रविवार, 21 फ़रवरी 2010

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान

मानावोदय का विज्ञानं - मनोविज्ञान पृथ्वी पर जीवन के उदय के साथ ही क्रियान्वित हो गया था, यद्यपि इसका भान मानवों को बहुत बाद में हुआ. मनुष्य, चाहे एकाकी चिंतन मग्न हो, चाहे भीड़ के कोलाहल में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर रहा हो, वह सभी समय मनोवैज्ञानिक खेलों में रत रहता है, जो कभी पारस्परिक संग्राम होते हैं तो कभी पारस्परिक सहयोग.

मनोविज्ञान मन का विज्ञानं है जो सभी जीवों में अनिवार्य रूप से सक्रीय रहता है. किन्तु मानवों ने इसे समझा है और इसका सदुपयोग तथा दुरुयोग किया है. मन केवल मस्तिष्क नहीं होता और न ही इसे शरीर के किसी एक अंग में पाया जा सकता है. यह शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित चेतनात्मक अवयवों की समष्टि होता है जो मनुष्य का सम्बन्ध समस्त जगत से स्थापित करता है. कभी उसके समक्ष समर्पित होता है तो कभी उसे समर्पण पर विवश करता है. मन ही मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखता है अथवा इसे रुग्ण बनाता है.

मन का संचालन केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क होता है जो समस्त शरीर में फैले अत्यंत विस्तृत नाडीतंत्र के माद्यम से मन को संचालित करता है.वस्तुतः मन मस्तिष्क और नाडीतंत्र की समष्टि ही है, इसलिए इसे स्वसंचालित भी कहा जा सकता है. 

कुछ मानव-विकसित विद्याओं जैसे वशीकरण, परमन-पठन, आदि की प्रभाविता से सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव का मन एक सार्वभौमिक माद्यम से अन्य जीवों के मनों से विना किसी संवाद के परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकता हैं. मनोविज्ञान का बहुलांश इसी प्रकार के दूरस्थ सम्बन्ध स्थापन का अध्ययन करता है और वस्तुतः इसी हेतु लक्षित होता है.

मनुष्य में मन का यदी होना ही उसे सशक्त एवं महान बनाता है. इसी प्रक्रिया को महामानव का उदय होना कहते हैं. श्री अरविन्द के मतानुसार साधारण मानव ही महामानव बनाने की संभावना रखते हैं और ये उसी प्रकार बनाते हैं जैसे कभी वनमानुष से मनुष्य बना तथापि कुछ वनमानुष यथावत भी रह गए. इस प्रकार, महामानवों की उत्पत्ति पर भी साधारण मानव समाप्त नहीं होते, अर्थात महामानव मोनावों के मध्य से ही उगते हैं.

महामानव प्राकृत एवं सतत कार्यरत उदयन प्रक्रिया के उत्पाद होते हैं, जिनका सोचने एवं कार्य करने के तौर-तरीके साधारण मानवों से भिन्न होते हैं और उनकी उपस्थिति मानव समाज को एक नै दिशा देती है. इन्हें समाज के पथप्रदर्शक भी कहा जाता है. किन्तु सभी पथप्रदर्शक महामानव नहीं होते. कुछ मानव छल-कपट, शक्ति और अधिकार के माध्यम से समाज के पथ प्रदर्शक बन बैठते हैं, वस्तुतः ये समाज को पथ भृष्ट ही करते हैं. किन्तु शक्ति और अधिकार के कारण अग्रणी बने इन मानवों में विशिष्टता का बोध होने लगता है. अतः, महामानवों की पहचान यह है कि वे बिना किसी बाह्य शक्ति एवं अधिकार के समाज में सकारात्मक परिवर्तन की लहर उत्पन्न करते हैंऔर उनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है. प्रायः ये अपने जीवन काल में महामानव के रूप में पहचाने भी नहीं जाते. कुछ साधारण पहचानों के रूप में ये दीर्घायु होते हैं और समाज में अपना स्थान अपने सत्कर्मों से बनाते हैं जिन्हें दीर्घ काल तक याद किया जाता है. यही इनका अमरत्व होता है. प्राचीन काल में सुकरात, ब्रह्मा (राम), विष्णु (लक्ष्मण), विश्वामित्र, आदि कुछ महामानव रहे हैं.        .

