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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

भारतीय विचारकों के दृष्टिकोण - भाग एक

श्री जगदीश गाँधी 

डॉ जगदीश गाँधी लखनऊ नगर के सुप्रसिद्ध एवं कर्मठ शिक्षाविद हैं. नगर का सर्वश्रेष्ठ  विद्यालय  'सिटी मोंटेसरी स्कूल' उनकी कर्मठता का जीवंत प्रतीक है. आज ही उनका एक  पत्र प्राप्त हुआ है जिसके साथ उन्होंने अपना एक सुविचारित आलेख 'परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं' भी प्रकाशनार्थ संलग्न किया है. यद्यपि मैं आलेख में उल्लिखित उनके अनेक दृष्टिकोणों से सहमत नहीं हूँ, तथापि उनका आलेख इतना विचारोत्तेजक है कि उस की अवहेलना नहीं की जा सकती. साथ ही उनके विचारों को बिना अपनी टिप्पणी के प्रकाशित करना भी मेरे लिए संभव नहीं है. आलेख में जो विचारबिन्दु उन्होंने प्रस्तुत किये हैं, उनका विरोध किया जाना भी उतना ही तर्क विसंगत है जितना कि उनकी अवहेलना करना. अतः, उन पर वृहत विचार विमर्श की आवश्यकता है. इसी आशय से में उनके आलेख को यहाँ दो भागों में बिन्दुवार प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनपर विचार विमर्श हेतु मेरी टिप्पणियां भी संलग्न हैं. 

प्रस्तुत है इस श्रंखला का भाग एक -  

परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं   

(१) परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएं बनाएं : -
हमें परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए. रावण ने अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए जीवन-पर्यंत पूजा-पाठ किया और अंत में विनाश को प्राप्त हुआ. राम ने परमात्मा की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीवन जिया और वे राजा राम से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम बन गए. हमारा मानना है कि समाज सेवा के प्रत्येक कार्य को भगवन का कार्य मानकर करना ही जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है. नौकरी या व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया जा सकता है. जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने अपने एक भाषण में बहुत ही प्रेरणादायी बात कही, "अगर किसी को सड़क साफ़ करने का काम दिया जाए तो सफाई ऐसी करनी चाहिए जैसे महान चित्रकार माइकल अन्जेलो पेंटिंग कर रहा हो, जैसे विश्वविख्यात संगीतकार बीथोविन संगीत रचना में जुटे हों या शेक्सपिअर कोई कविता लिख रहे हों". काम कोई हो उसे ईश्वर की भक्ति और समाज सेवा की भावना के साथ करने से खुशी मिलती है और विनम्रता हासिल होती है. इसलिए हमें अपने प्रत्येक कार्य को पूरे मनोयोग तथा उत्साह से करना चाहिए.  

मेरी टिप्पणी : 
परमात्मा एक कल्पना मात्र है, जिसका उद्द्येश्य भोली-भाली मानवता को उसके नाम पर आतंकित कर उसका शोषण और उसपर शासन करना है. मानवता का इतिहास यही सिद्ध करता है. रावण वंश एक दानव वंश था जिसके दस सदस्य भारत में आ  बसे थे और यहाँ नारियों का उत्पीडन कर रहे थे. उनके vanshaj ही उसे एक विद्वान् बता रहे हैं, जो एक भ्रान्ति है. राम वस्तुतः महान पुरुष थे जिन्होंने अपना जीवन लोक कल्याण को समर्पित किया हुआ था.  मानवता के शत्रुओं ने उनकी हत्या की थी.  श्री गाँधी के अन्य विचार सराहनीय एवं अनुकरणीय हैं.    

