भारत विगत 5 वर्षों में आवश्यक वस्तुओं के मूल्य, सरकारी तंत्र में भृष्टाचार और बेरोजगारी तीव्र गति से बढ़ते रहे हैं और शासक-प्रशासक जनसामान्य की विवशता पर अपने वैभवों में वृद्धि करते रहे। एक और सत्तासीन राजनेता, राज्यकर्मी और बड़े व्यवसायी घरानों और दूसरी और शेष जनसँख्या में निरंतर बढ़ती आर्थिक दूरी ने मानवीय मूल्यों में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिए। जहाँ वैभवशाली वर्ग जनसामान्य की दृष्टि में राक्षसीय प्रतिमान बन गया, वहीँ दूसरी ओर वैभवशाली वर्ग की दृष्टि में निस्सहाय त्रस्त जनता अधीनस्थ पशु-मानव समुदाय मानी जाने लगी जिसका व्यापक शोषण प्रथम वर्ग के वैभवों के लिए प्रचलन बन गया। ऐसी स्थिति में जनसामान्य बौखला गया और वैभवशाली वर्ग से विद्रोह को अधीर हो गया।