कृत्रिम रूप से जन्म करते जाने के कारण अपने काल का सर्वाधिक क्रूर और चालाक व्यक्ति था. उसका तुलनीय दुष्ट व्यक्ति न कभी पहले कभी उत्पन्न हुआ और न ही उसके बाद से अब तक. ऐसा व्यक्ति कृत्रिम विधि-विधान से विश्व पर शासन करने की महत्वाकांक्षा के लिए उत्पन्न किया गया था. तत्कालीन विश्व में भारत ही सर्वाधिक विशाल समतल भू क्षेत्र था जो विकास पथ पर तीव्रता से आगे बढ़ रहा था. यद्यपि सभ्यता और विकास की दृष्टि से ग्रीस में एथेंस तत्कालीन भारत से आगे था किन्तु इसका क्षेत्रफल भारत की तुलना में नगण्य था, इसलिए उस पर तो कभी भी अधिकार स्थापित किया जा सकता था.
ऐसे स्थिति में भारत पर शासन करना विश्व पर शासन करने का आरम्भ बिंदु हो सकता था, यही प्लेटो की सोच थी जिसके लिए उसने पहले एक यहूदी परिवार भारत भेजा और फिर उस परिवार में कृष्ण का जन्म कराया - एक बैंगनी रंग के शिशु के रूप में, जैसा रंग किसी शिशु का पहले कभी नहीं रहा था. इस विशिष्टता और अनेक विशिष्ट प्रशिक्षणों द्वारा कृष्ण को अद्भुत नाटक-कार बना दिया जिसके बल पर उसे ईश्वर का रूप सिद्ध कर दिया गया. इसी कृष्ण ने महाभारत युद्ध की रूपरेखा बनायी जिसमें उसने तत्कालीन विश्व के सभी राजाओं को समेट लिया - कुछ पक्ष में तथा कुछ विपक्ष में, ताकि सभी की परस्पर हत्या कराई जा सके और कृष्ण विश्व पर शासन स्थापित कर सके.
युद्ध के लिए 'पांडवों को राज्य में हिस्सा दिलवाने' का बहाना बनाया गया. पांडव चूंकि कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं, इसलिए सभ्य एवं कुलीन देव तथा आर्य इसके लिए तैयार न थे, तथापि वृद्धजनों के आदेश पर उन्हें राज्य में भागीदारी दे दी गयी. किन्तु वे राज्य के संचालन एवं इसकी रक्षा करने में पूर्णतः असमर्थ थे, इस कारण से वे इसे जुए में हार गए. यहाँ तक कि मूर्ख पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी को भी एक निर्जीव संपत्ति के रूप में जुए के दांव पर लगा दिया और वे उसे भी हार गए. स्त्री जाति का इससे भीषण अपमान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी देखा गया है.
कृष्ण पांडवों का सतत पथप्रदर्शक था तथापि उन्होंने राज्य जुए में खो दिया, इसमें कृष्ण का आशय महाभारत युद्ध कराना ही था, अन्यथा युद्ध की कोई संभावना नहीं थी. युद्ध के लिए विदुर के माध्यम से सिकंदर को आमंत्रित करना भी कृष्ण की युद्ध की योजना का ही एक अंग था.
युद्ध में जय-पराजय का पूर्वाकलन करना पूरी ताः संभव नहीं होता, इसलिए कृष्ण कदापि अपना जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की. वह जानता था कि सभ्य एवं शिष्ट देव और आर्य कदापि निःशस्त्र पर शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे और वह युद्ध की विभीषिका में भी सुरक्षित बना रहेगा. साथ ही उसने उदध इतना व्यापक बना दिया जिससे भूमंडल पर उसका कोई प्रतिद्वंदी शेष न रहे.
युद्ध आरम्भ होने के अंतिम समय पर युद्ध टालने के लिए अर्जुन ने पूरा प्रयास किया और उसने युद्ध की विभीषिका को समझते हुए किसी भी मूल्य पर युद्ध न करने की ठान ली. किन्तु कृष्ण ने अपनी योजना असफल होते देख अपनी पूरी शक्ति अर्जुन को भ्रमित करने में लगा दी. उसने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई और उसे युद्ध ही उसका धर्म बताया. किन्तु उसने आचार्य ड्रोन को यह नहीं बताया कि वे ब्रह्मण थे, और युद्ध उनका धर्म नहीं था. उसने स्वयं को यह पाठ नहीं पढाया कि जब वह अन्य लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है तो स्वयं भी इसमे सशस्त्र सम्मिलित होना चाहिए. सारथी के निकृष्ट कार्य करते हुए अमानी कायरता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए. अंततः कृष्ण अपने दुश्चक्र में सफल रहा और युद्ध हुआ.
युद्ध का परिणाम कृष्ण की आशाओं के अनुकूल ही रहा, उसमें विश्व के सभी योद्धा खेत रहे, शेष बचा तो कृष्ण और पांडव, तथा कुछ अन्य जिनमें विष्णु और सिकंदर भी सम्मिलित थे. पांडवों को राज्य दिलाने के बहाने से युद्ध नियोजित किया गया था किन्तु युद्ध में विजय के बाद भी राज्य पांडवों को नहीं सौंपा गया, सिकंदर और कृष्ण के परामर्श से यहूदी वंश के उत्तरिधिकारी महापद्मानंद को भारत भूमि का सम्राट बनाया गया. युद्ध के बाद सिकंदर भारत से बेबीलोन गया और ज्ञात विश्व इतिहास के अनुसार उसके कुछ समय बाद वहीं मर गया.