(२) हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं : -
अपने सकारात्मक विचारों तथा ऊर्जा को ईमानदारी से और बिना थके हुए समाज क़ी भलाई के कार्यों में लगाना चाहिए. इस  प्रयास से अपरिमित सफलता हमारे कदमों में होगी. पवित्र गीता की सीख है कि "हम अपने कार्यों के परिणाम का निर्णय करने वाले कौन हैं? यह तो भगवान् का कार्यक्षेत्र है. हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं. 

मेरी टिप्पणी : 
गीता निश्चित रूप से महान ज्ञान का स्रोत है. किन्तु isakee  भाषा वैदिक संस्कृत है जिसके बारे में किसी को भी पूर्ण ज्ञान नहीं है. इतना सुनिश्चित है कि वैदिक संस्कृत आधुनिक संस्कृत से sarvatha भिन्न भाषा है जिसके sabdaarth भी sarvathaa भिन्न हैं. श्री अरविन्द तथा मेरे शोधों के अनुसार इस भाषा के शब्दार्थ तत्कालीन विकसित भाषाओं लैटिन तथा ग्रीक शब्दार्थों से अनुप्रेरित हैं. अतः गीता का ज्ञान अभी अज्ञात है. 

हम ही कर्म करते हैं, और उसे लक्ष्य के अनुसार सफलता के लिए ही करते हैं, किन्तु परिणाम कर्म निष्पादन की श्रेष्ठता, सामाजिक एवं प्राकृतिक परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं. इसलिए ये पूरी तरह कर्ता के अधीन नहीं होते.  

(३) हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है : -
हमारा प्राव्हीन ज्ञान एक अनूठा संसाधन है, क्योंकि उसमें लगभग पांच हज़ार वर्षों की सभ्यता का भण्डार है. राष्ट्रीय कल्याण तथा विश्व के मानचित्र पर देश के लिए एक सही स्थान बनाने के लिए इस संपदा का लाभ उठाना जरूरी है. हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है. भारत की असली पहचान उसका आध्यात्मिक ज्ञान है. भारत को विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्वा के लिए आगे आना चाहिए. 

मेरी टिप्पणी : 
भारत में कोई संस्कृति न होकर केवल विकृतिया हैं, जिनको समाज कंटकों ने अपने निहित स्वार्थों के पोषण और निरीह जनमानस के शोषण  के लिए समाज में स्थापित किया है. जो कर्मशील सभ्यता यहाँ राम आदि ने विकसित की थी उसे लगभग १६०० वर्षों की गुलामी ने पूरी तरह नष्ट-भृष्ट कर दिया है. अब समाज में केवल बुद्धिहीनता व्याप्त है और धर्म इसका सतत पोषण करते रहे हैं. जो मानवता बिना किसी प्रतिरोध के १६०० वर्ष गुलाम रही हो, जिसपर चन्द चोर-लुटेरे शासन करने में सफल रहे हों, उसे अपनी संस्कृति, आचरण और सभ्यता पर पुनः विचार करना चाहिए और उसमें आमूल -चूल  परिवर्तन  करने चाहिए.

भारत की जनता लम्बी गुलामी के कारण अभी भी लोकतंत्र के योग्य नहीं है. इस कारण से स्वतन्त्रता के बाद भी यहाँ कुशल शासन व्यवस्था स्थापित न होकर केवल चोर-लुटेरों के शासन स्थापित होते रहे हैं. सामाजिक विसंगतियां, घोर भृष्टाचार, चारित्रिक पतन आदि विकृतियाँ जिस संविधान के अंतर्गत  विकसित हो रही हों, वह संविधान कचरे के ढेर में फैंक दिया जाना चाहिए. 

(४) ज्ञान हमको महान बनाता है : -
हमें किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए आदमी उत्साह और तथा विफलताओं का सामना करने और उनसे सीखने के साहस की आवश्यकता होती है. अध्ययन से स्रजनात्मकता आती है. स्रजनात्मकता  विचारों को आगे बढाती है. विचारों से ज्ञानवर्धन होता है और हमको महान बनाता है. 

