मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

भक्ति का ढकोसला

भक्ति, ईश्वर की अथवा अन्य किसी महापुरुष की, भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, बिना इसका वास्तविक अर्थ समझे अथवा बिना इसे सार्थक बनाए. इसका अर्थ बस यह लिया जाता है कि इष्टदेव पर यदा-कदा कुछ फूल समर्पित कर दिए जाएँ अथवा उसके नाम पर कुछ लाभ कमा लिया जाए भक्ति की इस कुरूपता का मूल कारण यह है कि भक्ति का आरम्भ ही स्वार्थी लोगों ने अपने हित-साधन हेतु किया. अन्यथा किसी भी व्यक्ति को किसी की भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है. उसे तो बस निष्ठावान रहते हुए अपना कर्म करना चाहिए. भक्ति ईश्वर की परिकल्पना की एक व्युत्पत्ति है और उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कि ईश्वर की परिकल्पना. किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक होने के कारण स्वार्थी समाज द्वारा निरंतर पनापाये जा रहे हैं.

भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.

भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.

राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.

भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
How History Made the Mind: The Cultural Origins of Objective Thinking

भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता. 

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

आस्तिकता, नास्तिकता और अज्ञता

तीन प्रचलित वाद - आस्तिवाद, नास्तिवाद, और अज्ञवाद, मानवता में प्रचलित हैं. आस्तिवाद मनुष्य के कर्म और उसके अस्तित्व की अवहेलना करता है और सब कुछ ईश्वर के अधीन मानते हुए उसी के ऊपर छोड़ने के पक्ष में है. इसके विपरीत नास्तिवाद है जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता और मनुष्य के कर्म और अस्तित्व को ही महत्व देता है. तीसरा वाद बहुत अधिक प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे समझने में विरोधाभास हैं. आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में मानते हैं. इसलिए इस विषय पर कुछ विशेष चर्चा वांछित है. यहीं स्पष्ट कर दूं कि मैं निश्चित रूप से सुविचारित नास्तिवादी हूँ.


अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.

आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.

उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.

इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.

मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
Co-Opetition : A Revolution Mindset That Combines Competition and Cooperation : The Game Theory Strategy That's Changing the Game of Business

प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

उत्तर प्रदेश की राजनैतिक हलचल

 उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव लगभग १४ महीने दूर रह गए हैं, इसलिए राजनैतिक दलों और संभावित प्रत्याशियों ने अपनी तैयारियां आरम्भ कर दी हैं. प्रत्याशियों की घोषणा में बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे रहती है जिससे कि प्रत्याशियों को अपने चुनाव प्रचार के लिए लम्बा समय प्राप्त हो जाता है. अभी यह सत्ता में भी है, इसका नैतिक-अनैतिक लाभ भी इसके प्रत्याशियों को प्राप्त होगा. आशा है १-२ महीने में बसपा के प्रत्याशी मैदान में होंगे. कांग्रेस प्रत्याशियों की घोषणा में सबसे पीछे रहती है. उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रत्याशियों का चयन जातीय आधार पर किया जाता है जिसमें प्रबुद्ध जातियों और प्रत्याशियों की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. 


बिहार में हाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई है, इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी पड़ेगा जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ लाभ होने की आशा है. बसपा को जहां एक ओर सत्ता का लाभ प्राप्त होगा वहीं इसे सत्ता में रहते हुए कुछ विशेष न करने के कारण हानि भी होगी. तथापि यही एक दल है जिसके पास अपना मतदाता समाज है. कांग्रेस की केंद्र में सरकार है और देश में निरंतर बढ़ती महंगाई के लिए उत्तरदायी होने के कारण मतदाता इससे रुष्ट हैं. केंद्र सरकार के कांग्रेस नेताओं के भृष्टाचार में लिप्त होने के प्रचार-प्रसार से भी इस दल को भारी हानि होगी. प्रदेश में इसके पास कोई सक्षम नेता भी नहीं है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी केवल एक परिवार और उसकी जाति की पार्टी होने के कारण लुप्त होती जा रही है जिसकी वापिसी के कोई आसार नहीं हैं.


इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रमुख मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बसपा के मध्य होना निश्चित है. राजनैतिक दलों के पारस्परिक गठबन्धनों का प्रभाव भी चुनाव परिणामों पर होगा जिसके बारे में तभी कहा जा सकता है जब कोई गठबंधन हो पाए. भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता कल्याण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जाति की बहुलता के आधार पर अपना नया दल बना लिया है जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ हानि होगी. इस दल को उत्तर प्रदेश में कुछ हानि इस तथ्य से भी होगी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष की छबि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं है. जब कि बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की ही हैं और अछोत जाते की होने के कारण अन्य प्रदेशों में भी इस दल का प्रसार हो रहा है. यह दल मायावती को देश के भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रस्थापित करने के प्रयास करता रहा है और इसका लाभ उठाता रहा है. तथापि भारत में दलित राजनीति सदैव अल्पकालिक रही है और इस में संदेह किया जा सकता है कि मायावती कभी देश की प्रधान मंत्री बन पाएंगी. 


