीं दोष गुसाईं
तुलसीदास ने अपने महाकाव्य 'रामायण' में लिखा है 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' जिसका अर्थ यह लिया जा रहा है कि समर्थ व्यक्ति पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता. देखने-सुनने में यह कुछ अटपटा सा लगता है किन्तु यदि इसे इस प्रकार समझा जाये कि 'समर्थ व्यक्ति में दोष नहीं होता' तो इसका भाव यह हो जाता है कि दोषपूर्ण व्यक्ति को समर्थ नहीं कहा जा सकता. तुलसी उपरोक्त शब्द चाहे किसी मंतव्य से लिखे हों, मैं इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार करना चाहता हूँ - समर्थ व्यक्ति के कन्धों पर विशिष्ट दायित्व भर होते हैं, जिनके निर्वाह हेतु उसे कुछ ऐसे कार्य करने पड़ सकते हैं जो दूसरों को दोषपूर्ण प्रतीत होते हों, क्योंकि वे समर्थ व्यक्ति के दायित्व बोध को नहीं समझ सकते. इसलिए समर्थ व्यक्ति के कार्य-कलाप अन्य व्यक्तियों के कार्य-कलापों से भिन्न हो सकते हैं जिनका सही आकलन जन-साधारण द्वारा नहीं किया जा सकता. अतः उन पर दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए. अथवा उन्हें समर्थ न मानते हुए उन पर विशिष्ट दायित्व भी नहीं दिए जाने चाहिए.
बात सन १९९२ की है जब मैं ४४ वर्ष का था. उन दिनों कुछ समाचार पत्रों में विषयों के उद्धार की चर्चा चली थी, कुछ ने इस व्यवसाय को वैधानिक मान्यता की मांग की थी तो कुछ ने इसे नारी जाति पर कलंक कहकर इसके उन्मूलन की वकालत की थी. मेरी जानकारी में यह व्यवसाय स्त्री जाति का आदि कालिक व्यवसाय रहा है जो समाज की एक मांग को पूरी करता है. तथापि परिस्थितियों से विवश नारियां ही इसे अपनाती रहीं हैं जिसके लिए उन पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता. यदि इस व्यवसाय के लिए कोई दोषी है तो वह है हमारी समाज व्यवस्था. इसी प्रकार की उलझनों का उत्तर खोजने के लिए मैं एक दिन एक वैश्यालय में गया और एक सुन्दरी से मिला जो शिक्षित भी प्रतीत होती थी. मैंने मिलते ही उसे अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया कि मैं उसके साथ लम्बी बातचीत करना चाहता हूँ, जिसके लिए यदि वह चाहे तो मैं पुनः किसी अन्य समय पर भी आ सकता हूँ.
युवती शिक्षित ही नहीं सभ्य भी थी, उसने मेरे साथ सहयोग करने का वचन दिया बिना किसी लोभ-लालच के. मैं एक वैश्य के मनोविज्ञान को समझना चाहता था. उसके स्थान पर कुछ देर बातचीत के बाद मैंने उसे पास के एक रेस्तरां में चलने की दावत दी जहा हम बैठकर एकांत में आगे की बातें कर सकें. वह सहमत हो गयी और मैं उसे साथ लेकर उसके कोठे से उतरा. उसी समय वहां से मेरा एक मित्र गुजरा और मुझे वैश्य के साथ कोठे से उतरते देख लिया किन्तु उसने मुझसे कोई बातचीत करना उचित नहीं समझा.