मेरी टिप्पणी : 
श्री गाँधी के उपरोक्त विचार सराहनीय हैं, विशेष रूप से 'लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए ...' जो गीता के ज्ञान को खुली चुनौती देते हैं. 

(५) विश्व एकता की शिक्षा की इस युग में सर्वाधिक आवश्यकता है : -
विश्व किसी व्यक्ति, संगठन और दल कि तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है. पारिवारिक एकता विश्व एकता की आधारशिला है. इस युग में विश्व एकता की सर्वाधिक आवश्यकता है. विश्व की एक सशक्त न्यायपूर्ण व्यवस्था तभी बनेगी जब प्रत्येक महिला और पुरुष अपनी बेहतरीन योग्यताओं और क्षमताओं के साथ योगदान देगा.

मेरी टिप्पणी : 
मैं श्री जगदीश गाँधी के इस विचार से पूर्णतः सहमत हूँ. 

मैं, राम बंसल 
(६) भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा  : -
एक देश केवल कुछ लोगों के महान होने से महान नहीं बनता, बल्कि इसलिए महान बनता है कि उस देश में हर कोई महान होता है. हमारे देश के सौ करोड़ प्रज्वलित मस्तिष्कों की शक्ति, इस धरती के नीचे, धरती के ऊपर और धरती पर स्थित संसाधनों की शक्ति से अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा शक्तिशाली है. इसलिए भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा. 

मेरी टिप्पणी :
निश्चित रूप से मानव मस्तिष्क की शक्ति विश्व के अन्य सभी संसाधनों से अधिक शक्तिशाली होती है. किन्तु भारत की इस शक्ति का उपयोग केवल विदेशों में ही हो रही है जहां भारतीय सस्ते मजदूरों के रूप में प्रसिद्ध हैं क्योंकि वर्तमान भारतीय व्यवस्था में उनके लिए कोई स्थान नहीं है. इसलिए विश्व में भारत को कोई सम्मानित  स्थान प्राप्त नहीं है और नहीं हम सुधार के लिए कुछ कर रहे हैं. 

..... शेष भाग दो में. 


मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हिंदी मानसिकता से निराशा

लगभग १ वर्ष पहले एक मित्र ने प्रोत्साहित किया था हिंदी में ब्लॉग लिखने के लिए, सो एक के बाद एक करके ८ ब्लोगों पर लिखना आरम्भ किया. किन्तु अभी तक के अनुभवों से हिंदी मानसिकता से घोर निराशा हुई है. प्रथम तो हिंदी क्षेत्र में गंभीर विषयों के लिए पाठक ही नहीं हैं, और जो हैं वे अपनी घिसी-पीती मानसिकता के इतने अधिक दास हैं कि किसी नए चिंतन, शोध अथवा मत के लिए उनके मन में कोई स्थान है ही नहीं. उन्हें बस वही चाहिए जो वे जानते हैं और मानते हैं. उनमें विचारशीलता का नितांत अभाव है.


भारत में दीर्घ काल से जंगली जातियों का वर्चस्व रहा है, यह एक उत्तम घटनाक्रम सिद्ध होता यदि ये जंगली जातियां मानवीय सभ्यता और शिष्टाचार अपनातीं और विश्व मानव समुदाय का अंग बनने की ललक रखतीं. किन्तु अपने अनुभवों के आधार पर मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूँ कि इन्हें अपने जंगलीपन पर गर्व है जिसके कारण ये उसी को अपने व्यवहार में बनाए रखने और प्रोन्नत करने में रूचि रखते हैं. इसके फलस्वरूप जो अभद्रता अपने शोधपरक आलेखों पर टिप्पणियों के रूप में मुझे सहन करनी पडी है, वह अशोभनीय ही नहीं अमानवीय भी है.