यदि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में बिहार जैसी स्थिति में आ जाए तो निकट भविष्य में यह केंद्र में सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सकती है. इसके लिए इसे अन्य सहयोगी दलों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना होगा. इस दल को एक बड़ा लाभ इसके अनुशासित कार्यकर्ताओं का भी प्राप्त होता है जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित होते हैं. इसके विपरीत इस दल को कट्टर हिंदूवादी माना जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता. यदि ये मतदाता बहुल रूप में बसपा को समर्थन दे दें तो भारतीय जनता पार्टी को कठिनाई में डाल सकते हैं. 
Planet India: The Turbulent Rise of the Largest Democracy and the Future of Our World


फिर भी आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि निष्ठावान इमानदार व्यक्ति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है. कुछ आशा की किरण दिखाई देती है तो भारतीय जनता पार्टी में ही है. 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अभ्यस्त होने की स्वायत्तता और विवशता

जीव के अवचेतन मन में जो समाहित होता है, वह स्वतः होता रहता है अथवा किया जाता रहता है. जो स्वतः होता रहता है वह शरीर के संतुलित सञ्चालन के लिए आवश्यक होता है इसलिए प्राकृत रूप से इस हेतु अवचेतन मन में समाहित होता है. जो कुछ व्यक्ति के अभ्यस्त होने के कारण किया जाता है वह भी उसके अवचेतन मन में समाहित होता है किन्तु इसे स्वयं व्यक्ति द्वारा ही प्रविष्ट कराया जाता है.

शरीर में पाचन, रक्त प्रवाह, आदि अनेक क्रियाएँ स्वतः संचालित होती रहती हैं जो एक श्रंखला द्वारा एक दूसरे से जुडी होती हैं और प्रकृति के कारण-प्रभाव सिद्धांत के अनुसार संचालित होती रहती हैं. किन्तु इनमें कोई अवरोध उत्पन्न होने से व्यक्ति का अवचेतन मन इन्हें नियमित करने का प्रयास करता है और असफल होने पर शरीर में अस्वस्थता के माध्यम से इसकी सूचना प्रदान करता है. अवचेतन मन में इस प्रकार की सूचनाओं की प्रविष्टि अंतर्चेतना से, माता-पिता से प्राप्त जींस के माध्यम से, अथवा व्यक्ति की पारिस्थितिकी के कारण होती है. यद्यपि इनका संचालन आदतों की तरह ही होता है किन्तु इनकी अनिवार्यता के कारण इन्हें आदत नहीं कहा जाता.

जो व्यक्ति बाइसाइकिल चलाने का अभ्यस्त है, उसे पैडल मारने पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं रहती, यह क्रिया उसके अवचेतन मन द्वारा स्वतः संचालित की जाती रहती है. इस स्वतः संचालन के लिए व्यक्ति को इस क्रिया में कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. किन्तु इस क्रिया के लिए व्यक्ति विवश अथवा लालायित नहीं रहता अथवा बाइसाइकिल देखते ही उसके पैर पैडल मारने के लिए उद्यत नहीं हो जाते. मिट्टी खाने के अभ्यस्त बच्चे का मन मिट्टी देखते ही उसे खाने के लिए ललचा उठता है और वह अवसर पाते ही उसे मुख में डाल लेता है. यह भी उसके अवचेतन मन द्वारा संचालित होता है और इसके लिए भी बच्चे को कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने की आवश्यकता होती है. .

इस प्रकार से कृत्रिम रूप से अभ्यस्त होने के दो प्रभाव होते हैं - एक, जिसमें व्यक्ति लालायित अथवा विवश नहीं होता, और दूसरा, जिसमें व्यक्ति विवश अथवा लालायित हो जाता है. सामान्यतः, दूसरी प्रकार की अभ्यस्तता का प्रभाव ही व्यक्ति की आदत कहा जाता है, जो अच्छी अथवा बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं. जो आदतें व्यक्ति अथवा मानव समाज के हित में नहीं होतीं उन्हें बुरी तथा इसके विपरीत जो आदतें व्यक्ति एवं सम्माज के हित में होती हैं उन्हें बुरी आदतें कहा जाता है. स्वाभाविक है कि समाज व्यक्ति में बुरी आदतों को छुडाने तथा अच्छी आदतें डालने के प्रयास करता है जिसके लिए मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाए जाते हैं.
The Now Habit: A Strategic Program for Overcoming Procrastination and Enjoying Guilt-Free Play

व्यक्ति में अपने पारिस्थितिकी के बारे में जिज्ञासा एक अंतर्चेतना के रूप में प्राकृत रूप से विद्यमान होती है, जिसके कारण वह कर्म करने के लिए उद्यत होता है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति की कामनाएं तथा हित-साधन भी उसे कर्म के लिए अथवा इसके विपरीत विवश करते हैं. कर्म करने अथवा न करने का तीसरा बड़ा कारण व्यक्ति का अपना संकल्प होता है जो उसकी जिज्ञासा, कामना अथवा हित साधन से निर्लिप्त हो सकता है. इस प्रकार व्यक्ति उक्त चार कारणों से कोई क्रिया करता है अथवा उसके विमुख होता है. इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति को बुरी आदतों से मुक्त किया जा सकता है अथवा उसमें अच्छी आदतों का समावेश किया जा सकता है.

