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मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

भक्ति का ढकोसला

भक्ति, ईश्वर की अथवा अन्य किसी महापुरुष की, भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, बिना इसका वास्तविक अर्थ समझे अथवा बिना इसे सार्थक बनाए. इसका अर्थ बस यह लिया जाता है कि इष्टदेव पर यदा-कदा कुछ फूल समर्पित कर दिए जाएँ अथवा उसके नाम पर कुछ लाभ कमा लिया जाए भक्ति की इस कुरूपता का मूल कारण यह है कि भक्ति का आरम्भ ही स्वार्थी लोगों ने अपने हित-साधन हेतु किया. अन्यथा किसी भी व्यक्ति को किसी की भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है. उसे तो बस निष्ठावान रहते हुए अपना कर्म करना चाहिए. भक्ति ईश्वर की परिकल्पना की एक व्युत्पत्ति है और उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कि ईश्वर की परिकल्पना. किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक होने के कारण स्वार्थी समाज द्वारा निरंतर पनापाये जा रहे हैं.

भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.

भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.

राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.

भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
How History Made the Mind: The Cultural Origins of Objective Thinking

भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता. 

रविवार, 22 अगस्त 2010

समाज का जातीय विभाजन

भारत में एक विशिष्ट वर्ग है जो सबसे पहले लोगों को नष्ट करता है, सफल न होने पर उन्हें भृष्ट करता है, भृष्ट न कर सकने पर उनकी चापलूसी करता है, और इसमें भी सफल न होने पर उन्हें स्वयं का अंग घोषित कर देता है. इसी वर्ग ने लोगों को भृष्ट करने के लिए उनमें जातीय विष फैलाया - व्यवसायों को जातियों से सम्बद्ध कहकर. तदनुसार, जिसने कभी एक बार किसी विवशता में कोई तुच्छ कार्य कर लिया, उसकी सन्ततियां सदा-सदा के लिए शुद्र ही रहेंगी चाहे वे कितने भी महान कार्य क्यों न करें. चूंकि यह वर्ग सुविधा-संपन्न होने के कारण समाज का अगुआ बना इसलिए जातीय आधार पर इसकी सन्ततियां भी समाज की अगुआ ही बनी रहीं चाहे वे कितने भी घृणित कार्य क्यों न करें.

एक उदाहरण देखिये - विष्णुगुप्त चाणक्य एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें कोई पराजित नहीं कर सका. इन्हीं से भारत में गुप्त वंश का आरंभ हुआ. एक विशेष प्रयोजन के लिए इन्होने एक छद्म रूप धारण किया था - ब्राह्मण का, अर्थात एक सृजनकर्ता का. उस समय तक भारतीय समाज का जातीय विभाजन नहीं हुआ था. इसलिए विष्णुगुप्त की कोई जाति नहीं थी. वे युगपुरुष थे.

उक्त विशिष्ट वर्ग ने समाज के जातीय विभाजन के लिए एक सुप्रसिद्ध देव्ग्रंथ 'मनुस्मृति' के भृष्ट अनुवाद और भाष्य आदि प्रकाशित कर तत्कालीन व्यवसायों को जातियां बना दिया और निर्धारित कर दिया कि जो व्यक्ति जो व्यवसाय कर रहा है उसकी सन्ततियां भी वही व्यवसाय करती रहेंगी. चूंकि यह वर्ग छल-कपट के माध्यम से वैभवशाली जीवन जी रहा था, इसलिए इसने स्वयं के लिए इसे ही व्यवसाय बना लिया. धर्म, ईश्वर, आदि के नाम पर ज्योतिष, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, आदि अनेक मनगढ़ंत छल-कपट पूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और इन्हीं के माध्यम से समाज को भ्रमित करने को अपना व्यवसाय बना लिया. इसी वर्ग ने विष्णुगुप्त चाणक्य को ब्राह्मण घोषित किया हुआ है.

जातीय विभाजन का यह घृणित कार्य गुप्त वंश के शासन के बाद किया गया जब भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था और यह वर्ग सर्वव्यापक राजगुरु पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था. इसी समय आधुनिक संस्कृत का विकास किया गया जिसमें वैदिक संस्कृत की शब्दावली का उपयोग तो किया गया किन्तु उनके अर्थ विपरीत कर प्रकाशित दिए गए. तदनुसार वैदिक ग्रंथों के अनुवाद भी भृष्ट कर दिए गए और उनके माध्यम से धर्म, ईश्वर, ज्योतिष, आदि शब्दों के प्रदूषित अर्थ और भाव प्रकाशित कर समाज के जातीय विभाजन को बहुविध पुष्ट किया गया.

