रविवार, 9 मई 2010

साहस एवं आत्म-विश्वास की अपरिहार्यता

असामान्य स्थिति में भी अपने मार्ग पर डटे रहना साहस है. ऐसा हम तभी करते हैं जब हमें अपनी सुयोग्यता पर विश्वास हो कि हम असामान्य स्थिति से सफलतापूर्वक निपट लेंगे. इसी विश्वास को आत्म-विश्वास कहा जाता है. अतः साहस के लिए आत्म-विश्वास परम आवश्यक है.  दूसरी ओर आत्म-विश्वास असामान्य परिस्थितियों में अपनी सामर्थ्य के बार-बार परीक्षण से बलवती होता है और इस प्रकार के परीक्षणों के लिए साहस की आवश्यकता होती है. इस प्रका साहस आत्म-विश्वास का पोषक होता है. इस प्रकार साहस आर आत्म-विश्वास का गहन सम्बन्ध सिद्ध होता है.
Courage: Winning Life's Toughest Battles (Ed Cole Classic)

क्या साहस और आत्म-विश्वास जीवन यापन के लिए अपरिहार्य हैं? कदापि नहीं, क्योंकि पृथ्वी पर अनेक जीव-जातियां और विश्व की बहुल जनसँख्या इन गुणों से विपन्न होती है तथापि जीवन यापन करती है. तो फिर क्यों आवश्यकता होती है हमें साहस और आत्म-विश्वास की?

जहां हम समाज में प्रेम और सहयोग का विकास करते हैं वहीं हमें युद्धों जैसी अनेक आपाद स्थितियों का भी सामना करना होता है. जनसँख्या में अनावश्यक वृद्धि से प्रकृति जीवन हेतु सर्वोपयोगी जीवों का चुनाव करती है और जो इस परीक्षण में असफल पाए जाते हैं, नष्ट कर दिए जाते हैं. इसके अतिरिक्त भी सौर मंडल में प्राकृत आपदाएं उत्पन्न होती रहती हैं.  यही सब हमारे अस्तित्व के अनिवार्य संकट होते हैं जिनसे हमें जूझना होता है. इस प्रकार जीवन संग्रामों और संघर्षों की कड़ी होती है जिसे बनाए रखने के लिए हमें साहस की आवश्यकता होती है जो आत्म-विश्वास से उत्पन्न होता है.

केवल शारीरिक विकलांगता ही रुग्णता नहीं होती, मानसिक निर्बलता उससे भी अधिक भयावह रुग्णता होती है, जिससे भय उत्पन्न होता है. भयाक्रांत जीवन सदैव दुखदायी होता है. साहस तथा आत्म-विश्वास का अभाव मानसिक निर्बलता का जनक होने के कारण मानसिक रुग्णता को भी जन्म देता है. इसके रहते हुए जीवन को परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता.

Soldier Heroes: British Adventure, Empire and the Imagining of Masculinities 
पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीव-जंतु अपने जीवन की रक्षा और संतति की उत्पत्ति करते रहते हैं. यदि मनुष्य होकर भी हम इन्ही में लिप्त रहें तो हम स्वयं को उनसे उच्च वर्ग का जीव नहीं कह सकते. मनुष्य जाति ने प्राचीन काल से ही स्वयं को अन्य जीवों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध किया है और हमें सभ्यता के पाठ पढाये हैं. यही सभ्यता हमें अन्य जीव-जंतुओं से श्रेष्ठ बनाती है. सभ्यता विकास के लिए अनजानी राहों पर कदम बढ़ने होते हैं, अनके आपाद स्थितियों से जूझना पड़ता है और बार-बार असामान्य परिस्थितियों में जीवन को आगे बढ़ाना होता है. इस सबके लिए साहस और आत्म-विश्वास की आवश्यकता होती है. इनके अभाव में हम स्वयं को मनुष्य कहने के अधिकारी नहीं होते.  

बौद्धिक जनतंत्र में शासन व्यवस्था

बौद्धिक जनतंत्र में सर्वकार के दो प्रमुख कार्य निर्धारित हैं जिनमें से प्रथम सर्वकार का कर्म है  तथा दूसरा उसका नियंत्रण है  -
  • लोगों को स्वयं के  स्वस्थ, सभ्य और सम्मानपूर्ण जीवन यापन की सुविधाएँ प्रदान करना, तथा 
  • लोगों को दूसरों के स्वस्थ, सभ्य और सम्मानपूर्ण जीवन यापन में बाधक होने से प्रतिबंधित करना. 
इस कर्म और नियंत्रण के लिए बौद्धिक सर्वकार पांच स्तरों पर नियोजित है -

गाँव/नगर  सर्वकार -
स्वच्छता, शिक्षा संस्थान संचालन, स्वास्थ सेवाएं, सार्वजनिक संपदा की रक्षा, भूमि और जनसँख्या आंकड़े, पेय जल, राजस्व वसूली.

