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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का ग्राम खंदोई से सम्बन्ध और उसका राजनैतिक प्रभाव


डॉ राम मनोहर लोहिया 
ब्रिटिश शासन काल में जनपद बुलंदशहर के ग्राम खंदोई स्पष्ट रूप से दो भागों में बँट चुका था - एक ओर श्री करन लाल जी के नेतृत्वमें आज़ादी के दीवानों ने अपनी जानों की बाजी लगा दी थी जिसमें गाँव के लगभग ४० परिवारों ने अपने पूरे संसाधनआज़ादी के लिए समर्पित कर दिए थे. दूसरी ओर जमींदार परिवार थे जो समाज की शोषणपरक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अंग्रेजों के पक्षधर बने हुए थे. 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जवाहर लाल नेहरु ने देश की आज़ादी के विरोधी अंग्रेजों के वफादार  जमींदारों और राजघरानोंको कांग्रेस में सम्मिलित करना आरम्भ कर दिया. इस पर सच्चे देशभक्तों का कांग्रेस में कोई महत्व नहीं रहा, और कांग्रेस देश में नए नाम से अंग्रेज़ी शोषणपरक  शासनव्यवस्था को बनाए रखने का माध्यम बन गयी. 

देशभक्तों के नेतृत्व के लिए डॉ राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, आदि आगे आये और  उन्होंने देश के प्रथम लोकतांत्रिक चुनाव- 1952 में कांग्रेस  के समक्ष एक चुनौती के रूप में सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया, जिसकी हवा ने ग्राम खंदोई को भी झकझोर दिया. गाँव के  पुराने दो खेमे सोशलिस्ट और कांग्रेस के नामों से जाने जाने लगे. एक ओर श्री करन लाल जी का  नेतृत्व था तो दूसरी ओर जमींदारों का पूंजीवादी शोषण. 

इसी आन्दोलन में डॉ लोहिया का खंदोई में आगमन हुआ और वे गाँव में एक सप्ताह रहे तथा  खंदोई को केंद्र बनाकर आसपास के क्षेत्र में कांग्रेस के देशद्रोहियोंके हाथ की कठपुतली बनाए  जाने के विरुद्धक्रांति की मशाल प्रज्वलित की. इसी समय डॉ लोहिया ने ग्राम खंदोई में एक  जूनियर हाई स्कूल 'जनता जूनियर हाई स्कूल' की स्थापना की जो आज जनता इंटर कॉलेज के  नाम से जाना जाता है किन्तु समाज कंटकों ने इसे अपने अधिपत्य में ले लिया है. 

डॉ लोहिया के आगमन की ज्वाला से ग्राम खंदोई के 200 से अधिक  लोग, जिनमें इस लेखक , जो उस  समय मात्र 4 वर्ष का था, सहित बच्चे, स्त्रियाँ, युवा तथा वृद्ध सम्मिलित थे  सोशलिस्ट झंडे के नीचे जेल  गए. क्षेत्र के अनेक  कृषकों की जम्मेंदारों द्वारा अपहृत  भूमियों को कृषकों को वापिस  दिलाया.  

श्री करन लाल 
डॉ लोहिया ने श्री करन लाल जी को 1952 के चुनाव हेतु अनूपशहर विधान सभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बनाया. क्षेत्रवासियों में लाल टोपीधारियों की बाढ़ सी  गयी और बच्चे-बड़े-बूढों की जवान से एक ही नारा गूंजने लगा, 'धन और धरती बँट कर रहेगी, भूखी  जनता अब ना सहेगी'. 

देश में कांग्रेस के नाम पर क्षुद्र अवसरवादियों का शासन बना रहा जिसका सबसे अधिक  दुष्प्रभाव  खंदोई-वासियों पर पडा. शासकों और प्रशासक खंदोई-वासियों के सोशलिस्ट आन्दोलन को व्यापक समर्थन दिए जाने के कारण खंदोई के विकास की पूरी तरह अवहेलना करते रहे. गाँव के 40 से अधिक स्वतन्त्रता सेनानी इससे निराश अवश्य हुए किन्तु वे कांग्रेस के समाज-विरोधी  रुख के समक्ष कभी नहीं झुके.  