हिंदी क्षेत्र के लोग इतिहास जैसे तथ्यपरक विषय को भी अपनी भावनाओं के अनुरूप देखना चाहते हैं - कोई हिन्दू है तो हिंदुत्व को गौरवान्वित देखना चाहता है, कोई मुस्लिम है तो इस्लाम को गौरवान्वित देखने की लालसा रखता है ...   ..., चाहे ऐतिहासिक तथ्य इनके विपरीत ही क्यों न हों. कहीं अथवा कभी किसी को मानवीय दृष्टिकोण की चिंता नहीं सताती. इसके अतिरिक्त हिन्दुओं में कोई वामन है, तो कोई क्षत्रीय, कोई वैश्य तो कोई शूद्र, ... हिन्दू कोई नहीं है, और न ही कोई भारतीय है, और बस एक मानव होने या बनने की सभावना दूर-दूर तक नहीं पायी जाती.

लोगों की बस एक जिद है - भारत, इसकी संस्कृति और इसका अतीत महान कही जाब्नी चाहिए, चाहे इनमें कितनी भी विकृतियाँ हों, कितनी भी दुर्गन्ध भरी सडन हो. सच कहा जाएगा तो लोगों की भावनाएं क्षत-विक्षत होंगी और वे झंडे और डंडे के साथ उग्र विरोध करेंगे. इसलिए लोकप्रियता चाहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी सच कहने का साहस ही नहीं करते. इस कारण से हिंदी लेखन में मौलिकता का नितांत अभाव रहा है, अब भी है और आगे भी ऐसा ही रहेगा.

किसी भी वस्तु अथवा विचार में दोष तभी दूर किया जा सकता है जब उसे पहचाना जाए. इसके लिए यह आवश्यक है कि वस्तु अथवा विचार पर भावुकता का परित्याग करते हुए उसके बारे में लक्ष्यपरक विश्लेषण किया जाए. हिंदी मानसिकता में ऐसा किया नहीं जा रहा है अथवा करने नहीं दिया जा रहा है. इसलिए कालान्तर में मामूली से दोष भी भयंकर व्याधियां बन गए हैं और हिंदी मानसिकता में इनकी पैठ इतनी गहन है कि कठोर प्रहार के बिना इनका उन्मूलन नहीं किया जा सकता.
Orthodoxy

हिंदी लेखन के अपने अनुभवों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मैंने अपने संसाधनों का दुरूपयोग किया है. अतः मैं अपने ८ ब्लोगों में से पांच पर लिखना बंद कर रहा हूँ, शेष तीन पर अभी लिखता रहूँगा. हाँ अपने अंग्रेज़ी के ८ ब्लोगों के लेकन और पाठकों से मुझे पूर्ण संतुष्टि है और मैं उनपर लिखता रहूँगा.

गुरुवार, 10 जून 2010

देवभूमि भारत का सतत सांस्कृतिक प्रदूषण

आज से लगभग २,४०० वर्ष पूर्व देवों द्वारा विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित भारत का विकास किया जा रहा था जिसकी ख्याति सुदूर भूभागों में भी पहुँची. ऐसे भारत पर अधिकार करने हेतु कुछ षड्यंत्रकारियों ने योजना बनायी जिसके अंतर्गत भारत को  सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित किया गया. इन षड्यंत्रकारियों ने दो मनोवैज्ञानिक शस्त्र विकसित किये - ईश्वर और धर्म, और इन्हें लेकर भारत में अपने पैर पसारे. तब से अब तक ये शस्त्र प्रभावी रूप में कार्य कर रहे हैं और देश की जनसँख्या का एक विकराल वर्ग इनके बहुविध प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है और जन-मानस को प्रदूषित कर उस पर अपना मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किये हुए है. इसका आरम्भ भारत में यहूदियों के आगमन से हुआ जिन्हें उस समय यदुवंशी कहा गया.