विकास खंड सर्वकार -
विकास नियोजन, सामाजिक वानिकी, कृषि/खनन विकास सेवाएं, दूध एवं खाद्य संस्कारण उद्योग, गाँव/नगर सर्वकार नियंत्रण.

जनपद सर्वकार -
न्याय और व्यवस्था प्रशासन, शिक्षा एवं स्वास्थ प्रशासन, विकास कंद सर्वकार नियंत्रण.


प्रांतीय सर्वकार -
विधानों के अंतर्गत नियम निर्माण, कला-संस्कृति विकास, औद्योगिक विकास, यातायात साधन विकास, जनपद सर्वकार नियंत्रण.

राष्ट्रीय सर्वकार -
संविधान, अंतर-राष्ट्रीय सम्बन्ध, सीमा सुरक्षा, जल-विद्युत्-ईंधन-रेलवे विकास, प्रांतीय सर्वकार नियंत्रण.

सर्वकार का कर्म गाँव स्तर से आरम्भ होकर राष्ट्र स्तर तक शनैः-शनैः घटता जाता है जबकि उसका नियंत्रण राष्ट्र स्तर से आरम्भ होकर गाँव स्तर तक न्यूनतम हो जाता है तथापि बौद्धिक जनतंत्र संघीय व्यवस्था के विरुद्ध एक राष्ट्राध्यक्ष के नेतृत्व में केन्द्रीय  व्यवस्था का समर्थक है. इसलिए केन्द्रीय सर्वकार राष्ट्र के सर्वांगीण एवं समरूपी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका में है. राष्ट्राध्यक्ष अपने १६ सदस्यीय मंत्री परिषद के माध्यम से कार्य करता और देश की संसद उसके कार्यों की समीक्षा करती है. राष्टाध्यक्ष के अधीन १६ निम्नांकित विभाग होंगे -
  1. कृषि, वन, ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग,
  2. स्वास्थ सेवाएँ,
  3. शिक्षा सेवाएँ,
  4. न्याय और विधान,
  5. औद्योगिक विकास,
  6. अर्थ एवं वित्त व्यवस्था ,
  7. जल संसाधन विकास,
  8. अंतर्राष्ट्रीय मामले एवं व्यापार,
  9. राष्ट्रीय सुरक्षा एवं प्राकृत आपदा,
  10. यातायात एवं पर्यटन विकास,
  11. खनन एवं खनिज संस्कारण,
  12. प्रांतीय सर्वकार नियंत्रण,
  13. विद्युत् उत्पादन एवं वितरण विकास,
  14. विज्ञान, तकनीकी एवं संचार,
  15. ईंधन स्रोत विकास,
  16. जनजीवन एवं उत्पाद गुणता विकास.  

गन्ने की खेती

भारत के एक प्रसिद्ध कवि द्वारा रचित दोहा है -

'अति का भला न बरसना अति की भली न धूप,
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप.'

किन्तु भारत के किसानों ने इससे कोई सीख नहीं ली और जब कोई फसल उगाते हैं तो सभी उगाते हैं. इस बार प्रत्येक किसान गन्ने की फसल बो रहा है और वह भी अधिकतम संभव भूमि पर. इसके फलस्वरुप मक्की और धान की फसल नगण्य बोई जायेगी. मेरे गाँव में सभी किसानों ने धान की फसल बोई थी जिसके कारण कुछ समय तो धान के भाव ठीक रहे किन्तु अब धराशायी हो गए.


गन्ने की फसल पर जोर होने का कारण विगत काल में गन्ने के भाव पिछले साल के ११० रुपये प्रति कुंतल के स्थान पर २५० रपये प्रति कुंतल होना है. इस वृद्धि में कुछ पहल सर्वकार ने की थी तो शेष निजी क्षेत्र के चीनी मीलों ने पूरी कर दी. इससे चीनी मीलों को कोई हानि नहीं हुई क्योंकि उन्होंने अपनी चीनी २० रुपये प्रति किलोग्राम के स्थान पर ४० रुपये प्रति किलोग्राम पर विक्रय करा दी. इसका अप्रत्याशित भार उपभोक्ताओं पर पडा जिससे उन्हें शक्कर की कड़वाहट अनुभव हुई.


गन्ने की खेती करने की विशेषता यह है कि किसान इसकी बुवाई एक दूसरे के खेतों में मिलजुलकर बिना पारिश्रमिक लिए करते हैं, जिसके बदले में खेत का स्वामी श्रमदान करने वालों को दावत देता है. इस कार्य में बच्चे बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं जो बड़ी संख्या में गन्ना बोने में सहयोग कर रहे हैं आर दावतें खा रहे हैं. इस समय गाँव में दावतों का दौर चल रहा है. यद्यपि मैं किसान नहीं हूँ किन्तु गाँव वाले मुझ से भी श्रमदान करा रहे हैं और दावत खिला रहे हैं. लगभग ५० वर्ष पहले ऐसी दावतों में कढी-फुलका तथा दाल-चावल हुआ करते थे किन्तु अब खीर-पूड़ी का प्रचलन है. खीर तो  स्वादिष्ट होती है और कोई विकार भी उत्पन्न नहीं करती किन्तु इसकी सहभागिनी पूड़ियाँ तैलयुक्त होने के कारण पेट की व्याधियां उत्पन्न करती हैं.