अगले दिन मेरा मित्र मुझसे मिला और मुझसे कहा कि उसने मुझे एक ऐसे स्थान पर देखा था जहां मेरे होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. मैंने उसे पूरी स्थिति बतायी किन्तु उसके उत्तर से मैं यह नहीं समझ सका कि वह मेरे स्पष्टीकरण से संतुष्ट है अथवा नहीं और वह चला गया. संभवतः वह मुझे वेश्यागमन का दोषी मानता हो किन्तु मैंने इस बारे मैं अतिरिक्त स्पष्टीकरण देने का कोई प्रयास नहीं किया. साथ ही यह भी सच है कि बाद में मैंने उसी वैश्या के साथ उसी के आमंत्रण पर उसकी मैथुन कला के प्रदर्शन हेतु उसके साथ सम्भोग का आनंद भी लिया था, और मैं इसे भी अपने सामाजिक अध्ययन का अंग मानता हूँ. तथापि यह मात्र अध्ययन न होकर मेरे लिए आनंद की प्राप्ति भी थी.
उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि मैंने एक विशेष दायित्व निर्वाह हेतु ऐसा कार्य किया जो समाज की दृष्टि में अनुचित है जिसके लिए मुझे दोषी ठहराया जा सकता है. विशिष्ट दायित्व निर्वाह का यह एक नगण्य उदाहरण है, क्योंक मेरा उक्त दायित्व भी नगण्य ही था. वस्तुतः सामर्थ्यवान लोगों को अपने दायित्व-निर्वाहों हेतु इससे भी कहीं अधिक जघन्य कार्य करने पड़ सकते हैं. यथा सीमा पर तैनात सिपाही को अपने दायित्व निर्वाह हेतु हत्याएं भी करनी पड़ती हैं जो सामान्य परिस्थितियों में दुष्कर्म माना जाता है.
इसी कारण से विशिष्ट रूप से सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने दायित्व निर्वाह में कभी यह परवाह नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे. उनकी चिंता बस यह होती है कि उन्हें अपने कर्म से बौद्धिक संतुष्टि हो. ऐसा करते समय कार्य-कलाप महत्वहीन हो जाते हैं और जिसका महत्व होता है वह है कर्मी का मंतव्य. इससे यहे भी स्वतः सिद्ध हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति मंतव्य उसके कर्म से सदैव अधिक महत्वपूर्ण होता है.
बात सन १९९२ की है जब मैं ४४ वर्ष का था. उन दिनों कुछ समाचार पत्रों में विषयों के उद्धार की चर्चा चली थी, कुछ ने इस व्यवसाय को वैधानिक मान्यता की मांग की थी तो कुछ ने इसे नारी जाति पर कलंक कहकर इसके उन्मूलन की वकालत की थी. मेरी जानकारी में यह व्यवसाय स्त्री जाति का आदि कालिक व्यवसाय रहा है जो समाज की एक मांग को पूरी करता है. तथापि परिस्थितियों से विवश नारियां ही इसे अपनाती रहीं हैं जिसके लिए उन पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता. यदि इस व्यवसाय के लिए कोई दोषी है तो वह है हमारी समाज व्यवस्था. इसी प्रकार की उलझनों का उत्तर खोजने के लिए मैं एक दिन एक वैश्यालय में गया और एक सुन्दरी से मिला जो शिक्षित भी प्रतीत होती थी. मैंने मिलते ही उसे अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया कि मैं उसके साथ लम्बी बातचीत करना चाहता हूँ, जिसके लिए यदि वह चाहे तो मैं पुनः किसी अन्य समय पर भी आ सकता हूँ.
युवती शिक्षित ही नहीं सभ्य भी थी, उसने मेरे साथ सहयोग करने का वचन दिया बिना किसी लोभ-लालच के. मैं एक वैश्य के मनोविज्ञान को समझना चाहता था. उसके स्थान पर कुछ देर बातचीत के बाद मैंने उसे पास के एक रेस्तरां में चलने की दावत दी जहा हम बैठकर एकांत में आगे की बातें कर सकें. वह सहमत हो गयी और मैं उसे साथ लेकर उसके कोठे से उतरा. उसी समय वहां से मेरा एक मित्र गुजरा और मुझे वैश्य के साथ कोठे से उतरते देख लिया किन्तु उसने मुझसे कोई बातचीत करना उचित नहीं समझा.