रविवार, 16 मई 2010
महाभारत युद्ध का कारण और परिणाम
कृत्रिम रूप से जन्म करते जाने के कारण अपने काल का सर्वाधिक क्रूर और चालाक व्यक्ति था. उसका तुलनीय दुष्ट व्यक्ति न कभी पहले कभी उत्पन्न हुआ और न ही उसके बाद से अब तक. ऐसा व्यक्ति कृत्रिम विधि-विधान से विश्व पर शासन करने की महत्वाकांक्षा के लिए उत्पन्न किया गया था. तत्कालीन विश्व में भारत ही सर्वाधिक विशाल समतल भू क्षेत्र था जो विकास पथ पर तीव्रता से आगे बढ़ रहा था. यद्यपि सभ्यता और विकास की दृष्टि से ग्रीस में एथेंस तत्कालीन भारत से आगे था किन्तु इसका क्षेत्रफल भारत की तुलना में नगण्य था, इसलिए उस पर तो कभी भी अधिकार स्थापित किया जा सकता था.
ऐसे स्थिति में भारत पर शासन करना विश्व पर शासन करने का आरम्भ बिंदु हो सकता था, यही प्लेटो की सोच थी जिसके लिए उसने पहले एक यहूदी परिवार भारत भेजा और फिर उस परिवार में कृष्ण का जन्म कराया - एक बैंगनी रंग के शिशु के रूप में, जैसा रंग किसी शिशु का पहले कभी नहीं रहा था. इस विशिष्टता और अनेक विशिष्ट प्रशिक्षणों द्वारा कृष्ण को अद्भुत नाटक-कार बना दिया जिसके बल पर उसे ईश्वर का रूप सिद्ध कर दिया गया. इसी कृष्ण ने महाभारत युद्ध की रूपरेखा बनायी जिसमें उसने तत्कालीन विश्व के सभी राजाओं को समेट लिया - कुछ पक्ष में तथा कुछ विपक्ष में, ताकि सभी की परस्पर हत्या कराई जा सके और कृष्ण विश्व पर शासन स्थापित कर सके.
युद्ध के लिए 'पांडवों को राज्य में हिस्सा दिलवाने' का बहाना बनाया गया. पांडव चूंकि कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं, इसलिए सभ्य एवं कुलीन देव तथा आर्य इसके लिए तैयार न थे, तथापि वृद्धजनों के आदेश पर उन्हें राज्य में भागीदारी दे दी गयी. किन्तु वे राज्य के संचालन एवं इसकी रक्षा करने में पूर्णतः असमर्थ थे, इस कारण से वे इसे जुए में हार गए. यहाँ तक कि मूर्ख पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी को भी एक निर्जीव संपत्ति के रूप में जुए के दांव पर लगा दिया और वे उसे भी हार गए. स्त्री जाति का इससे भीषण अपमान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी देखा गया है.
कृष्ण पांडवों का सतत पथप्रदर्शक था तथापि उन्होंने राज्य जुए में खो दिया, इसमें कृष्ण का आशय महाभारत युद्ध कराना ही था, अन्यथा युद्ध की कोई संभावना नहीं थी. युद्ध के लिए विदुर के माध्यम से सिकंदर को आमंत्रित करना भी कृष्ण की युद्ध की योजना का ही एक अंग था.
युद्ध में जय-पराजय का पूर्वाकलन करना पूरी ताः संभव नहीं होता, इसलिए कृष्ण कदापि अपना जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की. वह जानता था कि सभ्य एवं शिष्ट देव और आर्य कदापि निःशस्त्र पर शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे और वह युद्ध की विभीषिका में भी सुरक्षित बना रहेगा. साथ ही उसने उदध इतना व्यापक बना दिया जिससे भूमंडल पर उसका कोई प्रतिद्वंदी शेष न रहे.
युद्ध आरम्भ होने के अंतिम समय पर युद्ध टालने के लिए अर्जुन ने पूरा प्रयास किया और उसने युद्ध की विभीषिका को समझते हुए किसी भी मूल्य पर युद्ध न करने की ठान ली. किन्तु कृष्ण ने अपनी योजना असफल होते देख अपनी पूरी शक्ति अर्जुन को भ्रमित करने में लगा दी. उसने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई और उसे युद्ध ही उसका धर्म बताया. किन्तु उसने आचार्य ड्रोन को यह नहीं बताया कि वे ब्रह्मण थे, और युद्ध उनका धर्म नहीं था. उसने स्वयं को यह पाठ नहीं पढाया कि जब वह अन्य लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है तो स्वयं भी इसमे सशस्त्र सम्मिलित होना चाहिए. सारथी के निकृष्ट कार्य करते हुए अमानी कायरता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए. अंततः कृष्ण अपने दुश्चक्र में सफल रहा और युद्ध हुआ.