उक्त पुष्टि और समाज पर उक्त वर्ग के अंकुश बने रहने के कारण भारतीय समाज का जातीय विभाजन आज तक यथावत चल रहा है, इस विभाजन का सातत्व बनाये रखने के लिए जाति के अंतर्गत ही विवाह की प्रथा बनायी गयी. इससे समाज में लगी  जातीय दीवारें नित्यप्रति पुष्ट होती रहती हैं.

आरम्भ में केवल चार जातियां बनायी गयीं जिन्हें वर्ण कहा गया. उसके बाद वर्णों में जातियां और उपजातियां बनायी जाती रही हैं. इसे व्यक्त करने के लिए कहा गया है -
'ज्यों केले के पात में, पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात में जात जात में जात'

स्वतन्त्रता के बाद स्थापित तथाकथित जनतंत्र में यह जातीय विभाजन विष का कार्य कर रहा है. चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति से ही अटूट रूप से जुदा है, इसलिए वह जनतांत्रिक चुनावों में भी जाति को ही आधार बनाता है, प्रत्याशियों की सुयोग्यता पर कोई विचार नहीं किया जाता. इस कारण भारत की राजनैतिक सत्ता उन लोगों के हाथों में खिसकती जा रही है जो संतान उत्पादन में अग्रणी और शिक्षा आदि में पिछड़े हुए हैं. जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर विविध प्रकार के आरक्षण जातीय विष को और भी अधिक तीक्ष्णता प्रदान कर रहे हैं. अपने पारस्परिक संयोग से जातीय विभाजन और आरक्षण नित्यप्रति पुष्ट होते जा रहे हैं.
The Population Explosion

भारत में जनसँख्या विस्फोट भी इसी जातीय विभाजन का परिणाम है. इसके कारण अनेक जातियां अपनी-अपनी जनसँख्या में केवल इसलिए अत्यधिक वृद्धि कर रहें हैं ताकि एक दिन देश की राजनैतिक सत्ता उनके पास सदा-सदा बनी रहे. यदि स्थिति इसी दिशा में आगे बढ़ती रही तो भारत विनाश अवश्यम्भावी है.      

गुरुवार, 10 जून 2010

देवभूमि भारत का सतत सांस्कृतिक प्रदूषण

आज से लगभग २,४०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित भारत का विकास किया जा रहा था जिसकी ख्याति सुदूर भूभागों में भी पहुँची. ऐसे भारत पर अधिकार करने हेतु कुछ षड्यंत्रकारियों ने योजना बनायी जिसके अंतर्गत भारत को  सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित किया गया. इन षड्यंत्रकारियों ने दो मनोवैज्ञानिक शस्त्र विकसित किये - ईश्वर और धर्म, और इन्हें लेकर भारत में अपने पैर पसारे. तब से अब तक ये शस्त्र प्रभावी रूप में कार्य कर रहे हैं और देश की जनसँख्या का एक विकराल वर्ग इनके बहुविध प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है और जन-मानस को प्रदूषित कर उस पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किये हुए है. इसका आरम्भ भारत में यहूदियों के आगमन से हुआ जिन्हें उस समय यदुवंशी कहा गया.

शनैः-शनैः विश्व भर में भारत के शत्रु बढ़ते गए और वे अनेक नामों से आकर भारत में बसते रहे और यदुवंशी समूह में सम्मिलित होते रहे तथा जिन्हें वामन भी कहा गया. इससे यह वर्ग और विकराल हुआ और अपना नाम 'यवन' भी रखा क्योंकि यवन जाति इस वर्ग की सर्वाधिक शक्तिशाली जाति थी और यह जाति भारत पर राजनैतिक शासन की स्थापना करना चाहती थी. इस प्रकार वामन सामाजिक और यवन राजनैतिक शासन की अपनी आकांक्षाओं के लिए कार्य करते रहे. राजनैतिक उथल-पुथलों में यवन साम्राज्य तो नष्ट हो गया किन्तु वामनों का सांस्कृतिक प्रदूषण के माध्यम से स्थापित मनोवैज्ञानिक शासन आज तक सतत चल रहा है. इससे एक तथ्य यह उजागर होता है कि किसी भी समाज का सांस्कृतिक प्रदूषण उस पर राजनैतिक आक्रमण से कहीं अधिक घातक और दूरगामी होता है.

