गाँव में समाज-कंटक विरोधियों द्वारा राजनैतिक सत्ता हथियाने के बाद लोगों ने मुझे सार्वजनिक हितों के रक्षण हेतु ग्राम सभा का सदस्य बनाया. इससे जहां मैं प्रमुख विरोधी स्वर के रूप में स्थापित हुआ हूँ, वहीं सत्ता पक्ष में सन्नाटा छा गया है. ग्राम सभा के सदस्यों का बहुमत मेरे साथ है और उनके सहयोग के बिना ग्राम प्रधान विकास हेतु आबंटित सार्वजनिक धन का दुरूपयोग नहीं कर सकेगा. ग्राम प्रधान ने इस पद पर चुने जाने के लिए अनैतिक रूप से लगभग ३ लाख रुपये व्यय किये थे. इसके अतिरिक्त उसकी कृषि आय भी लापरवाही के कारण नगण्य है. इसलिए उसके लिए यह पद ही आय का स्रोत बनाना था, जो अब संभव नहीं रह गया है.
९ दिसम्बर को ग्राम पंचायत की सभा में ग्राम विकास हेतु विभिन्न समितियों का गठन होना था जिससे सदस्यों को दायित्व भार प्रदान होने थे. किन्तु भयभीत प्रधान ने इसमें रोड़ा लगाने के लिए स्वयं को अन्यत्र व्यस्त कहते हुए इसे टला दिया जिससे ग्राम विकास का कोई कार्य आरम्भ नहीं हो पाया है. अब उसने घोषित करना आरम्भ कर दिया है कि चूंकि वह ग्राम विकास से कोई आय नहीं कर सकता वह ग्राम विकास का कोई कार्य भी नहीं करेगा. सदस्य अगला कदम उठाने से पूर्व उसे लम्बा समय देना चाहते हैं ताकि उसके विरुद्ध प्रशासनिक कदम उठाये जा सकें.
ग्राम प्रधान का मंतव्य स्पष्ट है - अवैध आय अथवा ग्राम विकास ठप्प. इसके साथ ही उसे भय है कि उसकी अनियमितताओं के कारण उसे सदस्यों द्वारा अधिकारों से वंचित किया जा सकता है इसलिए वह सदस्यों को निष्क्रिय कर देना चाहता है जिसके लिए वह अवैध र्रोप से और भी धन व्यय करने के लिए तत्पर है. किन्तु ऐसा होना असंभव है, और उसे निरंतर भय में ही अपना ५ वर्ष का कार्यकाल पूरा करना है अथवा मध्य में ही अधिकारों से वंचित हो जाना है. यही उसकी नियति है.
यह स्थिति केवल मेरे गाँव की न होकर समस्त भारत की है, जहां पदासीन राजनेता अपने दूषित मंतव्यों में लिप्त रहते हैं, साथ ही कुछ निष्ठावान लोगों से भयभीत रहते हैं, पदमुक्त होते रहते हैं अथवा सशक्त विरोध न होने पर सार्वजनिक संपदा को हड़पते रहते हैं. आज देश की लगभग ३० प्रतिशत संपदा के स्वामी राजनेता ही हैं जिनकी संख्या देश की कुल जनसँख्या का केवल ५ प्रतिशत है. अपने मंतव्यों को पूरा करने के लिए वे राज्यकर्मियों को भी भृष्टाचार में लिप्त करते है, जो उनके साथ सार्वजनिक संपदाओं को हड़पते रहते हैं. देश की यह लगभग १० प्रतिशत जनसँख्या लगभग ३० प्रतिशत सार्वजनिक संपदा की स्वामी बनी हुई है. देश की शेष ४० प्रतिशत संपदा पर देश की ८५ प्रतिशत जनसँख्या निर्भर है.