युद्ध का परिणाम कृष्ण की आशाओं के अनुकूल ही रहा, उसमें विश्व के सभी योद्धा खेत रहे, शेष बचा तो कृष्ण और पांडव, तथा कुछ अन्य जिनमें विष्णु और सिकंदर भी सम्मिलित थे. पांडवों को राज्य दिलाने के बहाने से युद्ध नियोजित किया गया था किन्तु युद्ध में विजय के बाद भी राज्य पांडवों को नहीं सौंपा गया, सिकंदर और कृष्ण के परामर्श से यहूदी वंश के उत्तरिधिकारी महापद्मानंद को भारत भूमि का सम्राट बनाया गया. युद्ध के बाद सिकंदर भारत से बेबीलोन गया और ज्ञात विश्व इतिहास के अनुसार उसके कुछ समय बाद वहीं मर गया.
ऐसे स्थिति में भारत पर शासन करना विश्व पर शासन करने का आरम्भ बिंदु हो सकता था, यही प्लेटो की सोच थी जिसके लिए उसने पहले एक यहूदी परिवार भारत भेजा और फिर उस परिवार में कृष्ण का जन्म कराया - एक बैंगनी रंग के शिशु के रूप में, जैसा रंग किसी शिशु का पहले कभी नहीं रहा था. इस विशिष्टता और अनेक विशिष्ट प्रशिक्षणों द्वारा कृष्ण को अद्भुत नाटक-कार बना दिया जिसके बल पर उसे ईश्वर का रूप सिद्ध कर दिया गया. इसी कृष्ण ने महाभारत युद्ध की रूपरेखा बनायी जिसमें उसने तत्कालीन विश्व के सभी राजाओं को समेट लिया - कुछ पक्ष में तथा कुछ विपक्ष में, ताकि सभी की परस्पर हत्या कराई जा सके और कृष्ण विश्व पर शासन स्थापित कर सके.
युद्ध के लिए 'पांडवों को राज्य में हिस्सा दिलवाने' का बहाना बनाया गया. पांडव चूंकि कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं, इसलिए सभ्य एवं कुलीन देव तथा आर्य इसके लिए तैयार न थे, तथापि वृद्धजनों के आदेश पर उन्हें राज्य में भागीदारी दे दी गयी. किन्तु वे राज्य के संचालन एवं इसकी रक्षा करने में पूर्णतः असमर्थ थे, इस कारण से वे इसे जुए में हार गए. यहाँ तक कि मूर्ख पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी को भी एक निर्जीव संपत्ति के रूप में जुए के दांव पर लगा दिया और वे उसे भी हार गए. स्त्री जाति का इससे भीषण अपमान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी देखा गया है.
कृष्ण पांडवों का सतत पथप्रदर्शक था तथापि उन्होंने राज्य जुए में खो दिया, इसमें कृष्ण का आशय महाभारत युद्ध कराना ही था, अन्यथा युद्ध की कोई संभावना नहीं थी. युद्ध के लिए विदुर के माध्यम से सिकंदर को आमंत्रित करना भी कृष्ण की युद्ध की योजना का ही एक अंग था.
युद्ध में जय-पराजय का पूर्वाकलन करना पूरी ताः संभव नहीं होता, इसलिए कृष्ण कदापि अपना जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की. वह जानता था कि सभ्य एवं शिष्ट देव और आर्य कदापि निःशस्त्र पर शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे और वह युद्ध की विभीषिका में भी सुरक्षित बना रहेगा. साथ ही उसने उदध इतना व्यापक बना दिया जिससे भूमंडल पर उसका कोई प्रतिद्वंदी शेष न रहे.
युद्ध आरम्भ होने के अंतिम समय पर युद्ध टालने के लिए अर्जुन ने पूरा प्रयास किया और उसने युद्ध की विभीषिका को समझते हुए किसी भी मूल्य पर युद्ध न करने की ठान ली. किन्तु कृष्ण ने अपनी योजना असफल होते देख अपनी पूरी शक्ति अर्जुन को भ्रमित करने में लगा दी. उसने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई और उसे युद्ध ही उसका धर्म बताया. किन्तु उसने आचार्य ड्रोन को यह नहीं बताया कि वे ब्रह्मण थे, और युद्ध उनका धर्म नहीं था. उसने स्वयं को यह पाठ नहीं पढाया कि जब वह अन्य लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है तो स्वयं भी इसमे सशस्त्र सम्मिलित होना चाहिए. सारथी के निकृष्ट कार्य करते हुए अमानी कायरता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए. अंततः कृष्ण अपने दुश्चक्र में सफल रहा और युद्ध हुआ.
युद्ध का परिणाम कृष्ण की आशाओं के अनुकूल ही रहा, उसमें विश्व के सभी योद्धा खेत रहे, शेष बचा तो कृष्ण और पांडव, तथा कुछ अन्य जिनमें विष्णु और सिकंदर भी सम्मिलित थे. पांडवों को राज्य दिलाने के बहाने से युद्ध नियोजित किया गया था किन्तु युद्ध में विजय के बाद भी राज्य पांडवों को नहीं सौंपा गया, सिकंदर और कृष्ण के परामर्श से यहूदी वंश के उत्तरिधिकारी महापद्मानंद को भारत भूमि का सम्राट बनाया गया. युद्ध के बाद सिकंदर भारत से बेबीलोन गया और ज्ञात विश्व इतिहास के अनुसार उसके कुछ समय बाद वहीं मर गया.