प्रायः किसान के फसल पकाने के समय उत्पाद के भाव कम होते हैं जो व्यापारियों द्वारा बाद में बढ़ा दिए जाते हैं. किन्तु धान के बारे में इस बार ऐसा नहीं हुआ. जो धान फसल के समय ३५ रपये प्रति किलोग्राम से विक्रय हो रहा था वह अब १८ रुपये पर पहुँच गया है. अतः जिन किसानों ने अपना धान नहीं बेचा था वे अब बर्बादी अनुभव कर रहे हैं. यह किसी भी दृष्टि से प्राकृत नहीं है अतः कृत्रिम है तथा इसके पीछे कोई षड्यंत्र है. ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों को धान की फसल से विमुख कर गन्ने की फसल बोने के लिए प्रेरित करने के उद्येश्य से ऐसा किया गया है. गन्ने की अधिकता होने से गन्ना मीलों की क्षमता कम रहेगी जिससे किसानों को गन्ना सस्ती दरों पर देने की विवशता हो जायेगी. ८० के दशक में भी ऐसा हुआ था जब किसानों द्वारा गन्ने की फसल को खेतों में ही जलाना पडा था. धान आदि की फसल की अधिकता होने से उसे भविष्य के लिए भंडारित किया जा सकता है अथवा निर्यात किया जा सकता है किन्तु गन्ने की फसल न तो निर्यात की जा सकती है और ना ही इसे भविष्य के लिए भंडारित रखा जा सकता है.  अतः इस बार गन्ने की अधिकता किसानों के लिए संकट का कारण बन सकती है.

गन्ने की फसल की अधिकता का दुष्प्रभाव दूसरी फसलों जैसे गेंहू, मक्की, धान, aadi का अभाव होगा जिससे इन आवश्यक वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ेंगे. इस प्रकार एक विसंगति अनेक विसंगतियों को जन्म देगी जिसकी ओर किसानों अथवा सर्वकार का कोई ध्यान नहीं है. 

उप

Mr. Holland's Opus'उप' शब्द का उपयोग संस्कृत तथा हिंदी में एक प्रत्यत के रूप में होता है, किन्तु शास्त्रों में यह प्रत्यत के अतिरिक्त एक स्वतंत्र शब्द भी है और अंत्यत के रूप में भी उपयोग किया गया है. शास्त्रों में यह शब्द ग्रीक भाषा के शब्द  'ops'  से उद्भूत है जिसका अर्थ 'आँख' है. तदनुसार लैटिन भाषा के शब्द  'opus'  का अर्थ दृश्य वस्तु अथवा रचना है. अतः शास्त्रों में इस शब्द के प्रत्यत अथवा अंत्यत उपयोग इससे जुड़े शब्द के दृश्य रूप के लिए किया गया है. जैसे शास्त्रीय शब्द 'उपयोग' का अर्थ 'औषधि का स्वरुप' है. इस प्रकार शास्त्रीय प्रत्यत 'उप' का अर्थ हिंदी के 'रूप' के समतुल्य लिया जा सकता है.

वराह, वराहावतार

Seaशास्त्रों में 'वराह' शब्द अरबिक, पर्शियन, आदि भाषाओँ के शब्द 'बहर' के समानार्थक है जिसका अर्थ  'जल प्रवाह' अथवा 'जलाशय' है. इस प्रकार वराह शब्द के अर्थ 'नदी' तथा 'समुद्र' भी हैं. उत्तरी भारत में किसान अपने खेतों की सिंचाई के लिए उपयुक्त नाली को 'बराह' कहते हैं जो 'वराह' का ही विकृत रूप है. आधुनिक संस्कृत का शब्द 'प्रवाह' भी इसी भाव में उपयोग किया जाता है.

वराह शब्द से ही 'वराहावतार' शब्द बना है जिसका अर्थ 'समुद्र अथवा नदी को पार कर जाने वाला व्यक्ति' है क्योंक कि 'अवतार' का अर्थ 'पराजित करने वाला' व्यक्ति है.  

अवतार

Victor/Victoriaशास्त्रीय शब्द 'अवतार' कर वास्तविक अर्थ 'पराजित करने वाला' है क्योंकि यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द  'abatuere'  से बना है जिसका अर्थ 'पराजित कर मान घटाना' है. इस प्रकार शब्द 'कृष्णावतार' का अर्थ 'कृष्ण को पराजित करने वाला' है, जबकि आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'कृष्ण नामक ईश्वरीय रूप' है जिसका शास्त्रों के लिए कोई महत्व नहीं है.