शनैः-शनैः विश्व भर में भारत के शत्रु बढ़ते गए और वे अनेक नामों से आकर भारत में बसते रहे और यदुवंशी समूह में सम्मिलित होते रहे तथा जिन्हें वामन भी कहा गया. इससे यह वर्ग और विकराल हुआ और अपना नाम 'यवन' भी रखा क्योंकि यवन जाति इस वर्ग की सर्वाधिक शक्तिशाली जाति थी और यह जाति भारत पर राजनैतिक शासन की स्थापना करना चाहती थी. इस प्रकार वामन सामाजिक और यवन राजनैतिक शासन की अपनी आकांक्षाओं के लिए कार्य करते रहे. राजनैतिक उथल-पुथलों में यवन साम्राज्य तो नष्ट हो गया किन्तु वामनों का सांस्कृतिक प्रदूषण के माध्यम से स्थापित मनोवैज्ञानिक शासन आज तक सतत चल रहा है. इससे एक तथ्य यह उजागर होता है कि किसी भी समाज का सांस्कृतिक प्रदूषण उस पर राजनैतिक आक्रमण से कहीं अधिक घातक और दूरगामी होता है.

इस सांस्कृतिक प्रदूषण का सबसे घातक छल यह रहा है कि आरम्भ में इसके लिए कोई ग्रन्थ ना लिखा जाकर देवों द्वारा रचित वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली के अर्थ प्रदूषित कर उनके मंतव्यों को सांस्कृतिक प्रदूषण के हित में मोड़ लिया गया. इस घ्रणित उद्येश्य की प्राप्ति हेतु आधुनिक संस्कृत भाषा का विकास किया गया जिसका वेदों और शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं होते हुए भी इन बहुमूल्य ग्रंथों के अनुवाद इसी भाषा के आधार पर किये गए. इस प्रकार इस सांस्कृतिक प्रदूषण को समाज की सहज मान्यता मिल गयी क्योंकि यह समाज देवों के वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से भरपूर वेदों और शास्त्रों को पहले से ही सम्मान देता आया था. इस प्रकार वेदों और शास्त्रों के अर्थों का प्रदूषण भारत के सांस्कृतिक प्रदूषण का आधार बना. इसी आधार पर सांस्कृतिक प्रदूषण हेतु नए उपाय विकसित किये गए जिनमें अध्यात्म, ज्योतिष, भिक्षावृत्ति, गुरु-शिष्य परम्परा, यंत्र और तंत्र विद्याएँ, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, अवतारवाद, भाग्यवाद, पूजा-पाठ, यज्ञ, योग-विद्याएँ, आदि प्रमुख हैं जो सभी ईश्वर आर धर्म की छलिया परिकल्पनाओं के विस्तार हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण के प्रसार हेतु अनेक कारक विकसित किये गए जिनमें साधू-महात्मा, संत, सन्यासी, भिखारी, पुजारी, योगी, अध्यात्मवादी, धर्माचार्य, मठाधीश, ज्योतिषी, कर्मकांडी पंडित, तांत्रिक, भिखारी, आदि आज भी सक्रिय हैं. इस सांस्कृतिक प्रदूषण को और भी बल मिला जब इस्लामी लुटेरों ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया जो लगभग ८०० वर्ष चला. इस शासन ने कुछ नए कारक इस प्रदूषण को प्रदान किये जिन्हें मुल्ला-मौलवी, फकीर, सूफी, आदि कहा जाता है. 
The Effects of Air Pollution on Cultural Heritage
आज इस सांस्कृतिक प्रदूषण में भारत की लगभग ५ प्रतिशत प्रतिष्ठित जनसँख्या संलग्न है जो बिना कोई उत्पादक कार्य किये केवल भ्रमों को प्रचारित करते हुए वैभव भोग रही है. बच्चे के जन्म से ही उसके मानस को प्रदूषित किया जाता है जिसके दुष्प्रभाव से वह जीवन पर्यंत उबर नहीं पाता. यह जनसँख्या प्रतिशत उस समय अपने चरम पर था जब सिद्धार्थ ने लाखों युवाओं को बौद्ध भिक्षु बनाकर इस सांस्कृतिक प्रदूषण को गौरव प्रदान किया. दुःख का विषय यह है कि देश में इस प्रदूषण का कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं किया गया - केवल स्वामी रामानंद और उनके प्रिय शिष्य कबीर के अतिरिक्त. 