लेबल:
कृष्ण छल,
पांडव,
महाभारत युद्ध,
विष्णु,
सिकंदर
शनिवार, 15 मई 2010
आदर्शवादिता और व्यावहारिकता
जन साधारण की मान्यता है कि आदर्शवादिता और व्यावहारिकता में ध्रुवीय अंतराल होता है और दोनों का समन्वय संभव नहीं हो सकता. महामानवीय दृष्टिकोण इससे भिन्न है जिसके अनुसार आदर्शवादिता व्यावहारिकता की कोटि का मानदंड होता है. जिसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का लक्ष्य आदर्श के निकटतम पहुँचने का प्रयास करना चाहिए, यह निकटता ही उसकी सफलता होती है.
प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म हेतु एक आदर्श होना चाहिए, और उसे इसके लिए प्रयास करने चाहिए. यद्यपि व्यक्ति की परिस्थितियां प्रायः इसमें बाधक होती हैं, तथापि उसका प्रयास होना चाहिए कि वह परिस्थितियों पर विजय पाए और आदर्श स्थिति की प्राप्ति करे. इस प्रयास में उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि परिस्थितियां उसके नियंत्रण में नहीं होतीं, क्योंकि इनका निर्माण पूर्वकाल में होता है, और ये पूरे सामाजिक परिपेक्ष्य पर निर्भर करती हैं. व्यक्ति का न तो पूर्व कालपर कोई नियंत्रण होता है और ना ही सामाजिक परिपेक्ष्य पर. इस कारण से व्यक्ति यदि अपने आदर्श की प्राप्ति नहीं कर पाता है, तो उसे इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए क्योंकि इसमें उसका कोई दोष नहीं होता.
आदर्श और व्यवहार में परिस्तितिवश अंतर बने रहने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि व्यक्ति इस अंतराल को अपना भाग्य स्वीकार कर ले और इसे मिटने के कोई प्रयास ही न करे, जैसा कि प्रायः साधारण मनुष्य करते हैं. इसी कारण से जन-साधारण के कोई आदर्श ही नहीं होते क्योंकि इसे वे अप्राप्य मानकर इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते. यह साधारण और असाधारण मनुष्यों में स्पष्ट अंतराल होता है.
इस कारण से प्रत्येक असाधारण व्यक्ति का सदैव एक लक्ष्य होता है जो उसके उस विषयक आदर्श से उत्प्रेरित होता है. उसका प्रयास लक्ष्य की प्राप्ति होता है, चाहे वह जन साधारण की दृष्टि में कितना भी अव्यवहारिक प्रतीत न हो. उसकी दृष्टि सदैव उसी लक्ष्य पर स्थिर होती है.
परिस्थितिवश किसी आदर्श स्थिति के अप्राप्य होने अर्थ यह कदापि नहीं है कि आदर्श निरर्थक है. इसका अर्थ यह है कि परिस्थितियां विकृत हो गयीं हैं जिनके संशोधन प्रयासों की आवश्यकाता है. अतः असाधारण व्यक्ति अपने आदर्श प्राप्ति के प्रयासों के साथ-साथ परिस्थितियों के संशोधन के बी प्रयास करता है. यही उसकी असधारानता अथवा महामानवता होती है.
प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म हेतु एक आदर्श होना चाहिए, और उसे इसके लिए प्रयास करने चाहिए. यद्यपि व्यक्ति की परिस्थितियां प्रायः इसमें बाधक होती हैं, तथापि उसका प्रयास होना चाहिए कि वह परिस्थितियों पर विजय पाए और आदर्श स्थिति की प्राप्ति करे. इस प्रयास में उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि परिस्थितियां उसके नियंत्रण में नहीं होतीं, क्योंकि इनका निर्माण पूर्वकाल में होता है, और ये पूरे सामाजिक परिपेक्ष्य पर निर्भर करती हैं. व्यक्ति का न तो पूर्व कालपर कोई नियंत्रण होता है और ना ही सामाजिक परिपेक्ष्य पर. इस कारण से व्यक्ति यदि अपने आदर्श की प्राप्ति नहीं कर पाता है, तो उसे इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए क्योंकि इसमें उसका कोई दोष नहीं होता.
आदर्श और व्यवहार में परिस्तितिवश अंतर बने रहने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि व्यक्ति इस अंतराल को अपना भाग्य स्वीकार कर ले और इसे मिटने के कोई प्रयास ही न करे, जैसा कि प्रायः साधारण मनुष्य करते हैं. इसी कारण से जन-साधारण के कोई आदर्श ही नहीं होते क्योंकि इसे वे अप्राप्य मानकर इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते. यह साधारण और असाधारण मनुष्यों में स्पष्ट अंतराल होता है.
इस कारण से प्रत्येक असाधारण व्यक्ति का सदैव एक लक्ष्य होता है जो उसके उस विषयक आदर्श से उत्प्रेरित होता है. उसका प्रयास लक्ष्य की प्राप्ति होता है, चाहे वह जन साधारण की दृष्टि में कितना भी अव्यवहारिक प्रतीत न हो. उसकी दृष्टि सदैव उसी लक्ष्य पर स्थिर होती है.