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

स्वतन्त्रता सेनानी स्मृति योजना, खंदोई

९ अगस्त १९४२ को गांधीजी के आह्वान 'अंग्रेजो भारत छोडो' की चिंगारी गाँव खंदोई भी पहुँची. खंदोई के नौजवानों में भी अंग्रेज़ी सरकार की दमनकारी नीतियों के प्रति आक्रोश था. महात्मा गाँधी के आह्वान पर महाशय करन लाल जी के नेतृत्व में दर्ज़नों नौजवानों ने एकत्र होकर अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध संघर्ष की योजना बनायी. अंग्रेज़ी सरकार के सिंचाई कार्यालय (चरौरा कोठी) जिसमे अँगरेज़ अधिकारी किसानों के मुकदमे सुनते थे, खंदोई के नौजवानों ने इसी दफ्तर को नष्ट करने की योजना बनायी.



२१ अगस्त १९४२ की रात्री को खंदोई के लोगों जिनमें सर्वश्री राम चन्द्र सिंह, गिरवर प्रसाद शर्मा, नन्द राम गुप्ता, नेकलाल, आदि के साथ एक बच्चा खचेडू सिंह भी श्री करन लाल जी के नेतृत्व में जंगल (खेतों) के रास्ते होते हुए पडौस के गाँव भगवन्तपुर पहुंचे और वहां से मिट्टी के तेल का कनस्तर लेकर रात्री में ही चरौरा कोठी पहुँच गए. कुछ लोगों ने टेलीफोन के तार काट दिए तथा दफ्तर को चारों ओर से घेर कर उसमें आग लगा दी. थोड़ी ही देर में दफ्तर जल कर राख हो गया. आग लगाने की खबर भी पूरे क्षेत्र में आग की तरह फ़ैल गयी. आग लगाने वाले आज़ादी के दीवाने भूमिगत हो गए.


तत्कालीन कलेक्टर हार्डी इतने क्रोधित हुए कि खंदोई में भारी फ़ोर्स के साथ आ धमके तथा गाँव के लोगों पर अत्याचार शुरू कर दिए. कलेक्टर हार्डी ने पूरे गाँव को आग के हवाले करने तक का फरमान सुना दिया. लेकिन संघर्ष शील जनता के सामने उन्हें हाथ खींचना पडा. दर्जनों लोगों को जेल में डाल दिया गया. कलेक्टर हार्डी ने तत्कालीन जज श्री डी पद्मनाभन को श्री करन लाल को फांसी दिए जाने का आदेश दे दिया. इस पर जज महोदय श्री पद्मनाभन, जो क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखते थे, ने वकील के माध्यम से श्री करन लाल को सन्देश भिजवा दिया कि वे तब तक अदालत में हाजिर न हों जब तक कि हार्डी बुलंदशहर कि कलेक्टर रहे अन्यथा फांसी दिया जाना नहीं टाला जा सकेगा.


हार्डी के बुलंदशहर से तबादले के बाद श्री करन लाल जी अदालत में हाजिर हुए जिसपर उन्हें कारागार भेज दिया गया. कुल मिलकर उन्हें ३ वर्ष से अधिक की सजा मिली थी. गाँव के अन्य लोगों को भी सजाएं मिलीं.


देश के शहीदों, संघर्ष करने वालों तथा आजादी के दीवानों के जज्बात तथा देश के नौजवानों जैसे सरदार भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान आदि की कुर्बानी तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व से १५ अगस्त १९४७ को देश के लोगों आज़ादी की सांस ली. गाँव खंदोई के लोगों को भी आज़ादी के साथ बहुत राहत मिली. कुछ समय बाद आज्ज़दी के लिए संघर्ष करने वालों को 'स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी' का दर्ज़ा दिया गया एवं सरकार द्वारा उन्हें पेंशन भी दी गयी. खंदोई के २6 लोग भी इस सूची में स्थान पा सके. आज़ादी के संघर्ष में लगभग ४० लोगों ने हिस्सा लिया था, किन्तु  आज़ादी से पहले मृत्यु अथवा ३ माह से कम की सजा के कारण उन्हें उस सूची में स्थान नहीं मिल पाया.  

१९३६ में गठित किसानों का महत्वपूर्ण संगठन 'किसान सभा' आज़ादी के संघर्ष की कथा तिथियों के अनुसार कार्यक्रमों का आयोजन करता रहा है जिसमें देश को आर्थिक आजादी दिलाने का संकल्प भी लिया जाता है. क्षेत्रीय स्तर पर, खंदोई के लोगों द्वारा आजादी के लिए संघर्ष को याद करने के लिए २१ अगस्त (चरौरा कोठी काण्ड) को भी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें आज के नौजवानों को देश प्रेम के लिए प्रेरित करने, आज़ादी के महत्व को समझाने तथा अधूरी आजादी को पूरा करने का आह्वान किया जाता है. इन कार्यक्रमों में चरौरा कोठी काण्ड के सैनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है.

