भक्ति, ईश्वर की अथवा अन्य किसी महापुरुष की, भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, बिना इसका वास्तविक अर्थ समझे अथवा बिना इसे सार्थक बनाए. इसका अर्थ बस यह लिया जाता है कि इष्टदेव पर यदा-कदा कुछ फूल समर्पित कर दिए जाएँ अथवा उसके नाम पर कुछ लाभ कमा लिया जाए भक्ति की इस कुरूपता का मूल कारण यह है कि भक्ति का आरम्भ ही स्वार्थी लोगों ने अपने हित-साधन हेतु किया. अन्यथा किसी भी व्यक्ति को किसी की भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है. उसे तो बस निष्ठावान रहते हुए अपना कर्म करना चाहिए. भक्ति ईश्वर की परिकल्पना की एक व्युत्पत्ति है और उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार कि ईश्वर की परिकल्पना. किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक होने के कारण स्वार्थी समाज द्वारा निरंतर पनापाये जा रहे हैं.
भारत में केवल भक्ति ही है जो निरंतर पनप रही है क्योंकि यह मनुष्य को दीनहीन बनाती है, जो इसे पनपाने वालों के लिए वरदान सिद्ध होता है, वे लोगों पर सरलता से अपना मनोवैज्ञानिक साम्राज्य बनाए रखते हैं. भक्ति की सदैव विशेषता रही है इसका पोषण करने वाले स्वयं कभी किसी के लिए भक्ति भाव नहीं रखते, क्योंकि वे इसकी निरर्थकता जानते हैं. वे इसे बस एक व्यवसाय के रूप में विकसित करते रहते हैं.
भारत में भक्ति का आरम्भ देवों और यवन-समूह के मध्य महाभारत संघर्ष के समय हुआ जो यवन-समूह द्वारा किया गया. तभी ईश्वर के वर्तमान अर्थ की परिकल्पना की गयी और कृष्ण को ईश्वर का अवतार घोषित किया गया और लोगों को उसकी भक्ति में लीं रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. कृष्ण ने भी बढ़-चढ़ कर स्वयं को विश्व का सृष्टा और न जाने क्या-क्या कहा. उसी समय राम की महिमा भी थी किन्तु राम ने कभी कहीं स्वयं को दिव्य शक्ति आदि कुछ नहीं कहा. यही विशेष अंतर है जो नकली और असली महापुरुषों में होता है.
राम देव जाति के प्रमुख थे और लोगों को परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, काल्पनिक दिव्य शक्तियों की भक्ति आदि उनके जीवन में कहीं नहीं पायी जाती. वे निष्ठापूर्वक सम्मान करते थे वह भी पार्थिव व्यक्तित्वों का. यही उनके लिए श्रेष्ठ मानवीय मार्ग था.
भारत में भक्ति के प्रचार-प्रसार का परिणाम देश और समाज के लिए अनेक रूपों में घातक सिद्ध हुआ - लोग अकर्मण्य बने, शत्रुओं ने आक्रमण किये और लोग उनके अत्याचारों को दीन-हीन बने सहते रहे, देश हजारों वर्ष गुलाम बना रहा - वह भी चोर-लुटेरी जातियों का.
भक्ति में आस्था होने से व्यक्ति की कर्मठता दुष्प्रभावित होती है क्योंकि वह अपने कर्म से अधिक ईश्वर की कृपा पर आश्रित हो जाता है. जन-मानस पर भक्ति का सर्वाधिक घातक प्रहार निष्काम-कर्म की परिकल्पना द्वारा हुआ, जिसमें लोगों को परिणाम से निरपेक्ष रहते हुए और सर्वस्व को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया. जबकि व्यवहार में कभी भी किसी भी व्यक्ति ने बिना परिणाम की आशा के कोई कर्म नहीं किया है. यदि कोई करता भी है तो कर्म में उसकी आस्था क्षीण ही रहती है और वह अपने कर्म को उत्तम तरीके से नहीं कर पाता.
ekdam sahi baat !
जवाब देंहटाएंvery nice for this comment.
जवाब देंहटाएंEkdam sahi baat hain sir............
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