परिस्थितिवश किसी आदर्श स्थिति के अप्राप्य होने अर्थ यह कदापि नहीं है कि आदर्श निरर्थक है. इसका अर्थ यह है कि परिस्थितियां विकृत हो गयीं हैं जिनके संशोधन प्रयासों की आवश्यकाता है. अतः असाधारण व्यक्ति अपने आदर्श प्राप्ति के प्रयासों के साथ-साथ परिस्थितियों के संशोधन के बी प्रयास करता है. यही उसकी असधारानता अथवा महामानवता होती है.
बौद्धिकता का सत्तारोहण
बौद्धिक जनतंत्र मूलतः देश की बैद्धिकता का सम्मान है. भारत की लगभग २५ प्रतिशत जनसँख्या बौद्धिक है जिन का केवल २० प्रतिशत अर्थात कुल जनसँख्या का ५ प्रतिशत, किसी न किसी रूप में राज्य सेवा में संलग्न है, शेष ८० प्रतिशत, कुल जनसँख्या का २० प्रतिशत, स्वतंत्र रूप से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे रहा है. इस स्वतंत्र बौद्धिक वर्ग का, जो समस्त भारत में तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में फैला है, का कोई अन्य वर्ग मुकाबला करने में समर्थ नहीं है. अतः यह वर्ग देश का सर्वाधिक प्रबल वर्ग है, अंतर केवल इतना है कि इसे कोई राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं है और न ही राज्य व्यवस्था में इसका उपयोग किया जा रहा है.
यह बौद्धिक वर्ग देश के व्यवसाय का संचालन कर अर्थ व्यवस्था में अपना योगदान दे रहा है, शिक्षा और स्वास्थ सेवाएँ इसके बल पर चल रही हैं, न्याय व्यवस्था और प्रशासन में इसका सतत योगदान है, विज्ञानं और तकनीकी इसी के आश्रित है, साहित्य एवं जन-माध्यम पर इसका अधिकार है, और कला और दस्तकारी इसके बल पर विकासशील हैं. सभी क्षेत्रों में बौद्धिक वर्ग का योगदान है तथापि राजनेता इनके कार्यों का श्री स्वयं लेते हैं और इस वर्ग को राष्ट्र धारा से अलग-थलग रखने का प्रयास करते रहते हैं. इस प्रकार राजनेता बौद्धिक वर्ग का शोषण कर रहे हैं.
कुछ समय पूर्व तक राजनेता असामाजिक तत्वों का शोषण करते थे और उनके बल पर राजनैतिक सत्ता प्राप्त करते थे. जब इन असामाजिक तत्वों ने इसे जाना तो वे स्वयं राजनेता बन बैठे और सत्तासीन हो गए. आज यही असामाजिक तत्व राजनेता बन बौद्धिक वर्ग का शोषण कर रहे हैं.
अब समय आ गया है बौद्धिक वर्ग अपनी सामर्थ को पहचाने और देश की सत्ता पर अधिकार करे. बौद्धिक वर्ग वर्तमान सत्तासीन राजनेता वर्ग की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली है, कहीं अधिक साधन-संपन्न है, जनसँख्या में अधिक बड़ा है, बुद्धि-संपन्न है, और सर्वोपरि स्वयं-सिद्ध है. इस वर्ग को जागृत होने की आवश्यकता है त्ताकी देश की राजसत्ता पर इसका अधिकार स्थापित हो.
जैसा कि ऊपर कहा गया है, बौद्धिक वर्ग देश की जनसँख्या का लगभग २५ प्रतिशत है, जिसमें इंजिनियर, डॉक्टर, एडवोकेट , वैज्ञानिक, पत्रकार, आदि प्रबुद्ध व्यवसायिक लोग सम्मिलित हैं. किन्तु इनमें से २० प्रतिशत, देश की जनसँख्या का ५ प्रतिशत, राज्यकर्मियों के रूप में राजनेताओं के चंगुल में फंसे हैं जब कि राजनेताओं की कुल जनसँख्या केवल ५ प्रतिशत है. ये राजनेता देश के आर्थिक विकास का श्री लेते हैं और उसके बल पर अपने भृष्ट आचरणों से धनवान होते जा रहे हैं जिसके बल पर देश की राजनैतिक सत्ता पर अधिकार बनाये रहते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि देश का बौद्धिक वर्ग संगठित न होकर बुरी तरह विभाजित है.
ऐतिहासिक दृष्टि से बौद्धिक वर्ग लगभग एक दर्ज़न संस्कृतियों की उपज है जो विश्व भर में फ़ैली हैं. इस प्रकार बौद्धिक वर्ग की व्यापकता सर्वाधिक है. इस के कारण यह वर्ग विश्व की किसी भी समस्या को सरलता से सुलझा सकता है. तथापि इस वर्ग में भी कुछ लोग रक्त दोष से ग्रसित हैं, जो विश्वसनीय नहीं हैं. यह भारत के लोगों को और उनकी समस्याओं को अपनी व्यापकता, लोगों के साथ घनिष्ठ संबंधों, लोगों द्वारा अपनी बौद्धिकता के सम्मान के कारण अच्छी तरह पहचानता है. इसलिए जन साधारण इनका प्राकृत रूप से समर्थक है, और इनके जागृत होकर प्रयास करने पर इन्हें सत्तासीन कर देगा.