अगले दिन मेरा मित्र मुझसे मिला और मुझसे कहा कि उसने मुझे एक ऐसे स्थान पर देखा था जहां मेरे होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. मैंने उसे पूरी स्थिति बतायी किन्तु उसके उत्तर से मैं यह नहीं समझ सका कि वह मेरे स्पष्टीकरण से संतुष्ट है अथवा नहीं और वह चला गया. संभवतः वह मुझे वेश्यागमन का दोषी मानता हो किन्तु मैंने इस बारे मैं अतिरिक्त स्पष्टीकरण देने का कोई प्रयास नहीं किया. साथ ही यह भी सच है कि बाद में मैंने उसी वैश्या के साथ उसी के आमंत्रण पर उसकी मैथुन कला के प्रदर्शन हेतु उसके साथ सम्भोग का आनंद भी लिया था, और मैं इसे भी अपने सामाजिक अध्ययन का अंग मानता हूँ. तथापि यह मात्र अध्ययन न होकर मेरे लिए आनंद की प्राप्ति भी थी.
उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि मैंने एक विशेष दायित्व निर्वाह हेतु ऐसा कार्य किया जो समाज की दृष्टि में अनुचित है जिसके लिए मुझे दोषी ठहराया जा सकता है. विशिष्ट दायित्व निर्वाह का यह एक नगण्य उदाहरण है, क्योंक मेरा उक्त दायित्व भी नगण्य ही था. वस्तुतः सामर्थ्यवान लोगों को अपने दायित्व-निर्वाहों हेतु इससे भी कहीं अधिक जघन्य कार्य करने पड़ सकते हैं. यथा सीमा पर तैनात सिपाही को अपने दायित्व निर्वाह हेतु हत्याएं भी करनी पड़ती हैं जो सामान्य परिस्थितियों में दुष्कर्म माना जाता है.
इसी कारण से विशिष्ट रूप से सामर्थ्यवान व्यक्ति अपने दायित्व निर्वाह में कभी यह परवाह नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे. उनकी चिंता बस यह होती है कि उन्हें अपने कर्म से बौद्धिक संतुष्टि हो. ऐसा करते समय कार्य-कलाप महत्वहीन हो जाते हैं और जिसका महत्व होता है वह है कर्मी का मंतव्य. इससे यहे भी स्वतः सिद्ध हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति मंतव्य उसके कर्म से सदैव अधिक महत्वपूर्ण होता है.
रविवार, 30 मई 2010
किशोरावस्था प्रेम, समाज और विधान
मेरे गाँव का एक परिवार नगर में रहता है जो कुछ दिन पूर्व ग्रीष्मावकाश व्यतीत करने गाँव आया था. आगमन के तीसरे दिन उस परिवार की १५ वर्षीय किशोरी एक संध्या में अचानक लुप्त हो गयी. परिवार ने तुरंत मुझसे सहायता माँगी और मैं किशोरी की खोज में लग गया. रात्रि भर आस-पास के खेतों में उसकी खोज की गयी और स्थानीय पुलिस को उसके लुप्त होने की सूचना भी दे दी गयी. किन्तु प्रातःकाल तक उसका कोई सुराग नहीं मिला.
प्रातःकाल में गाँव के एक युवा ने मुझे बताया कि कल शाम दो अपरिचित युवक एक मोटर-सायकिल पर गाँव के आसपास चक्कर लगाते देखे गए थे जिनके पास किसी व्यक्ति का फोन भी आया था. उनके परस्पर वार्तालाप से सूचना देने वाले युवा ने फ़ोन करने वाले व्यक्ति का नाम भी जान लिया था. इस नाम का एक व्यक्ति नगर में किशोरी के पड़ोस में रहता है, ऐसा किशोरी के पिता ने बताया. इस बारे में पुलिस को सूचना दी गयी जहां से एक पुलिस बल मुझे नगर में छापा मार कर किशोरी की खोज के लिए दे दिया गया.