यह सांस्कृतिक प्रदूषण मानवीय सभ्यता विकास के विरुद्ध कार्य करता है जिसके कारण मूल भारतीय सभ्यता का ह्रास हुआ है और इस प्रदूषित संस्कृति को ही भारत की महान संस्कृति कहा जाने लगा है. यह प्रदूषण मानव बुद्धि को कुंठित कर उसकी चिंतन सामर्थ्य को नष्ट करता है. जनमानस में ईश्वर का आतंक और उसका धर्मावलंबन इसके प्रमुख शस्त्र हैं.        

सोमवार, 7 जून 2010

सभ्यता और संस्कृति

आज पूरी मानव जाति की बुद्धिहीनता है कि वह सभ्यता और संस्कृति में अंतर कराना भूल बैठी है, और यह भूल ही इस सर्वश्रेष्ठ जाति को पतित कर रही है.  यह है इस अंतर को समझने का एक प्रयास.

सभ्यता से हम भली भांति परिचित हैं - मानव की जीवन को बेहतर बनाने की सतत उत्कंठा का परिणाम, जिसके माध्यम से मानव बीहड़ जंगलों की भटकन को त्याग कर शहर और गाँव बनकर उनमें बस गया और स्वयं का समाजीकरण किया. कार्य विभाजन और परस्पर सेवाओं और सामानों का आदान-प्रदान को भी समाजीकरण विकास हेतु माध्यम बनाया.यहाँ तक सब ठीक-ठाक चलता रहा और मानव सभ्यता विकसित होती रही.

समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे पर निर्भर करता है और एक दूसरे से प्रभावित होता है. नवजात शिशु भी आरम्भ में अपने माता-पिता से तथा बाद में अपने समाज से बहुत कुछ सीखता है और अपने आचार-विचार, चरित्र और व्यवहार का निर्माण करता है. इसी को उसका संस्कारण कहा जाता है, और उसकी समग्र जीवन-शैली उसकी संस्कृति कहलाती है जो उसे समाज के देन होती है. यदि समाज किसी कारण से पथ-भृष्ट है तो उसकी संस्कृति भी प्रदूषित होगी, और यदि समाज सुमार्ग पर चल रहा होता है तो शिशु एक सुसंस्कृत नागरिक बनेगा. इस प्रकार संस्कृति अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जिन्हें हम सुसंस्कृति और कुसंस्कृति कह सकते हैं. अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हुए मनुष्य यह भूल गया कि उसकी संस्कृति पथ-भृष्ट भी हो सकती है, जिसके कारण उसने 'संस्कृति' को एक शुभ शब्द के रूप में मान लिया. इसके अशुभ होने की सम्भावना भी उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाई.

'संस्कृति' शब्द को शुभ माने जाने के व्यापक प्रभाव हुए - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति शब्दों को भुला गिया गया और संस्कृति का विलोम शब्द 'विकृति' माना गया जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यही कुसंस्कृति का भाव है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी संस्कृति पर गौरव अनुभव होने लगा बिना यह जाने कि उसकी संस्कृति वस्तुतः सुसंस्कृति है अथवा कुसंस्कृति. अतः संस्कृति जैसी भी रही, प्रत्येक व्यक्ति उसका विकास करता रहा, जिससे विभिन्न समाजों में ससंस्कृति और कुसंस्कृति दोनों विकसित होती रहीं, और दोनों पर ही उनके पात्रों को गौरव अनुभव होता रहा.