बौद्धिक वर्ग की श्रेष्ठताएँ सर्व विदित हैं, किन्तु इसकी कुछ निर्बलताएँ भी हैं. इस वर्ग में से अनेक लोग किसी संघर्ष में सक्रिय होने में रूचि नहीं रखते, इसलिए प्रस्तावित मनोवैज्ञानिक युद्ध में भी उनकी कोई रूचि नहीं होगी. दूसरे, इस वर्ग के कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों वश विरोधी राजनेताओं के चंगुल में फंस कर उनका समर्थन करने लगेंगे. इस प्रकार इस वर्ग के मध्य ही संघर्ष छिड़ जाएगा.
मूल रूप में, बौद्धिकता वर्त्तमान स्थिति में सुधार करना है, जिसके अनेक माध्यम हो सकते हैं - यथा सामाजिक, वैज्ञानिक, राजनैतिक, आदि. इस कारण से सभी बौद्धिक लोग किसी एक मार्ग पर कदापि सहमत नहीं होते, यद्यपि उन सभी के मंतव्य शुभ होते हैं, और लक्ष्य भी एक हो सकता है. यह बौद्धिक वर्ग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्बलता है. बौद्धिक लोगों को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना होगा और एक दूसरे के दृष्टिकोण का सम्मान करना होगा. यह तभी संभव है जब सभी बौद्धिक लोग अपना ध्यान देश के लिए दूसरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लक्ष्य पर केन्द्रित करें.
बौद्धिक वर्ग के विभाजन का एक बड़ा कारण यह है कि इस वर्ग की भूल जनसँख्या रचनात्मक कार्यों में लगी है, किन्तु एक दूसरे के रचनात्मक कार्यों के अध्ययन हेतु समय प्रदान नहीं करती, इस कारण से एक दूसरे के कार्य के बारे में अनभिज्ञ रहती है. इसके निवारण के लिए इस वर्ग के लोगों को पारस्परिक अध्ययन करने होंगे.
यह बौद्धिक वर्ग देश के व्यवसाय का संचालन कर अर्थ व्यवस्था में अपना योगदान दे रहा है, शिक्षा और स्वास्थ सेवाएँ इसके बल पर चल रही हैं, न्याय व्यवस्था और प्रशासन में इसका सतत योगदान है, विज्ञानं और तकनीकी इसी के आश्रित है, साहित्य एवं जन-माध्यम पर इसका अधिकार है, और कला और दस्तकारी इसके बल पर विकासशील हैं. सभी क्षेत्रों में बौद्धिक वर्ग का योगदान है तथापि राजनेता इनके कार्यों का श्री स्वयं लेते हैं और इस वर्ग को राष्ट्र धारा से अलग-थलग रखने का प्रयास करते रहते हैं. इस प्रकार राजनेता बौद्धिक वर्ग का शोषण कर रहे हैं.
कुछ समय पूर्व तक राजनेता असामाजिक तत्वों का शोषण करते थे और उनके बल पर राजनैतिक सत्ता प्राप्त करते थे. जब इन असामाजिक तत्वों ने इसे जाना तो वे स्वयं राजनेता बन बैठे और सत्तासीन हो गए. आज यही असामाजिक तत्व राजनेता बन बौद्धिक वर्ग का शोषण कर रहे हैं.
अब समय आ गया है बौद्धिक वर्ग अपनी सामर्थ को पहचाने और देश की सत्ता पर अधिकार करे. बौद्धिक वर्ग वर्तमान सत्तासीन राजनेता वर्ग की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली है, कहीं अधिक साधन-संपन्न है, जनसँख्या में अधिक बड़ा है, बुद्धि-संपन्न है, और सर्वोपरि स्वयं-सिद्ध है. इस वर्ग को जागृत होने की आवश्यकता है त्ताकी देश की राजसत्ता पर इसका अधिकार स्थापित हो.
जैसा कि ऊपर कहा गया है, बौद्धिक वर्ग देश की जनसँख्या का लगभग २५ प्रतिशत है, जिसमें इंजिनियर, डॉक्टर, एडवोकेट , वैज्ञानिक, पत्रकार, आदि प्रबुद्ध व्यवसायिक लोग सम्मिलित हैं. किन्तु इनमें से २० प्रतिशत, देश की जनसँख्या का ५ प्रतिशत, राज्यकर्मियों के रूप में राजनेताओं के चंगुल में फंसे हैं जब कि राजनेताओं की कुल जनसँख्या केवल ५ प्रतिशत है. ये राजनेता देश के आर्थिक विकास का श्री लेते हैं और उसके बल पर अपने भृष्ट आचरणों से धनवान होते जा रहे हैं जिसके बल पर देश की राजनैतिक सत्ता पर अधिकार बनाये रहते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि देश का बौद्धिक वर्ग संगठित न होकर बुरी तरह विभाजित है.
ऐतिहासिक दृष्टि से बौद्धिक वर्ग लगभग एक दर्ज़न संस्कृतियों की उपज है जो विश्व भर में फ़ैली हैं. इस प्रकार बौद्धिक वर्ग की व्यापकता सर्वाधिक है. इस के कारण यह वर्ग विश्व की किसी भी समस्या को सरलता से सुलझा सकता है. तथापि इस वर्ग में भी कुछ लोग रक्त दोष से ग्रसित हैं, जो विश्वसनीय नहीं हैं. यह भारत के लोगों को और उनकी समस्याओं को अपनी व्यापकता, लोगों के साथ घनिष्ठ संबंधों, लोगों द्वारा अपनी बौद्धिकता के सम्मान के कारण अच्छी तरह पहचानता है. इसलिए जन साधारण इनका प्राकृत रूप से समर्थक है, और इनके जागृत होकर प्रयास करने पर इन्हें सत्तासीन कर देगा.