नगर में फ़ोन करने वाले व्यक्ति ने बताया कि उसका किशोरी के लुप्त होने से कोई सम्बन्ध नहीं है किन्तु वह हमें उस घर पर ले गया जहां वह लड़का रहता है जिसको उसने फ़ोन किया था. उस समय घर में केवल स्त्रियाँ थीं और उन्होंने बताया कि उक्त लड़का वहीं रहता है किन्तु उस समय वे उसकी स्थिति के बारे में कुछ नहीं जानतीं. पुलिस ने उन स्त्रियों को लड़के की खोज कर बुलाने के लिए कहा और उनके तलाने पर उन्हें कुछ भयभीत भी किया. इसके बाद हम सब किशोरी के निवास पर आ गए जो पास में ही है.
किशोरी के निवास पर हम अपने अगले कदम का निर्णय ही कर रहे थे कि किशोरी वहां उपस्थित हो गयी. उसने बताया कि वह अपनी इच्छा से अपने मित्र के पास आयी थी. इस प्रकार यह किशोरावस्था का प्रेम सिद्ध हुआ जिसके लिए किशोरी ने इतना बड़ा कदम उठाया था. ऐसे भावुकता भरे सम्बन्ध इस आयु में बहुधा हो जाते हैं जिनमे किशोर-किशोरियों को इनके औचित्य का ज्ञान भी नहीं होता.
जहां एक ओर किशोर-किशोरी अपनी भावुकताओं में विवश हो जाते हैं, वहीं भारतीय विधान इस प्रकार के सम्बन्ध को विवाह में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देता. इसका सटीक कारण यह है कि इस अवस्था में बच्चे अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने में समर्थ नहीं होते और जो इस प्रकार के दुस्साहस दर्शाते हैं वे प्रायः जीवन भर पाश्चाताप करते हैं. यह आयु उनकी शिक्षा को समर्पित होनी चाहिए ताकि वे स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक बन सकें, जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तरों पर विकास के लिए आवश्यक है. इस सर्वोपयोगी आदर्श से परिचित होते हुए भी किशोर-किशोरी ऐसी भूलें करते हैं जिनके परिणाम व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र, सभी के लिए घातक सिद्ध होते हैं.
इस आलेख की रचना का आशय यही है कि हम जानें कि ऐसा क्यों होता है, जो सभी के लिए घातक है. यह प्रकृति का विधान नहीं हो सकता, इसलिए इसका कारण हमारे समाज की कहीं कोई कृत्रिम विकृति है. प्रेम सम्बन्ध में लिप्त लिशोर-किशोरी निश्चित रूप से अपनी शिक्षण प्रक्रिया से विमुख हो जाते हैं. इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शिक्षा से विमुख किशोर-किशोरी ही इस प्रकार के संबंधों में लिप्त होते हैं. बच्चे अपनी शिक्षा के प्रति गंभीर रहें, इसका दायित्व शिक्षकों तथा माता-पिता दोनों का है. आज हम देख रहे हैं कि ये दोनों वर्ग ही अपने इस दायित्व के प्रति गंभीर नहीं हैं. शिक्षक वर्ग तो यह मान कर निश्चिन्त हो जाता है कि उनके छात्रों के भ्रमित होने से उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता. किन्तु माता-पिता और सारे परिवार का भविष्य किशोरों के इस प्रकार के व्यवहार से खतरे में पड़ जाता है. अतः प्राथमिक स्तर पर माता-पिता को ही इसके लिए गंभीर होने की आवश्यकता है.
मैं बहुधा देखता हूँ कि अधिकाँश माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर अधिकाधिक धन व्यय करने के लिए तो तत्पर रहते हैं किन्तु उनके सतत मार्गदर्शन के लिए उनके पास समय नहीं होता या वे इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते. वे असीमित धन और सुख-सुविधाएं जुटाने में इतने लीं रहते हैं कि परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं. इस उदासीनता के कारण उनके बच्चे पथ्भ्रिष्ट हो जाते हैं और उनके जीवन भर की असीमित कमाई भी व्यर्थ चली जाती है. जी हाँ यही है मेरा मंतव्य.
