रविवार, 15 अप्रैल 2012

चलें गाँव की ओर



भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ अधिकतर लोग गाँव में निवास करते हैं. किन्तु गाँव और शहर की सुविधाओं में अंतराल बढ़ता जा रहा है. शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, संचार, यातायात, आदि जहाँ शहरों में सर्व-सुलभ हैं, वहीं ये सुविधाएँ गाँव में अभी भी दुर्लभ हैं. यह भी एक बड़ा कारण है की गाँव से लोगों का पलायन शहरों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. इससे गाँव उजड़ते चले जा रहे हैं. बढ़ाते शहरीकरण के कारण शहरों में भी जन-समस्याओं का अम्बार लग गया है. शहरों में आज सबसे बड़ी समस्या पीने के शुद्ध पानी की है, पानी दूध से भी महंगा हो गया है. शहरों में रहने वाले गरीब प्रदूषित पानी पीने के लिए मजबूर हैं. योजना आयोग के आंकड़े भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं. जहां ३२ रुपये प्रतिदिन कमाने वाला शहरी व्यक्ति गरीबी रेखा के अंतर्गत नहीं आता. यदि वह शुद्ध पानी पीना चाहे तो वह अपनी कमाई से केवल पानी भी नहीं पी सकता, भोजन, वस्त्र आदि तो दूर की बातें हैं.

शहरों की बढ़ती आबादी की दूसरी सबसे बड़ी समस्या उत्सर्जित पदार्थों के ढेर हैं जहां केवल मॉल-मूत्र से ही भूजल तथा शहरों के पास बहने वाली नदियाँ प्रदूषित हो गयी हैं. वहां सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का भी अभाव है. छोटे-बड़े शहरों के आसपास वायु में जहरीले द्रव्यों की मात्रा जीवन मानकों बहुत अधिक है. बढ़ते शहरीकरण की तीसरी समस्या खतरनाक बीमारियाँ जैसे स्वाइन फ्लू, कैंसर, आदि का प्रसार है जिनका भय हर समय बना रहता है और देखते ही देखते लोग अकाल मृत्यु के शिकार होते जा रहे हैं.

शहरीकरण के अंधे दौर ने मनुष्यों को शारीरिक कष्ट ही नहीं दिए, सम्माजिक प्राणी की मानसिक शांति को भी भंग कर दिया है. मनुष्य को उसके प्राकृतिक गुणों प्रेम, दया, परोपकार, समाज-सेवा आदि से दूर कर उसमें अहंकार, भृष्टाचार, दुश्मनी, ईर्ष्या, आदि के बीज बो दिए हैं. वह अधिकाधिक धन कमाने की होड़ में परिवार और समाज से कट चुका है और माता-पिता, पिता-पुत्र, भाई-बहन, आदि के रिश्ते भी केवल कागजी रह गए हैं.


देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने जो सपना देखा था वह धूमिल हो गया है तथा संविधान में दी गयी कल्याणकारी राज्य की स्थापना का संकल्प बेमानी हो गया है क्योंकि गाँव में शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, संचार, यातायात आदि की आवश्यक सुविधाओं के अभाव में गाँव से पलायन जारी है.

आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सरकार की जो भी योजना बनायी जाएँ, वे गाँव को आधार बनाकर बनाई जाएँ. गाँव में रोज़गार के अवसर बढ़ाये जाएँ, कुटीर उद्योगों का विकास हो और शहरीकरण की को सीमित किया जाए, ताकि गाँव से शहरों की ओर को पलायन रुके.

हालांकि सरकार में बैठे जन-प्रतिनिधि, प्रशासक, योजना बनाने वाले लोगों में से अधिकाँश गाँव की मिट्टी में ही पाले-बढे हैं, लेकिन शहरों की चकाचौंध में वे गाँव की पगडंडी, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक, मोर का नांच आदि को भूल गए हैं और वे केवल फिल्म, टेलीविजन, आदि के कृत्रिम आनंद में वास्तविकताओं से दूर हो मानसिक अशांति को बढाते जा रहे हैं. 


आइये, हम सब मिलकर अपनी मात्र भूमि के ऋण से मुक्त होने के लिए अपने-अपने गाँव के लिए अपने-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ करें तथा सरकारी योजनाओं में हस्तक्षेप कर उन्हें ग्रामोन्मुखी बनाने के प्रयास करें तथा अपने-अपने गाँव को समृद्ध करें. अपना तन, मन, धन आदि सभी कुछ अपनी मात्र भूमि के लिए समर्पित करें.


स्वतन्त्रता सैनानियों के गाँव खंदोई से आरम्भ हुए अभियान 'अपनी मात्रभूमि के लिए' में आप सभी सम्मिलित हों ताकि मानवता को समस्याओं से मुक्ति मिले, मन को शांति तथा मन को चैन मिले. तभी 'मेरा गाँव मेरा देश' का सपना साकार होगा.

1 टिप्पणी:

  1. सहमत हूँ आपकी बातों से सार्थक एवं सारगर्भित आलेख....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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