बौद्धिक वर्ग की श्रेष्ठताएँ सर्व विदित हैं, किन्तु इसकी कुछ निर्बलताएँ भी हैं. इस वर्ग में से अनेक लोग किसी संघर्ष में सक्रिय होने में रूचि नहीं रखते, इसलिए प्रस्तावित मनोवैज्ञानिक युद्ध में भी उनकी कोई रूचि नहीं होगी. दूसरे, इस वर्ग के कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों वश विरोधी राजनेताओं के चंगुल में फंस कर उनका समर्थन करने लगेंगे. इस प्रकार इस वर्ग के मध्य ही संघर्ष छिड़ जाएगा.
मूल रूप में, बौद्धिकता वर्त्तमान स्थिति में सुधार करना है, जिसके अनेक माध्यम हो सकते हैं - यथा सामाजिक, वैज्ञानिक, राजनैतिक, आदि. इस कारण से सभी बौद्धिक लोग किसी एक मार्ग पर कदापि सहमत नहीं होते, यद्यपि उन सभी के मंतव्य शुभ होते हैं, और लक्ष्य भी एक हो सकता है. यह बौद्धिक वर्ग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्बलता है. बौद्धिक लोगों को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना होगा और एक दूसरे के दृष्टिकोण का सम्मान करना होगा. यह तभी संभव है जब सभी बौद्धिक लोग अपना ध्यान देश के लिए दूसरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लक्ष्य पर केन्द्रित करें.
बौद्धिक वर्ग के विभाजन का एक बड़ा कारण यह है कि इस वर्ग की भूल जनसँख्या रचनात्मक कार्यों में लगी है, किन्तु एक दूसरे के रचनात्मक कार्यों के अध्ययन हेतु समय प्रदान नहीं करती, इस कारण से एक दूसरे के कार्य के बारे में अनभिज्ञ रहती है. इसके निवारण के लिए इस वर्ग के लोगों को पारस्परिक अध्ययन करने होंगे.
शुक्रवार, 14 मई 2010
सोम
गुरुवार, 13 मई 2010
मानव अधिकार आयोग की पुलिस पर निर्भरता
लगभग २ वर्ष पूर्व एक नव-विवाहित युगल रात्रि में मेरे गाँव से होकर कहीं जा रहा था. रास्ते में वे एक विद्युत् वोल्टेज युक्त तार में उलझ गए और दोनों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी. वह तार लगभग ८ दिन से टूटा पडा था और सम्बंधित विद्युत् कर्मियों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया था. अतः मृत्यु विद्युत् कर्मियों की लापरवाही से हुई जिसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए था.
युगल की पूर्व कथा कुछ इस प्रकार है. युवक तथा युवती परस्पर सम्बंधित थे और एक दूसरे से प्रेम करते थे. युवती के परिवार ने इसका विरोध किया था और इसके लिए युवक की कुछ पिटाई भी की थी. इस पर भी वे नहीं माने तथा उन्होंने विवाह कर लिया. दुर्घटना की रात्रि युवक युवती को उसके घर से लेकर भाग रहा था. मृत्यु स्थल पर उनके शवों को देखने से स्पष्ट था कि विद्युत् तार में पहले युवती फंसी थी, जिसपर युवक ने उसे तार से छुडाने का प्रयास किया जिसमें वह भी मारा गया. उसके मृत चेहरे के भावों से स्पष्ट था कि युवक ने अंतिम दम तक संघर्ष किया था.
पुलिस ने स्थल पर आकर पंचनामा भरा जिसमें स्पष्ट लिखा गया कि मृत्यु जीवित विद्युत् तार में उलझकर विद्युत् की उपस्थिति से हुई. युवक के पास से कुछ कागजात भी पाए गए जिनमें उप जिलाधिकारी के नाम युवती की ओर से एक पत्र भी था जिसमें उसने अपनी माँ के दुश्चरित्र होने का आरोप लगाया था और उसके साथ दुर्व्यवहार की शिकायत की थी.
उनके शवों का पोस्ट मार्टम कराया गया जिसमें दोनों के शवों पर विद्युत् से जले जाने के चिन्ह पाए गए थे. युवक के सिर पर भी चोट का चिन्ह था किन्तु युवती के शरीर पर कोई चोट आदि का चिन्ह नहीं था. पोस्ट मार्टम की औपचारिकता के बाद केस को ठन्डे बसते में दाल दिया गया, अर्थात मृत्यु के दोषियों के विरुद्ध पुलिस स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
दुर्घटना के लगभग एक माह तक कोई कार्यवाही न होने पर मैं स्थानीय पुलिस थाना प्रभारी से मिला और पूरी घटना के बारे में कार्यवाही की मांग की. उसने मुझे सियाना तहसील दिवस में उप जिलाधिकारी के समक्ष शिकायत करने का परामर्श दिया ताकि उसे दिशा निर्देश मिलें और वह कार्यवाही करे. मैंने उप जिलाधिकारी के समक्ष शिकायत कर दी. इस पर पुलिस तथा विद्युत् अधिकारियों ने दवाब बनाकर युवक के पिता से युवती के माता-पिता के विरुद्ध हत्या की शिकायत करा दी. पुलिस ने तुरंत युवती के माता, पिता और एक मित्र को हत्या के अपराध में बंदी बना लिया और कारागार भेज दिया. उनपर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है.