प्रातःकाल में गाँव के एक युवा ने मुझे बताया कि कल शाम दो अपरिचित युवक एक मोटर-सायकिल पर गाँव के आसपास चक्कर लगाते देखे गए थे जिनके पास किसी व्यक्ति का फोन भी आया था. उनके परस्पर वार्तालाप से सूचना देने वाले युवा ने फ़ोन करने वाले व्यक्ति का नाम भी जान लिया था. इस नाम का एक व्यक्ति नगर में किशोरी के पड़ोस में रहता है, ऐसा किशोरी के पिता ने बताया. इस बारे में पुलिस को सूचना दी गयी जहां से एक पुलिस बल मुझे नगर में छापा मार कर किशोरी की खोज के लिए दे दिया गया.
नगर में फ़ोन करने वाले व्यक्ति ने बताया कि उसका किशोरी के लुप्त होने से कोई सम्बन्ध नहीं है किन्तु वह हमें उस घर पर ले गया जहां वह लड़का रहता है जिसको उसने फ़ोन किया था. उस समय घर में केवल स्त्रियाँ थीं और उन्होंने बताया कि उक्त लड़का वहीं रहता है किन्तु उस समय वे उसकी स्थिति के बारे में कुछ नहीं जानतीं. पुलिस ने उन स्त्रियों को लड़के की खोज कर बुलाने के लिए कहा और उनके तलाने पर उन्हें कुछ भयभीत भी किया. इसके बाद हम सब किशोरी के निवास पर आ गए जो पास में ही है.
किशोरी के निवास पर हम अपने अगले कदम का निर्णय ही कर रहे थे कि किशोरी वहां उपस्थित हो गयी. उसने बताया कि वह अपनी इच्छा से अपने मित्र के पास आयी थी. इस प्रकार यह किशोरावस्था का प्रेम सिद्ध हुआ जिसके लिए किशोरी ने इतना बड़ा कदम उठाया था. ऐसे भावुकता भरे सम्बन्ध इस आयु में बहुधा हो जाते हैं जिनमे किशोर-किशोरियों को इनके औचित्य का ज्ञान भी नहीं होता.
जहां एक ओर किशोर-किशोरी अपनी भावुकताओं में विवश हो जाते हैं, वहीं भारतीय विधान इस प्रकार के सम्बन्ध को विवाह में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं देता. इसका सटीक कारण यह है कि इस अवस्था में बच्चे अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने में समर्थ नहीं होते और जो इस प्रकार के दुस्साहस दर्शाते हैं वे प्रायः जीवन भर पाश्चाताप करते हैं. यह आयु उनकी शिक्षा को समर्पित होनी चाहिए ताकि वे स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक बन सकें, जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तरों पर विकास के लिए आवश्यक है. इस सर्वोपयोगी आदर्श से परिचित होते हुए भी किशोर-किशोरी ऐसी भूलें करते हैं जिनके परिणाम व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र, सभी के लिए घातक सिद्ध होते हैं.
इस आलेख की रचना का आशय यही है कि हम जानें कि ऐसा क्यों होता है, जो सभी के लिए घातक है. यह प्रकृति का विधान नहीं हो सकता, इसलिए इसका कारण हमारे समाज की कहीं कोई कृत्रिम विकृति है. प्रेम सम्बन्ध में लिप्त लिशोर-किशोरी निश्चित रूप से अपनी शिक्षण प्रक्रिया से विमुख हो जाते हैं. इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शिक्षा से विमुख किशोर-किशोरी ही इस प्रकार के संबंधों में लिप्त होते हैं. बच्चे अपनी शिक्षा के प्रति गंभीर रहें, इसका दायित्व शिक्षकों तथा माता-पिता दोनों का है. आज हम देख रहे हैं कि ये दोनों वर्ग ही अपने इस दायित्व के प्रति गंभीर नहीं हैं. शिक्षक वर्ग तो यह मान कर निश्चिन्त हो जाता है कि उनके छात्रों के भ्रमित होने से उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता. किन्तु माता-पिता और सारे परिवार का भविष्य किशोरों के इस प्रकार के व्यवहार से खतरे में पड़ जाता है. अतः प्राथमिक स्तर पर माता-पिता को ही इसके लिए गंभीर होने की आवश्यकता है.