इस सांस्कृतिक प्रदूषण का सबसे घातक छल यह रहा है कि आरम्भ में इसके लिए कोई ग्रन्थ ना लिखा जाकर देवों द्वारा रचित वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली के अर्थ प्रदूषित कर उनके मंतव्यों को सांस्कृतिक प्रदूषण के हित में मोड़ लिया गया. इस घ्रणित उद्येश्य की प्राप्ति हेतु आधुनिक संस्कृत भाषा का विकास किया गया जिसका वेदों और शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं होते हुए भी इन बहुमूल्य ग्रंथों के अनुवाद इसी भाषा के आधार पर किये गए. इस प्रकार इस सांस्कृतिक प्रदूषण को समाज की सहज मान्यता मिल गयी क्योंकि यह समाज देवों के वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से भरपूर वेदों और शास्त्रों को पहले से ही सम्मान देता आया था. इस प्रकार वेदों और शास्त्रों के अर्थों का प्रदूषण भारत के सांस्कृतिक प्रदूषण का आधार बना. इसी आधार पर सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु नए उपाय विकसित किये गए जिनमें अध्यात्म, ज्योतिष, भिक्षावृत्ति, गुरु-शिष्य परम्परा, यंत्र और तंत्र विद्याएँ, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, अवतारवाद, भाग्यवाद, पूजा-पाठ, यज्ञ, योग-विद्याएँ, आदि प्रमुख हैं जो सभी ईश्वर आर धर्म की छलिया परिकल्पनाओं के विस्तार हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रसार हेतु अनेक कारक विकसित किये गए जिनमें साधू-महात्मा, संत, सन्यासी, भिखारी, पुजारी, योगी, अध्यात्मवादी, धर्माचार्य, मठाधीश, ज्योतिषी, कर्मकांडी पंडित, तांत्रिक, भिखारी, आदि आज भी सक्रिय हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण को और भी बल मिला जब इस्लामी लुटेरों ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया जो लगभग ८०० वर्ष चला. इस शासन ने कुछ नए कारक इस प्रदूषण को प्रदान किये जिन्हें मुल्ला-मौलवी, फकीर, सूफी, आदि कहा जाता है. 
The Effects of Air Pollution on Cultural Heritage
आज इस सांस्कृतिक प्रदूषण में भारत की लगभग ५ प्रतिशत प्रतिष्ठित जनसँख्या संलग्न है जो बिना कोई उत्पादक कार्य किये केवल भ्रमों को प्रचारित करते हुए वैभव भोग रही है. बच्चे के जन्म से ही उसके मानस को प्रदूषित किया जाता है जिसके दुष्प्रभाव से वह जीवन पर्यंत उबर नहीं पाता. यह जनसँख्या प्रतिशत उस समय अपने चरम पर था जब सिद्धार्थ ने लाखों युवाओं को बौद्ध भिक्षु बनाकर इस सांस्कृतिक प्रदूषण को गौरव प्रदान किया. दुःख का विषय यह है कि देश में इस प्रदूषण का कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं किया गया - केवल स्वामी रामानंद और उनके प्रिय शिष्य कबीर के अतिरिक्त. 

यह सांस्कृतिक प्रदूषण मानवीय सभ्यता विकास के विरुद्ध कार्य करता है जिसके कारण मूल भारतीय सभ्यता का ह्रास हुआ है और इस प्रदूषित संस्कृति को ही भारत की महान संस्कृति कहा जाने लगा है. यह प्रदूषण मानव बुद्धि को कुंठित कर उसकी चिंतन सामर्थ्य को नष्ट करता है. जनमानस में ईश्वर का आतंक और उसका धर्मावलंबन इसके प्रमुख शस्त्र हैं.        

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

अकादेमी की महत्वपूर्ण देने

अफलातून की अथेन्स में स्थापित अकादेमी की विश्व को सर्वाधिक विनाशकारी देनें ईश्वर, धर्म और अध्यात्म हैं. ईश्वर के नाम से मनुष्यों को भयभीत किया जाता है, धर्म उनकी बुद्धि को सुषुप्त  करता है तथा अध्यात्म उन्हें एक अनंत परिनामविहीन यात्रा पर बने रहने को उत्साहित करता है. इन के माद्यम से चतुर लोग जान-साधारण पर सरलता से अपना शासन बनाए रखते हैं. ये सभी पूरी तरह सारहीन हैं तथा मनुष्यों पर केवल मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाये रखती हैं. लम्बे समय तक चलते रहने से ये जान-मानस को एक विकृत संस्कृति के रूप में जकड लेती हैं जिससे इनसे पीछा छुड़ाना सरल नहीं होता. अकादेमी ने इन पर शोध किये और विश्व मानवता को गुलाम बनाने हेतु इनको विकसित किया.

