तीन प्रचलित वाद - आस्तिवाद, नास्तिवाद, और अज्ञवाद, मानवता में प्रचलित हैं. आस्तिवाद मनुष्य के कर्म और उसके अस्तित्व की अवहेलना करता है और सब कुछ ईश्वर के अधीन मानते हुए उसी के ऊपर छोड़ने के पक्ष में है. इसके विपरीत नास्तिवाद है जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता और मनुष्य के कर्म और अस्तित्व को ही महत्व देता है. तीसरा वाद बहुत अधिक प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे समझने में विरोधाभास हैं. आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही इसे अपने-अपने पक्ष में मानते हैं. इसलिए इस विषय पर कुछ विशेष चर्चा वांछित है. यहीं स्पष्ट कर दूं कि मैं निश्चित रूप से सुविचारित नास्तिवादी हूँ.
अज्ञवाद भारत के एक प्राचीन ऋषि अगस्त्य की दें है जिसके अनुसार सृष्टि और इसके रचयिता के बारे में जानना असंभव है क्योंकि यह इतनी पुरानी है कि इसके उदय के समय के बारे में मनुष्य जाति को कोई ज्ञान होना असंभव है. अज्ञवाद की इस धारणा को आस्तिवाद और नास्तिवाद दोनों ही स्वीकारते हैं किन्तु इसकी व्युत्पत्तियों पर एक दूसरे के विरोधी हैं.
आस्तिवादियों का मत है कि अनंत सृष्टि और सृष्टा के बारे में मनुष्य की सीमित बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना असंभव है इसलिए मनुष्य को स्वयं को तुच्छ स्वीकारते हुए सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए. आस्तिवाद के मत के विपरीत नास्तिवाद का मत है कि जिस सृष्टि और सृष्टा के बारे में कुछ जाना नहीं जा सकता, मनुष्य ने उसकी परिकल्पना कैसे और क्यों की. वस्तुतः उसके बारे में तो मनुष्य को निश्चिन्त और निरपेक्ष ही रहना चाहिए. एक ऐसी समस्या को अपने समक्ष खडी करना जिसका वह समाधान नहीं कर सकता, मूर्खता ही है.
उपरोक्त में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान में प्रचलित है, किन्तु पूरी तरह सच नहीं है. आस्तिक, नास्तिक और अज्ञ शब्द जिन स्रोतों से लिए गए हैं वे वेद और शास्त्र हैं. उनकी रचना के समय मनुष्य जाति ने ईश्वर के वर्तमान में मान्य स्वरुप की कोई कल्पना नहीं की थी. इसलिए ये शब्द ईश्वर के अस्तित्व से निरपेक्ष हैं. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उस समय मनुष्य जाति नास्तिवादी थी. वस्तुतः उसे नास्तिवादी होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उस समय तक आस्तिवाद उपस्थित नहीं था. मनुष्य बस मनुष्य था और उसका कोई धर्म था तो वही था जिसे आज मानवतावाद कहा जाता है, जिसमें मनुष्य को बस नैतिक होने की आवश्यकता थी और अपने समाज के साथ सहयोग करना था.
इसलिए 'आस्ति' शब्द का मूल अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' न होकर केवल 'अस्तित्व' है जिसका आधुनिक अर्थ 'शरीर' अथवा 'भौतिक स्वरुप' है. इसी प्रकार 'नास्ति; शब्द का अर्थ 'अस्तित्वहीनता' अथवा 'कल्पना' है. इसी आधार पर 'स्वास्ति' का अर्थ वही है जो आज 'स्वास्थ' का है.
मानवता का विभाजन तब आरम्भ हुआ जब कुछ मनुष्यों ने बस्ती बनाकर समाज के रूप में संगठित रहना आरम्भ किया. यह देव जाति थी. शेष सभी आदिमानव की तरह जंगलों में विचरण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे. ये जंगली अपनी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए देव बस्तियों में लूट-पाट करने लगे जिससे वे देवों के शत्रु बन गए. यहाँ से मनुष्य जाति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित हुई.
प्रतिस्पर्द्धा देवों की शत्रु जातियों के हित में थी इसलिए उन्होंने इस को आगे विकसित करने के लिए ईश्वर के आधुनिक अर्थ की कल्पना की और उसके आधार पर विभिन्न धर्म बनाए. धर्मों ने मनुष्य जाति को और भी अधिक विभाजित किया और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्य का एक प्रमुख गुण बन गया. 'आस्ति' शब्द को नया अर्थ 'ईश्वर का अस्तित्व' दिया गया जिससे 'आस्तिवाद' विकसित हुआ, और इसका विरोध करने के लिए 'मानवतावादियों ने 'नास्तिवाद' प्रचलित किया. वस्तुतः 'नास्तिवाद' और कुछ न होकर विशुद्ध 'मानवतावाद' ही है.