मैं बहुधा देखता हूँ कि अधिकाँश माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर अधिकाधिक धन व्यय करने के लिए तो तत्पर रहते हैं किन्तु उनके सतत मार्गदर्शन के लिए उनके पास समय नहीं होता या वे इसे महत्वपूर्ण नहीं समझते. वे असीमित धन और सुख-सुविधाएं जुटाने में इतने लीं रहते हैं कि परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं. इस उदासीनता के कारण उनके बच्चे पथ्भ्रिष्ट हो जाते हैं और उनके जीवन भर की असीमित कमाई भी व्यर्थ चली जाती है. जी हाँ यही है मेरा मंतव्य.
भारत का मनोवैज्ञानिक यथार्थ
भारतीय समाज के बारे में सार्थक कार्य करने वाला कोई भी समाज शास्त्री भारत के मनोवैज्ञानिक यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकता. इसलिए भारतीय समाज पर बौद्धिक जनतंत्र की अवधारणा स्थापित करने से पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम भारतीय समाज के मनोवैज्ञानिक यथार्थ का विश्लेषात्मक अध्ययन करें और इसे अच्छी तरह जानें. भारी समाज पूर्ण अथवा आंशिक रूप में गुप्त वंश के शासन के बाद १९४७ तक लगभग १६०० वर्ष विदेशी लोगों के अधीन रहा है. १९४७ में तथाकथित स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी यह समाज अंग्रेज़ी शासन की रीति-नीतियों - प्रशासनिक सेवा के स्थान पर दमन, उधर के सिन्दूर जैसा संविधान, शासक वर्ग के अनुपम वैभव, शासक-शासित वृहत अंतराल, आदि के अंतर्गत पिस रहा है.
इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दीं-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.
उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं.
इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे.
प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते. वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.
इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दीं-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.
उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं.
इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे.
प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते. वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.
शनिवार, 29 मई 2010
महाभारत युद्ध के बाद विष्णु
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध के बाद विष्णु
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की पराजय तो हुई ही इसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध योद्धा भी मारे गए. इसका सभी को दुःख था सिवाय कृष्ण के, क्योंकि यह परिणाम उसी के मनोनुकूल था. युद्ध में विष्णु, जो शकुनि के रूप में उपस्थित थे, को बंदी बना लिया गया तथा उनके अंडकोष काट डाले गए. इस विशेष दंड का एक विशेष कारण था. विष्णु और यीशु के अतिरिक्त सभी प्रमुख देव मारे जा चुके थे जिससे देव कुल नष्ट होने की संभावना थी. इसे सुनिश्चित करने के लिए परसंतापी कृष्ण ने विष्णु के अंडकोष काटकर उन्हें नपुंसक बनाने का प्रयास किया था.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
महाभारत युद्ध में विजय के बाद कृष्ण और सिकंदर ने यहूदी वंश के महापद्मानंद को भारत के सम्राट पद पर स्थापित किया, किन्तु जिन पांडवों के नाम पर महाभारत युद्ध रचा गया था उन्हें राज्य में कोई हिस्सा नहीं दिया गया तथा कृष्ण ने उन्हें हिमालय में भटकने और नष्ट हो जाने के लिए प्रेरित कर दिया. इस प्रकार कृष्ण ने भारत के साथ ही नहीं अपने अनुयायी पांडवों के साथ भी छल किया.