अब खंदोई के सभी स्वतन्त्रता सैनानियों का स्वर्गवास हो चुका है. उनके संघर्ष को जीवंत बनाए रखने के लिए, ग्रामवासियों ने पश्चिमी प्रवेश मार्ग पर एक भव्य 'स्वतन्त्रता सेनानी द्वार' के निर्माण का संकल्प लिया है. जिसके पास ही तालाब का सौन्दर्यकरण, वृहत वृक्षारोपण, तथा मनोरंजन पार्क का निर्माण भी किया जाएगा.  

सोमवार, 28 जून 2010

पुलिस पर चर्चा का खुला आकाश

 इसी संलेख पर मेरे एक आलेख 'अपराध और चिकित्सा सेवा' पर ग्राम्या उपनामित एक भारत पुत्री ने एक टिप्पणी की थी जिसमें पुलिस प्रशिक्षण पर प्रश्न उठाया था. मैंने वह टिप्पणी उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) श्री जसवीर सिंह को विचारार्थ भेज दी थी. सूचनार्थ पुनः बता दूं कि श्री जसवीर सिंह इंडिया रेजुविनेशन इनिशिएतिव से सम्बद्ध हैं और देश की स्थिति से चिंतित ही नहीं इसमें गुणात्मक सुधार हेतु प्रयासरत हैं. मुझपर उनका बड़ा उपकार है - उन्होंने मेरी गाँव में गुंडों के साथ संघर्ष में अभूतपूर्व सहायता की है. प्रिय ग्राम्या की उक्त टिप्पणी और श्री जसवीर सिंह जी का प्रत्युत्तर नीचे दिए जा रहे हैं, ताकि श्री सिंह द्वारा वांछित विषय पर प्रबुद्ध पाठक चर्चा कर सकें और राष्ट्र हित में अपना योगदान कर सकें.   

ग्राम्या की टिप्पणी :
इस देश का आम आदमी पुलिस के पास अपनी समस्या लेकर जाने से डरता है। यदि वह आम औरत हो तो यह डर और भी बढ़ जाता है। क्या पुलिस की ट्रेनिंग में यह नहीं सिखाया जाता कि पुलिस को जनता के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए? हमारी पुलिस अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित है। धीरे-धीरे वह आम जनता में अपना विश्वास खो चुकी है। विशेषकर ग्रामीण इलाके के लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार और भी आपत्तिजनक होता है। देश के कई हिस्सों में इस व्यवस्था के प्रति बढ़ रहे असंतोष को देखते हुए भी इन्हें आत्ममंथन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

श्री जसवीर सिंह  का प्रत्युत्तर :
प्रिय राम राम बंसल जी,
                                          मैं आप से सहमत हूँ । यह भी देखना होगा की ऐसे कैसे हुया कि गांधी जी ने आजादी के बाद की  पुलिस कैसे होगी के विषय में कहा था कि मैं अपने देश की पुलिस को सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देखना चाहता हूं। लेकिन ऐसे क्यों हुया की पुलिस में आजादी के बाद कोई परिवर्तन नहीं आया या नहीं लाया गया। इस पर विचार करिएगा और मुझे भी बताईएयगा। 
आप का धान्यवाद,
जसवीर

मैं इस चर्चा के आरम्भ में यह कहना चाहूँगा कि गांधीजी ने उक्त इच्छा व्यक्त की थी किन्तु किसी ने उनकी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया, विशेषकर नेहरु ने जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद देश के शासन की बागडोर संभाली थी. इस अवहेलना दूसरा बड़ा कारण यह था कि देश के लिए स्वतन्त्रता की मांग करने वाले लोगों ने स्वतन्त्रता से पूर्व कभी इस विषय पर चिंतन एवं विचार-विमर्श नहीं किया कि वे स्वतन्त्रता के बाद इस देश को कैसे चलाएंगे. अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति पर इधर-उधर से नक़ल कर एक फूहड़ संविधान भारत पर थोप दिया गया जो भारत के जनमानस के अनुकूल सिद्ध नहीं हो पाया है.