यहाँ यह स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि धर्म उस समय वेदों में प्रयोग किया गया लातिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ 'सोना' या 'सुलाना' है. अकादेमी में इस शब्द का अर्थ बदला और इसे मनुष्यों कि जीवन-चर्या में ईश्वर का प्रासंगिक बना दिया किन्तु इसका प्रभावी अर्थ वही रखा अर्थात ईश्वर के प्रसंग से धर्म द्वारा मनुष्यों कि बुद्धि को सुषुप्त करना. अफलातून तथा अरस्तु दोनों भारत निर्माण प्रक्रिया से प्रभावित थे और इसे अपने अधिकार में लेने को लालायित थे. वस्तुतः ईश्वर, धर्म तथा अध्यात्म जैसे झूठी मान्यताएं विकसित करने के पीछे उनका लक्ष्य भारत पर अधिकार करना था.


इन शोध परिणामों को कार्यान्वित करने की दिशा में सर्व प्रथम यहूदी धर्म बनाया गया. इसके अनुनायियों का एक विशाल दल भारत में धर्म का प्रसार करने हेतु भेजा गया. यही दल अपने साथ गाय और गन्ना लेकर आया जिनको भारत भूमि पर विकसित किया गया. यह भारत में यदु वंश का आगमन था. यदु वंश का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में बनाया गया जिसका तत्कालीन नाम मथुरा था. वेबस्टर dictionary  के अनुसार आज के मथुरा का तत्कालीन नाम मूत्र था. इस दल के अनुयायी जान-समुदायों में साधुओं के रूप में स्थापित हो गए और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म का प्रचार प्रसार करने लगे.
जब ईश्वर का भय और धर्म का सुषुप्ति प्रभाव लोगों को भ्रमित करने लगा तो विकास कार्य में लगे देवों ने इनका विरोध करना आरम्भ किया जिससे देवों तथा यदुओं में संघर्ष कि स्थिति उत्पन्न हो गयी.

अकादेमी ने उक्त संघर्ष में यदुओं कि सहायता के लिए आगे शोध किये और एक गर्भवती यदु स्त्री यशोदा के गर्भ से मूल भ्रूण निकालकर एक अन्य भ्रूण को बैंगनी वर्ण में रंग कर स्थापित कर दिया जिसके परिणाम-स्वरुप बैंगनी वर्ण का कृष्ण उत्पन्न हुआ. इस विशिष्ट रंग के शिशु को ईश्वर का अवतार घोषित कर जोरों से इसका प्रचार प्रसार किया गया. अकादेमी के विशेषज्ञों का एक दल आज के श्रीलंका द्वीप पर ठहरा और कृष्ण को छल-कपट तथा बाजीगरी कि कलाओं में प्रशिक्षित करने लगा. इन कलाओं के माध्यम से जन-साधारण में कृष्ण को ईश्वर के अवतार के रूप में सिद्ध करना सरल हो गया. गोवर्धन पर्वत का उठाना, शेष-नाग को वशीभूत करना आदि इन्ही बाजीगरी कलाओं के रूप थे जिनके माध्यम से जन-साधारण को कृष्ण कि अद्भुत क्षमताओं से प्रभावित किया गया.

जैसे-जैसे कृष्ण बड़ा होता गया, उसका ईश्वरीय आतंक देवों के विरुद्ध विकराल रूप धारण करता गया जिसमें उसे जन-साधारण का समर्थन भी प्राप्त हो रहा था. छल-कपटों तथा बाजीगरी कलाओं से देवों को मन-गढ़ंत कहानियों के प्रचार-प्रसार से बदनाम किया जाने लगा तथा उनकी एक-एक करके हत्याएं की जाने लगीं जिनमे कंस, कीचक, जरासंध, रक्तबीज आदि प्रमुख थे.

यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि धर्मावलम्बियों ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा केवल देव ग्रंथों के गलत अनुवाद करके उनमे ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, कृष्ण आदि विषयों को आरोपित किया. इस कार्य में शंकराचार्य ने विशेष भूमिका निभायी क्योंकि उस समूह में वही एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था. गलत अनुवादों को पुष्ट करने के लिए वेदों तथा शास्त्रों में प्रयुक्त लातिन एवं ग्रीक शब्दावली के अर्थ बदले गए और नए अर्थों को पुष्ट करने के लिए आधुनिक संस्कृत भाषा बनाई जिसका वेदों तथा शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं है. इन दोषपूर्ण अनुवादों के कारण ही जन-मानस में कृष्ण आज तक भगवन के रूप में स्थापित है.