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
भक्ति का ढकोसला
भक्ति, ईश्वर की अथवा अन्य किसी महापुरुष की, भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, बिना इसका वास्तविक अर्थ समझे अथवा बिना इसे सार्थक बनाए. इसका अर्थ बस यह लिया जाता है कि इष्टदेव पर यदा-कदा कुछ फूल समर्पित कर दिए जाएँ अथवा उसके नाम पर कुछ लाभ कमा लिया जाए भक्ति की इस कुरूपता का मूल कारण यह है कि भक्ति का आरम्भ ही स्वार्थी लोगों ने अपने हित-साधन हेतु किया. अन्यथा किसी भी व्यक्ति को किसी की भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है. उसे तो बस निष्ठावान रहते हुए अपना कर्म करना चाहिए. भक्ति ईश्वर की परिकल्पना की एक व्युत्पत्ति है और उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कि ईश्वर की परिकल्पना. किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक होने के कारण स्वार्थी समाज द्वारा निरंतर पनापाये जा रहे हैं.
भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.
भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.
राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.
भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता.
भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.
भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.
राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.
भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता.
लेबल:
ईश्वर,
निष्काम-कर्म,
भक्ति,
मनोवैज्ञानिक साम्राज्य
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
आस्तिकता, नास्तिकता और अज्ञता
तीन प्रचलित वाद - आस्तिवाद, नास्तिवाद, और अज्ञवाद, मानवता में प्रचलित हैं. आस्तिवाद मनुष्य के कर्म और उसके अस्तित्व की अवहेलना करता है और सब कुछ ईश्वर के अधीन मानते हुए उसी के ऊपर छोड़ने के पक्ष में है. इसके विपरीत नास्तिवाद है जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता और मनुष्य के कर्म और अस्तित्व को ही महत्व देता है. तीसरा वाद बहुत अधिक प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे समझने में विरोधाभास हैं. आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में मानते हैं. इसलिए इस विषय पर कुछ विशेष चर्चा वांछित है. यहीं स्पष्ट कर दूं कि मैं निश्चित रूप से सुविचारित नास्तिवादी हूँ.
अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.
आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.
उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.
इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.
मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.
अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.
आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.
उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.
इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.
मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
उत्तर प्रदेश की राजनैतिक हलचल
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव लगभग १४ महीने दूर रह गए हैं, इसलिए राजनैतिक दलों और संभावित प्रत्याशियों ने अपनी तैयारियां आरम्भ कर दी हैं. प्रत्याशियों की घोषणा में बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे रहती है जिससे कि प्रत्याशियों को अपने चुनाव प्रचार के लिए लम्बा समय प्राप्त हो जाता है. अभी यह सत्ता में भी है, इसका नैतिक-अनैतिक लाभ भी इसके प्रत्याशियों को प्राप्त होगा. आशा है १-२ महीने में बसपा के प्रत्याशी मैदान में होंगे. कांग्रेस प्रत्याशियों की घोषणा में सबसे पीछे रहती है. उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रत्याशियों का चयन जातीय आधार पर किया जाता है जिसमें प्रबुद्ध जातियों और प्रत्याशियों की अवहेलना होनी स्वाभाविक है.
बिहार में हाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई है, इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी पड़ेगा जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ लाभ होने की आशा है. बसपा को जहां एक ओर सत्ता का लाभ प्राप्त होगा वहीं इसे सत्ता में रहते हुए कुछ विशेष न करने के कारण हानि भी होगी. तथापि यही एक दल है जिसके पास अपना मतदाता समाज है. कांग्रेस की केंद्र में सरकार है और देश में निरंतर बढ़ती महंगाई के लिए उत्तरदायी होने के कारण मतदाता इससे रुष्ट हैं. केंद्र सरकार के कांग्रेस नेताओं के भृष्टाचार में लिप्त होने के प्रचार-प्रसार से भी इस दल को भारी हानि होगी. प्रदेश में इसके पास कोई सक्षम नेता भी नहीं है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी केवल एक परिवार और उसकी जाति की पार्टी होने के कारण लुप्त होती जा रही है जिसकी वापिसी के कोई आसार नहीं हैं.
इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रमुख मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बसपा के मध्य होना निश्चित है. राजनैतिक दलों के पारस्परिक गठबन्धनों का प्रभाव भी चुनाव परिणामों पर होगा जिसके बारे में तभी कहा जा सकता है जब कोई गठबंधन हो पाए. भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता कल्याण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जाति की बहुलता के आधार पर अपना नया दल बना लिया है जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ हानि होगी. इस दल को उत्तर प्रदेश में कुछ हानि इस तथ्य से भी होगी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष की छबि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं है. जब कि बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की ही हैं और अछोत जाते की होने के कारण अन्य प्रदेशों में भी इस दल का प्रसार हो रहा है. यह दल मायावती को देश के भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रस्थापित करने के प्रयास करता रहा है और इसका लाभ उठाता रहा है. तथापि भारत में दलित राजनीति सदैव अल्पकालिक रही है और इस में संदेह किया जा सकता है कि मायावती कभी देश की प्रधान मंत्री बन पाएंगी.
यदि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में बिहार जैसी स्थिति में आ जाए तो निकट भविष्य में यह केंद्र में सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सकती है. इसके लिए इसे अन्य सहयोगी दलों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना होगा. इस दल को एक बड़ा लाभ इसके अनुशासित कार्यकर्ताओं का भी प्राप्त होता है जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित होते हैं. इसके विपरीत इस दल को कट्टर हिंदूवादी माना जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता. यदि ये मतदाता बहुल रूप में बसपा को समर्थन दे दें तो भारतीय जनता पार्टी को कठिनाई में डाल सकते हैं.
फिर भी आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि निष्ठावान इमानदार व्यक्ति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है. कुछ आशा की किरण दिखाई देती है तो भारतीय जनता पार्टी में ही है.
बिहार में हाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई है, इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी पड़ेगा जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ लाभ होने की आशा है. बसपा को जहां एक ओर सत्ता का लाभ प्राप्त होगा वहीं इसे सत्ता में रहते हुए कुछ विशेष न करने के कारण हानि भी होगी. तथापि यही एक दल है जिसके पास अपना मतदाता समाज है. कांग्रेस की केंद्र में सरकार है और देश में निरंतर बढ़ती महंगाई के लिए उत्तरदायी होने के कारण मतदाता इससे रुष्ट हैं. केंद्र सरकार के कांग्रेस नेताओं के भृष्टाचार में लिप्त होने के प्रचार-प्रसार से भी इस दल को भारी हानि होगी. प्रदेश में इसके पास कोई सक्षम नेता भी नहीं है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी केवल एक परिवार और उसकी जाति की पार्टी होने के कारण लुप्त होती जा रही है जिसकी वापिसी के कोई आसार नहीं हैं.
इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रमुख मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बसपा के मध्य होना निश्चित है. राजनैतिक दलों के पारस्परिक गठबन्धनों का प्रभाव भी चुनाव परिणामों पर होगा जिसके बारे में तभी कहा जा सकता है जब कोई गठबंधन हो पाए. भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता कल्याण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जाति की बहुलता के आधार पर अपना नया दल बना लिया है जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ हानि होगी. इस दल को उत्तर प्रदेश में कुछ हानि इस तथ्य से भी होगी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष की छबि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं है. जब कि बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की ही हैं और अछोत जाते की होने के कारण अन्य प्रदेशों में भी इस दल का प्रसार हो रहा है. यह दल मायावती को देश के भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रस्थापित करने के प्रयास करता रहा है और इसका लाभ उठाता रहा है. तथापि भारत में दलित राजनीति सदैव अल्पकालिक रही है और इस में संदेह किया जा सकता है कि मायावती कभी देश की प्रधान मंत्री बन पाएंगी.
यदि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में बिहार जैसी स्थिति में आ जाए तो निकट भविष्य में यह केंद्र में सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सकती है. इसके लिए इसे अन्य सहयोगी दलों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना होगा. इस दल को एक बड़ा लाभ इसके अनुशासित कार्यकर्ताओं का भी प्राप्त होता है जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित होते हैं. इसके विपरीत इस दल को कट्टर हिंदूवादी माना जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता. यदि ये मतदाता बहुल रूप में बसपा को समर्थन दे दें तो भारतीय जनता पार्टी को कठिनाई में डाल सकते हैं.