युवक के पास से युवती के उक्त पत्र से स्पष्ट है कि यदि युवती के माता-पिता उनकी हत्या करते तो वे उस पत्र को उनके पास कदापि नहीं छोड़ते. जब कि पुलिस का आरोप है कि युगल की हत्या के बाद उनके शवों को वहां विद्युत् तार में उलझाया गया. युवक के अंतिम दम तक संघर्ष करना भी इसे झूठ सिद्ध करता है.
इससे क्षुब्ध होकर मैंने इस मामले की शिकायत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में की, जिसने उसी पुलिस को रिपोर्ट देने के आदेश दिए जिस ने निर्दोषों के विरुद्ध हत्या का आरोप लगाया है. पुलिस ने आयोग के पत्र के लगभग ६ माह बाद, जब मामला ठंडा पड़ गया, आयोग को अपनी कार्यवाही को उचित बताते हुए मामले के न्यायालय के अधीन होने की सूचना दे दी. इस पर मानवाधिकार आयोग ने मेरी शिकायत निरस्त कर दी.
युगल की पूर्व कथा कुछ इस प्रकार है. युवक तथा युवती परस्पर सम्बंधित थे और एक दूसरे से प्रेम करते थे. युवती के परिवार ने इसका विरोध किया था और इसके लिए युवक की कुछ पिटाई भी की थी. इस पर भी वे नहीं माने तथा उन्होंने विवाह कर लिया. दुर्घटना की रात्रि युवक युवती को उसके घर से लेकर भाग रहा था. मृत्यु स्थल पर उनके शवों को देखने से स्पष्ट था कि विद्युत् तार में पहले युवती फंसी थी, जिसपर युवक ने उसे तार से छुडाने का प्रयास किया जिसमें वह भी मारा गया. उसके मृत चेहरे के भावों से स्पष्ट था कि युवक ने अंतिम दम तक संघर्ष किया था.
पुलिस ने स्थल पर आकर पंचनामा भरा जिसमें स्पष्ट लिखा गया कि मृत्यु जीवित विद्युत् तार में उलझकर विद्युत् की उपस्थिति से हुई. युवक के पास से कुछ कागजात भी पाए गए जिनमें उप जिलाधिकारी के नाम युवती की ओर से एक पत्र भी था जिसमें उसने अपनी माँ के दुश्चरित्र होने का आरोप लगाया था और उसके साथ दुर्व्यवहार की शिकायत की थी.
उनके शवों का पोस्ट मार्टम कराया गया जिसमें दोनों के शवों पर विद्युत् से जले जाने के चिन्ह पाए गए थे. युवक के सिर पर भी चोट का चिन्ह था किन्तु युवती के शरीर पर कोई चोट आदि का चिन्ह नहीं था. पोस्ट मार्टम की औपचारिकता के बाद केस को ठन्डे बसते में दाल दिया गया, अर्थात मृत्यु के दोषियों के विरुद्ध पुलिस स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी.
दुर्घटना के लगभग एक माह तक कोई कार्यवाही न होने पर मैं स्थानीय पुलिस थाना प्रभारी से मिला और पूरी घटना के बारे में कार्यवाही की मांग की. उसने मुझे सियाना तहसील दिवस में उप जिलाधिकारी के समक्ष शिकायत करने का परामर्श दिया ताकि उसे दिशा निर्देश मिलें और वह कार्यवाही करे. मैंने उप जिलाधिकारी के समक्ष शिकायत कर दी. इस पर पुलिस तथा विद्युत् अधिकारियों ने दवाब बनाकर युवक के पिता से युवती के माता-पिता के विरुद्ध हत्या की शिकायत करा दी. पुलिस ने तुरंत युवती के माता, पिता और एक मित्र को हत्या के अपराध में बंदी बना लिया और कारागार भेज दिया. उनपर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है.
युवक के पास से युवती के उक्त पत्र से स्पष्ट है कि यदि युवती के माता-पिता उनकी हत्या करते तो वे उस पत्र को उनके पास कदापि नहीं छोड़ते. जब कि पुलिस का आरोप है कि युगल की हत्या के बाद उनके शवों को वहां विद्युत् तार में उलझाया गया. युवक के अंतिम दम तक संघर्ष करना भी इसे झूठ सिद्ध करता है.
इससे क्षुब्ध होकर मैंने इस मामले की शिकायत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में की, जिसने उसी पुलिस को रिपोर्ट देने के आदेश दिए जिस ने निर्दोषों के विरुद्ध हत्या का आरोप लगाया है. पुलिस ने आयोग के पत्र के लगभग ६ माह बाद, जब मामला ठंडा पड़ गया, आयोग को अपनी कार्यवाही को उचित बताते हुए मामले के न्यायालय के अधीन होने की सूचना दे दी. इस पर मानवाधिकार आयोग ने मेरी शिकायत निरस्त कर दी.
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विद्युत् से मृत्यु
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