वस्तुतः भारतीय जनमानस जनतांत्रिक शासन के लिए उपयक्त न तो तब था, न ही आज तक बन पाया है, और न ही इसका कोई प्रयास किया गया है. इसी कारण से भारत को एक नयी शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे मैं बौद्धिक जनतंत्र कहता हूँ जिसमें देश की शासन व्यवस्था में बौद्धिक सुयोग्यता को आधार बनाया जाए और ऐसे प्रावधान हों कि प्रत्येक नागरिक को एक समान उत्थान के अवसर उपलब्ध हों. इसके लिए स्वास्थ सेवाएँ, शिक्षा और न्याय व्यवस्था पूरी तरह निःशुल्क हों. भूमि पर निजी स्वामित्व समाप्त हो तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को आवास हेतु निःशुल्क भूमि प्रदान की जाये ताकि देश की इस प्राकृत संपदा पर सभी को पाँव धरने का सम्मान प्राप्त हो सके.

आगे निवेदन हैं कि सभी प्रबुद्ध जन इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार करें, और अपने सुझाव देन ताकि भारत की पुलिस में गुणात्मक सुधारों के लिए एक पहल हो सके.

मंगलवार, 23 मार्च 2010

मेरा गाँव खंदोई

मेरा गाँव खंदोई देश के कृषि प्रधान क्षेत्र गंगा-यमुना दोआब में गंगा नदी से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पर बुलंदशहर जनपद में स्थित है. यह क्षेत्र कला और संस्कृति की दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ा है तथापि राजनैतिक चेतना से भरपूर है. किन्तु यह राजनैतिक चेतना देश की राजनीति की तरह ही निजी स्वार्थों पर केन्द्रित है, देश और समाज के हितों से इसका कोई सरोकार नहीं रह गया है. परन्तु यह सदा से ऐसा नहीं था.

देश के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरे गाँव का योगदान दूर तक जाना जाता था जिसका क्षत्रीय नेतृत्व मेरे पिताजी श्री करनलाल करते रहे थे. पिताजी की राजनैतिक चेतना १९४० से आरम्भ होकर १९९० तक सक्रिय रही जिसके दौरान वे देश की स्वतंत्रता के लिए तथा बाद में समाजवादी आंदोलनों में लगभग बीस बार जेल गए. इन जेल यात्राओं में देश में १९७६-७७ की आपातस्थिति भी सम्मिलित है जब जवाहरलाल नेहरु की पुत्री इंदिरा गांधी ने देश पर अपनी तानाशाही थोपी थी और देश-भक्तों से कारागारों को भर दिया था. यह देश के राजनैतिक पतन का आरम्भ था जो उग्र होता रहा और पिताजी राजनीति से शनैः-शनैः दूर होते गए.

१९७७ से ही पिताजी ने ग्राम-स्तर की राजनीति का परित्याग कर दिया था जिससे गाँव की राजनैतिक सत्ता धीरे-धीरे असामाजिक तत्वों ने हथिया ली. ऐसा ही पूरे देश में भी हुआ है अतः देश के प्रत्येक गाँव की राजनैतिक स्थिति देश की राजनैतिक स्थिति का ही प्रतिबिम्ब है, मेरा गाँव भी इसका अपवाद नहीं रह पाया है. गाँव में शिक्षा केवल नाम मात्र के लिए रह गयी है, शराबखोरी बच्चों को भी डस रही है, विकास और समाज कल्याण के नाम पर केवल भृष्टाचार व्याप्त है. सार्वजनिक संपत्तियों पर सामर्थ्यवानों के निजी अधिकार स्थापित हैं. बिजली की चोरी अधिकार समझी जाने लगी है और इसका खुला दुरूपयोग किया जा रहा है. विद्युत् अधिकारी इसके प्रति उदासीन हैं अथवा इसके माध्यम से अपनी जेबें भर रहे हैं. जनसाधारण अपने जीवन-यापन की व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा है कि उसके जीवन में मानवीय चिंतन के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति सबकुछ निजी स्वार्थों की आपूर्ति हेतु ही करता है, सामाजिक चिंतन उसकी जीवन चर्या और बुद्धि से बहुत दूर हो गया है.

ऐसी स्थिति में मैं अब से लगभग ५ वर्ष पूर्व सन १९६१ के बाद यहाँ स्थायी निवास के लिए आ पहुंचा हूँ और यहाँ की स्थिति देखकर दुखी हूँ. इसी संवेदना से उदित हुआ है मेरा यह संलेख जो यहाँ मेरे सामाजिक और राजनैतिक सरोकारों और प्रयोगों का एक झरोखा होगा.