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

वृद्धावस्था और सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र

धर्मात्मा और धर्मोपदेशक प्रायः लोगों को मृत्यु का स्मरण कराकर उन्हें भयभीत करते रहते हैं ताकि वे उनके माध्यम से भगवान् के शरणागत बने रहें और उनका धर्म और ईश्वर का व्यवसाय फलता फूलता रहे. ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है उसे मृत्यु का आतंक अधिकाधिक सताने लगता है. यह है इस कृत्रिम मानवता का तथ्य. किन्तु वास्तविक मानव का सत्य इसके एक दम विपरीत है.


मनोवैज्ञानिक शोधों से पाया गया है कि ज्यों-ज्यों व्यक्ति की आयु वृद्धित होती जाती है वह भावुक रूप में अधिकाधिक स्थिर और प्रसन्नचित्त रहने लगता है. इसके पीछे वह सिद्धांत है जिसे मैं 'सामाजिक-भावुकता का अर्थशास्त्र' कहना चाहूँगा. इसके अनुसार आयु में वृद्धि के साथ व्यक्ति को बोध होने लगता है कि अब उसके पास व्यर्थ करने योग्य पर्याप्त समय नहीं है. व्यक्ति अपनी सामान्य बुद्धि के आधार पर उसके पास जिस वस्तु का अभाव होता है, वह उसका अधिकाधिक सदुपयोग करता है. इस कारण से व्यक्ति वृद्धावस्था में समय का अधिकाधिक सदुपयोग करने के प्रयास करने लगता है. इस सदुपयोग में वह अधिकाधिक प्रसन्न रहने के प्रयास करता है, व्यर्थ की चिंताओं से दूर रहने लगता है, और समाज में सौहार्द स्थापित करना अपना धर्म समझने लगता है. जिसे कहा जा सकता है कि वह समाज के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है.

जनसंख्यात्मक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि जन्म और मृत्यु दरों में कमी आने के कारण आगामी समय में विश्व में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अधिक होगी. यहाँ तक कि कुछ लोगों का मत है कि ऐसे समय में वृद्धों की देखभाल करने के लिए युवाओं की संख्या भी पर्याप्त नहीं होगी. यह भय सच नहीं है क्योंकि वृद्धों की संख्या अधिक होने से मानव समाज भावुकता स्तर पर अधिक स्थिर, प्रसन्न और सामाजिक दायित्वों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा.

विश्लेषण के लिए हम तीन क्षेत्रों की वर्तमान जनसँख्या के आंकड़ों पर दृष्टिपात करते हैं -
संयुक्त राज्य अमेरिका -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८०.८ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १९.६%,
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६६.२%,
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १४.३%,

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.० वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - २१.२%
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६८.२%
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १०.३%

यूरोप -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ८१.६  वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १५.३ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६५.३ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - १९.४ %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ७५.१ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - १६.८ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६९.१ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - पुरुष १४.१ %

भारत -
स्त्री : (आशान्वित आयु - ६५.६ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३०.९ %, 
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.१ %, 
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ५.० %, 

पुरुष : (आशान्वित आयु - ६३.९ वर्ष)
० से १४ वर्ष आयु समूह  - ३३.७ %
१४ से ६५ वर्ष आयु समूह - ६४.४ %
६५ वर्ष से अधिक आयु समूह - ४.८ %

Population and Society: An Introduction to Demographyउपरोक्त जनसंख्यात्मक आंकड़ों से निम्नांकित तथ्य सामने आते हैं -

  • यूरोप में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से अभी भी अधिक है जो इस तथ्य का प्रमाण है कि वहां लोग अधिक स्वस्थ और दीर्घजीवी हैं. इसका अर्थ यह भी है कि वृद्धों की संख्या की अधिकता का जन स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव होता है. 
  • भारत में वृद्धों की संख्या बच्चों की संख्या से बहुत कम है जिससे जन-स्वास्थ की बुरी स्थिति का आभास मिलता है. 
अतः हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भारत जैसे देशों में वृद्धों की अधिकता से जन-स्वास्थ पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा और इससे कोई समस्या उठ खडी होने की संभावना नहीं है. वृद्धों के भावुक स्तर पर अधिक स्थिर होने का यही अर्थशास्त्र है. इसके विपरीत किशोरों और युवाओं में अवसाद, चिंताएं, व्यग्रता और निराशा जैसे ऋणात्मक भावों की अधिकता से सामाजिक भावुकता के अर्थशास्त्र पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है. अतः जहां तक वयता का प्रश्न है भावी मानव समाज अधिक साधन-संपन्न, विनम्र और बुद्धिमान सिद्ध होगा.