फिर भी आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि निष्ठावान इमानदार व्यक्ति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है. कुछ आशा की किरण दिखाई देती है तो भारतीय जनता पार्टी में ही है.
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
अभ्यस्त होने की स्वायत्तता और विवशता
जीव के अवचेतन मन में जो समाहित होता है, वह स्वतः होता रहता है अथवा किया जाता रहता है. जो स्वतः होता रहता है वह शरीर के संतुलित सञ्चालन के लिए आवश्यक होता है इसलिए प्राकृत रूप से इस हेतु अवचेतन मन में समाहित होता है. जो कुछ व्यक्ति के अभ्यस्त होने के कारण किया जाता है वह भी उसके अवचेतन मन में समाहित होता है किन्तु इसे स्वयं व्यक्ति द्वारा ही प्रविष्ट कराया जाता है.
शरीर में पाचन, रक्त प्रवाह, आदि अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती रहती हैं जो एक श्रंखला द्वारा एक दूसरे से जुडी होती हैं और प्रकृति के कारण-प्रभाव सिद्धांत के अनुसार संचालित होती रहती हैं. किन्तु इनमें कोई अवरोध उत्पन्न होने से व्यक्ति का अवचेतन मन इन्हें नियमित करने का प्रयास करता है और असफल होने पर शरीर में अस्वस्थता के माध्यम से इसकी सूचना प्रदान करता है. अवचेतन मन में इस प्रकार की सूचनाओं की प्रविष्टि अंतर्चेतना से, माता-पिता से प्राप्त जींस के माध्यम से, अथवा व्यक्ति की पारिस्थितिकी के कारण होती है. यद्यपि इनका संचालन आदतों की तरह ही होता है किन्तु इनकी अनिवार्यता के कारण इन्हें आदत नहीं कहा जाता.
जो व्यक्ति बाइसाइकिल चलाने का अभ्यस्त है, उसे पैडल मारने पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती, यह क्रिया उसके अवचेतन मन द्वारा स्वतः संचालित की जाती रहती है. इस स्वतः संचालन के लिए व्यक्ति को इस क्रिया में कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. किन्तु इस क्रिया के लिए व्यक्ति विवश अथवा लालायित नहीं रहता अथवा बाइसाइकिल देखते ही उसके पैर पैडल मारने के लिए उद्यत नहीं हो जाते. मिट्टी खाने के अभ्यस्त बच्चे का मन मिट्टी देखते ही उसे खाने के लिए ललचा उठता है और वह अवसर पाते ही उसे मुख में डाल लेता है. यह भी उसके अवचेतन मन द्वारा संचालित होता है और इसके लिए भी बच्चे को कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. .
इस प्रकार से कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने के दो प्रभाव होते हैं - एक, जिसमें व्यक्ति लालायित अथवा विवश नहीं होता, और दूसरा, जिसमें व्यक्ति विवश अथवा लालायित हो जाता है. सामान्यतः, दूसरी प्रकार की अभ्यस्तता का प्रभाव ही व्यक्ति की आदत कहा जाता है, जो अच्छी अथवा बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं. जो आदतें व्यक्ति अथवा मानव समाज के हित में नहीं होतीं उन्हें बुरी तथा इसके विपरीत जो आदतें व्यक्ति एवं सम्माज के हित में होती हैं उन्हें बुरी आदतें कहा जाता है. स्वाभाविक है कि समाज व्यक्ति में बुरी आदतों को छुडाने तथा अच्छी आदतें डालने के प्रयास करता है जिसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाए जाते हैं.
व्यक्ति में अपने पारिस्थितिकी के बारे में जिज्ञासा एक अंतर्चेतना के रूप में प्राकृत रूप से विद्यमान होती है, जिसके कारण वह कर्म करने के लिए उद्यत होता है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति की कामनाएं तथा हित-साधन भी उसे कर्म के लिए अथवा इसके विपरीत विवश करते हैं. कर्म करने अथवा न करने का तीसरा बड़ा कारण व्यक्ति का अपना संकल्प होता है जो उसकी जिज्ञासा, कामना अथवा हित साधन से निर्लिप्त हो सकता है. इस प्रकार व्यक्ति उक्त चार कारणों से कोई क्रिया करता है अथवा उसके विमुख होता है. इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को बुरी आदतों से मुक्त किया जा सकता है अथवा उसमें अच्छी आदतों का समावेश किया जा सकता है.
