आव
शास्त्रों में उपयुक्त शब्द 'आव' का अर्थ पितामह' है क्योंकि इसका मूल शब्द लैटिन भाषा का avus है. इसे पूर्वजों के भाव में भी उपयोग किया गया है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'पानी' लिया गया है.
एव
शास्त्रीय शब्द 'एव' शब्द का मूल लैटिन शब्द ave है जिसका अर्थ 'प्रशंसा' अथवा 'शुभ कामना' है. आधुनिक संस्कृत के इसके अर्थ 'ही' से शास्त्रीय मंतव्य का कोई सम्बन्ध नहीं है.
गुरुवार, 13 मई 2010
लिप्सा
राजसूय यज्ञ
शास्त्रों में राजाओं द्वारा 'राजसूय यज्ञ' आयोजित किये जाने के सन्दर्भ पाए जाते हैं. हम पहले ही 'राज' शब्द का अर्थ 'शासक तथा 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'बस्ती' सिद्ध कर चुके है. 'सूय' शब्द लैटिन भाषा के सुई शब्द से उद्भूत है जिसका अर्थ 'स्वयं' है. अतः 'राजसूय यज्ञ' का अर्थ 'ऐसी बस्ती है जहां स्वयं का शासन हो'. इस यज्ञ करने का तात्पर्य ऐसी बस्ती बसाना है.
राज, राज्य
राज
शास्त्रों में 'राज' शब्द ग्रीक भाषा archos से बनाया गया है जिसका अर्थ 'शासक' है. आधुनिक संस्कृत में भी इसे इसी अभिप्राय के लिए ऊपयोग किया जाता है.
राज्य
शास्त्रीय शब्द 'राज्य' राज से भिन्न है. यह ग्रीक शब्द archaios से बनाया गया है जिसका अर्थ प्राचीन है. अंग्रेज़ी का archaeology भी इसी ग्रीक शब्द से बना है.
शास्त्रों में 'राज' शब्द ग्रीक भाषा archos से बनाया गया है जिसका अर्थ 'शासक' है. आधुनिक संस्कृत में भी इसे इसी अभिप्राय के लिए ऊपयोग किया जाता है.
राज्य
शास्त्रीय शब्द 'राज्य' राज से भिन्न है. यह ग्रीक शब्द archaios से बनाया गया है जिसका अर्थ प्राचीन है. अंग्रेज़ी का archaeology भी इसी ग्रीक शब्द से बना है.
बुधवार, 12 मई 2010
सरस्वती पथ और लोप कथा
शास्त्रों में वर्णित नदी सरस्वती के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं. साथ ही इसके लोप होने के बारे मैं भी अनेक कल्पनाएँ की गयीं हैं. किन्तु ऐसी कल्पनाएँ करते समय इस तथ्य पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि किसी अन्य नदी के लोप होने की घटना प्रकाश में नहीं आयी है, तो फिर सरस्वती का ही विलोपन क्यों हुआ जो अत्यंत विशाल जलधारा थी. हाँ, कुछ छोटे-मोटे नदी-नाले जलाभाव में सूख अवश्य गए हैं किन्तु वे भी अपने पदचिन्ह पीछे छोड़ जाते हैं. मैंने इन प्रश्नों पर गहन विचार किया है, और अपने ऐतिहासिक अन्वेषणों के आधार पर सरस्वती के विलोपन पर शोध किया है. यह प्रथम अवसर है जब में अपने शोध परिणामों को प्रकाशित कर रहा हूँ, जब कि इस सम्बंधित शोध मैंने १९९५-१९९७ की अवधि में किये थे.
अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.
यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.
मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
विलोपन का कारण
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.
विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है.
देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.
यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.
मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
विलोपन का कारण
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.
विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है.
देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
सरस्वती पथ और लोप कथा
शास्त्रों में वर्णित नदी सरस्वती के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं. साथ ही इसके लोप होने के बारे मैं भी अनेक कल्पनाएँ की गयीं हैं. किन्तु ऐसी कल्पनाएँ करते समय इस तथ्य पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि किसी अन्य नदी के लोप होने की घटना प्रकाश में नहीं आयी है, तो फिर सरस्वती का ही विलोपन क्यों हुआ जो अत्यंत विशाल जलधारा थी. हाँ, कुछ छोटे-मोटे नदी-नाले जलाभाव में सूख अवश्य गए हैं किन्तु वे भी अपने पदचिन्ह पीछे छोड़ जाते हैं. मैंने इन प्रश्नों पर गहन विचार किया है, और अपने ऐतिहासिक अन्वेषणों के आधार पर सरस्वती के विलोपन पर शोध किया है. यह प्रथम अवसर है जब में अपने शोध परिणामों को प्रकाशित कर रहा हूँ, जब कि इस सम्बंधित शोध मैंने १९९५-१९९७ की अवधि में किये थे.
अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.
यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.
मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
विलोपन का कारण
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.
विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है.
देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
अब से लगभग २५०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा भारत के विकास काल में सरस्वती नदी भारत की प्रमुख नदी थी जो अनेक बस्तियों के लिए शुद्ध जल का स्रोत भी थी. इसमें स्नान अथवा गंदे हाथों से इसके जल का स्पर्श वर्जित था जिसके यक्ष जाति के लोग इसकी रक्षा करते थे.
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.
यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.
मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
विलोपन का कारण
महाभारत युद्ध में देवों और आर्यों की पराजय के बाद उस पक्ष के जो लोग बचे थे वे भयभीत होकर राजस्थान के जंगलों में सरस्वती तट पर फ़ैल गए थे और उन्होंने अपना केंद्र इन जंगंलों के एक गाँव 'वायड' को बनाया था. वायड आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में जाना जाता है जहां से अनेक सुरंगे विविध स्थानों को जाती हैं जहाँ-जहां देव बसे थे. यहीं से एक सुरंग नाथद्वारा मंदिर में भी खुलती है.
विष्णु भी इस युद्ध में बच गए थे किन्तु गंभीर रूप से घायल थे. कृष्ण ने उनके अन्डकोशों को कटवा दिया था. उन्होंने गुप्त रहने के उद्येश्य से अपना नाम 'पराशर' रखा और राजस्थान के अलवर जनपद में एक आश्रम बनाकर रहे और अपनी चिकित्सा की. यह आश्रम आज भी है जो नीलकंठ के निकट एक पहाडी की जड़ में बना है.
देवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भी कृष्ण उन्हें पूरी तरह नष्ट करना चाहता था. वह जानता था कि शेष देव सरस्वती तट पर ही जंगलों में बसे हैं. इसलिए उन्हें पानी के लिए तरसाने के उद्येश्य से उसने सरस्वती नदी को सिधवान में दिशा बदलकर बियास नदी में मिला दिया जिससे सरस्वती जलधारा सूख गयी.
सरस्वती पथ और विलोपन, सतलज नदी, साबरमती नदी
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
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