युद्ध के बाद विष्णु गुप्त रहने के लिए पाराशर ऋषि के रूप में रहने लगे और राजस्थान के अलवर जनपद में सरस्वती तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे. यह आश्रम आज भी विद्यमान है जो एक पहाडी की घाटी में स्थित है. यहीं रहकर उन्होंने 'होरा शास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की जो सूर्य की गति के आधार पर समय-मापन के बारे में है. 'होरा' शब्द का वास्तविक अर्थ सूर्य है जिसके कारण काल संचालित होता है, इसलिए इस शब्द को 'समय' के भाव में भी उपयोग किया गया है. किन्तु आधुनिक पंडितों ने इसके माध्यम से अपने छल 'फलित ज्योतिष' को प्रसिद्ध किया है और इस ग्रन्थ को इसी विषय को समर्पित बताया जा रहा है. यहाँ भी स्पष्ट कर दें कि भारत का मौलिक काल चक्र सूर्य आधारित है जब कि यवन समुदाय काल निधारण के लिए चन्द्र को आधार बनाता रहा हैं.
उक्त आश्रम में रहते हुए ही विष्णु ने अपने अन्डकोशों की चिकित्सा की जिसके लिए पारद भस्म तैयार कर उसे औषधि के रूप में उपयोग किया गया. आश्रम के ऊपर पहाडी पर आज भी इसका प्रमाण उपस्थित है. इस चिकित्सा से स्वस्थ होने के बाद विष्णु ने यीशु की बड़ी बहिन मरियम से विवाह किया ताकि देव संतति सतत बनी रहे. इस विवाह के बाद मरियम देवी लक्ष्मी, विष्णुप्रिया, आदि नामों से जानी जाने लगीं. देवी दुर्गा तथा काली भी इन्हीं के छद्म रूप थे.
कालांतर में देवी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आरम्भ में गोपीचंद और बाद में 'चन्द्रगुप्त' रखा गया. विष्णु ने एक और छद्म रूप धारण किया और इसके लिए अपना नाम 'विष्णुगुप्त चाणक्य' रखा. इस नाम में शब्द 'चाणक्य' इसलिए जोड़ा गया कि उन्हें सदैव याद रहे कि उनके अंडकोष (आण) काटे गए थे और वे इसका प्रतिशोध लेने के लिए संकल्पित रहें. इनका साथ देने के लिए यीशु ने अपना नाम 'चित्रगुप्त' रखा. चित्रगुप्त रूप में आने से पूर्व यीशु गणेश के रूप में थे, जिसका प्रमाण खजुराहो के चित्रगुप्त मंदिर में उनके गणेश रूप की भी प्रतिमा है जिसे ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है. विष्णुगुप्त से गुप्त वंश का आरम्भ हुआ तथा चित्रगुप्त से कायस्थ जाति का उदय हुआ. यहाँ शब्द 'चित्र' एवं कायस्थ यीशु के नाम क्राइस्ट के ही परिवर्तित रूप हैं. भारत का सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग 'कायस्थ' यीशु का ही वंश है.
विष्णुगुप्त और चित्रगुप्त दोनों ने मिलकर देवी लक्ष्मी के साथ चन्द्रगुप्त का लालन-पालन किया और उसे भारत का सम्राट बनाने हेतु शिक्षित एवं दीक्षित बनाया. इसी अवधि में महापद्मानंद के विरुद्ध अनेक स्थानीय विद्रोह नियोजित कराये गए और अंततः उसकी हत्या के बाद चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया गया. उसने अपनी माता मरियम को सम्मानित करने के लिए अपना उपनाम 'मोर्य' रखा. चन्द्रगुप्त मोर्य भारत में गुप्त वंश के शासन का प्रथम सम्राट बना. यहीं से विष्णुगुप्त और चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शन में भारत को 'सोने की चिड़िया' बनाने के सफल प्रयास किये गए.
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