शरीर में पाचन, रक्त प्रवाह, आदि अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती रहती हैं जो एक श्रंखला द्वारा एक दूसरे से जुडी होती हैं और प्रकृति के कारण-प्रभाव सिद्धांत के अनुसार संचालित होती रहती हैं. किन्तु इनमें कोई अवरोध उत्पन्न होने से व्यक्ति का अवचेतन मन इन्हें नियमित करने का प्रयास करता है और असफल होने पर शरीर में अस्वस्थता के माध्यम से इसकी सूचना प्रदान करता है. अवचेतन मन में इस प्रकार की सूचनाओं की प्रविष्टि अंतर्चेतना से, माता-पिता से प्राप्त जींस के माध्यम से, अथवा व्यक्ति की पारिस्थितिकी के कारण होती है. यद्यपि इनका संचालन आदतों की तरह ही होता है किन्तु इनकी अनिवार्यता के कारण इन्हें आदत नहीं कहा जाता.
जो व्यक्ति बाइसाइकिल चलाने का अभ्यस्त है, उसे पैडल मारने पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती, यह क्रिया उसके अवचेतन मन द्वारा स्वतः संचालित की जाती रहती है. इस स्वतः संचालन के लिए व्यक्ति को इस क्रिया में कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. किन्तु इस क्रिया के लिए व्यक्ति विवश अथवा लालायित नहीं रहता अथवा बाइसाइकिल देखते ही उसके पैर पैडल मारने के लिए उद्यत नहीं हो जाते. मिट्टी खाने के अभ्यस्त बच्चे का मन मिट्टी देखते ही उसे खाने के लिए ललचा उठता है और वह अवसर पाते ही उसे मुख में डाल लेता है. यह भी उसके अवचेतन मन द्वारा संचालित होता है और इसके लिए भी बच्चे को कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. .
इस प्रकार से कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने के दो प्रभाव होते हैं - एक, जिसमें व्यक्ति लालायित अथवा विवश नहीं होता, और दूसरा, जिसमें व्यक्ति विवश अथवा लालायित हो जाता है. सामान्यतः, दूसरी प्रकार की अभ्यस्तता का प्रभाव ही व्यक्ति की आदत कहा जाता है, जो अच्छी अथवा बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं. जो आदतें व्यक्ति अथवा मानव समाज के हित में नहीं होतीं उन्हें बुरी तथा इसके विपरीत जो आदतें व्यक्ति एवं सम्माज के हित में होती हैं उन्हें बुरी आदतें कहा जाता है. स्वाभाविक है कि समाज व्यक्ति में बुरी आदतों को छुडाने तथा अच्छी आदतें डालने के प्रयास करता है जिसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाए जाते हैं.
व्यक्ति में अपने पारिस्थितिकी के बारे में जिज्ञासा एक अंतर्चेतना के रूप में प्राकृत रूप से विद्यमान होती है, जिसके कारण वह कर्म करने के लिए उद्यत होता है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति की कामनाएं तथा हित-साधन भी उसे कर्म के लिए अथवा इसके विपरीत विवश करते हैं. कर्म करने अथवा न करने का तीसरा बड़ा कारण व्यक्ति का अपना संकल्प होता है जो उसकी जिज्ञासा, कामना अथवा हित साधन से निर्लिप्त हो सकता है. इस प्रकार व्यक्ति उक्त चार कारणों से कोई क्रिया करता है अथवा उसके विमुख होता है. इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को बुरी आदतों से मुक्त किया जा सकता है अथवा उसमें अच्छी आदतों का समावेश किया जा सकता है.
लेबल:
अंतर्चेतना,
अभ्यस्तता,
कामना,
जिज्ञासा,
हित-साधन
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