सभ्यता निश्चित रूप से एक शुभ परिकल्पना है - इसके अशुभ होने की कोई संभावना नहीं है, जब कि संस्कृति शुभ अथवा अशुभ हो सकती है. इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता और संस्कृति का कोई सुनिश्चित सम्बन्ध नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी संस्कृति पर गौरव की अनुभूति होने के कारण वह सभ्यता लो भूल बैठा और संस्कृति को ही सभ्यता का पर्याय मान लिया. इस भूल के कारण सभ्यता विकास कार्य पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, और संस्कृतियों - सुसंस्कृति और कुसंस्कृति, दोनों का विकास किया जाने लगा जो आज भी किया जा रहा है.

यहाँ तक का यह अध्ययन विश्व मानव के बारे में है. इससे आगे हम इसी अध्ययन को भारत पर केन्द्रित करेंगे और जानने का प्रयास करेंगे कि आज हम सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष कहाँ खड़े हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि जब हम भारत अथवा भारतीय शब्द का उपयोग करते हैं तो उसका अर्थ जन-सामान्य भारतीय है न कि प्रत्येक भारतीय, जिनमें कुछ जन-सामान्य के सापेक्ष अच्छे अथवा बुरे अपवाद भी हो सकते हैं.

मैं पूरे भारत में अनेक स्थानों पर रहा हूँ और अनेक बार भ्रमण किया है. प्रत्येक स्थान पर वहां के लोगों की मानसिकता का आकलन किया है. अपने चारों तरफ जनसमुदाय देखता रहा हूँ, उनके आचार-विचार आदि का अध्ययन करता रहा हूँ. चोरी-चकोरी, छीना-झपटी, ठगी-डकैती, व्यभिचार-भृष्टाचार, झूठे प्रदर्शन और अभिव्यक्तियाँ, आदि भारतीय चरित्र के अभिन्न अंग बन गए हैं. प्रत्येक समाज में और स्थान पर कुछ आदर्श चरित्र भी होते हैं किन्तु वे समाज द्वारा तिरस्कृत और अपने-अपने जीवन में असफल ही पाए जाते हैं. इस आधार पर मेरी मान्यता है कि भारत में लम्बे समय से कुसंस्कृति ही विकसित होती रही है और इस पर हमें गौरव भी अनुभव होता रहा है. जो हमारे दोष हैं उनपर झूंठे चांदी के मुलम्मे चढ़ाये जाते रहे हैं, जिसके कारण हम अपने घावों को देख नहीं पाते और वे अन्दर ही अन्दर नासूर बन चुके हैं. आज हम इस वास्तविकता को देखना भी नहीं चाहते और ऊपरी मुलाम्मों पर गौरव अनुभव कर स्वयं को संस्कृत मान लेते हैं. लिस रोग को जाना न जाए उसकी चिकित्सा की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती.

The Interpretation Of Cultures (Basic Books Classics) 
भारत की उक्त विकसित एवं परिपक्व कुसंस्कृति का कारण भारत का नेतृत्व रहा है - कल तक की परतंत्रता में और आज की स्वतन्त्रता में भी. इसी दूषित नेतृत्व से उत्प्रेरित है भारत में खास लोगों का समाज जो आम समाज को भी इसी मार्ग पर धकेलता रहता है. आम आदमी के इस कुमार्ग पर जाने की विवशता है, साधनहीनता है, खास लोगों द्वारा उसका निरंतर शोषण है. इसलिए आम आदमी को इसके लिए दोषी नहीं माना जा सकता. ख़ास आदमी साधन संपन्न होते हुए भी लोभ और लालच के वशीभूत है और नेतृत्व की प्रेरणा से कुमार्ग पर चलते रहने हेत सदैव तत्पर रहता है. नेतृत्व को सत्ता चाहिए - सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक - प्रत्येक स्थिति में और किसी भी मूल्य पर. इसी के लिए वह स्वयं ही पतित नहीं है जनमानस को भी पतित कर रहा है.