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

मित्र, अन्न, अणु, अनल, पुरुष

मित्र 
शास्त्रीय शब्द 'मित्र' लैटिन के metra से उद्भूत है जिसका अर्थ मादा का 'गर्भाशय' है.जबकि आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ दोस्त है जिसे शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद्दों में लिया गया है. शब्दार्थ के इस विकार से  शास्त्रों के अर्थों मेंस गंभीर विकार आये हैं. 

अन्न, अणु
शास्त्रों में अन्न तथा 'अणु' शब्दों का तात्पर्य हिंदी के 'वर्ष' से है क्योंकि ये शब्द लैटिन के annus से उद्भूत हैं. .

अनल 
शास्त्रीय शब्द 'अनल' लैटिन के annulus का देवनागरी स्वरुप है जिसका अर्थ 'अंगूठी' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'अग्नि' रखा गया है.

पुरुष 
शास्त्रों में 'पुरुष' शब्द लैटिन के शब्द 'पोरोसुस' से लिया गया है, जिसका अर्थ 'रंध्रयुक्त' है. शास्त्रीय अनुवादों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अर्थ 'नर' लेने ले अर्थों में गंभीर विकृति उत्पन्न होती है. इस प्रकार के कारणों से शास्त्रों के प्रचलित अर्थ पूरी तरह भ्रमात्मक हैं.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

मनु, मानस, मान, मनुष्य, मन

मनु, मानस, मान, मनुष्य 
वेदों और शास्त्रों में बहुतायत में पाए गए ये चार शब्द लैटिन भाषा के manus से उद्भूत हैं  जिसका अर्थ 'हाथ' है. आधुनिक संस्कृत में इनमें से किसी भी शब्द का अर्थ हाथ नहीं है, इसलिए शास्त्रों के अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर करने से भ्रम की उत्पत्ति होती है यथा - हजारों वर्षों की तपस्याएँ, लाखों वर्षों के युद्ध आदि आदि. ऐसे ही ब्रमात्मक अनुवाद बहुतायत में प्रचलित हैं और लोगों को भ्रमों में उलझाया जा रहा है. 

मन
लैटिन भाषा के दो शब्द हैं - mens अथवा mentis तथा mentum जिनके अर्थ क्रमशः 'मस्तिष्क' तथा 'ठोडी' हैं. मेरे अभी तक के शोधों के अनुसार शास्त्रों में इन दोनों भावों के लिए 'मन' शब्द का उपयोग किया गया है. जिसका अर्थ प्रसंग के अनुसार लेने की आवश्यकता होती है.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

प्रोक्त, निदान

प्रोक्त 
प्रोक्त शब्द का अर्थ आधुनिक संस्कृत में 'कहना' लिया जाता है जो शास्त्रीय उपयोग के लिए सर्वथा भ्रामक है. यह शब्द ग्रीक भाषा के proktos से बनाया गया है जिसका अर्थ 'गुदा' है. इसी आधार पर गुदा संबंधी अद्ययन को अंग्रेज़ी में proctology कहा जाता है.

निदान
निदान शब्द लैटिन के नेदर से बना है जिसका अर्थ 'नीचा' अथवा 'घटिया' अथवा 'दबा हुआ' होता है शास्त्रों में 'निदान' शब्द का उपयोग आयुर्वेद संबंधी ग्रंथों में आया है, अतः इसका अर्थ 'रोग' है. आधुनिक संस्कृत में इस शब्द का अर्थ 'रोग की पहचान अथवा चिकित्सा' माना गया है जो भ्रमात्मक है.

वाग, वाज, वाक, वान, विजित, विजय

वाग, वाज, वाक
ये शब्द शास्त्रों में दो मंतव्यों के लिए उपयोग किये गए हैं - नाडी तथा चीख. इनका उद्भव लैटिन के शब्द vagus से हुआ है जिसका अर्थ नाडी है. लैटिन का ही एक अन्य शब्द vagitus है जिसका अर्थ चीख है. इसके देवनागरी स्वरुप भी वाग, वाज अथवा वाक् ही हैं. अतः इनके अर्थ प्रसंग के अनुरूप लिए जाते हैं. ग्रन्थ भावप्रकाश में नाडी के लिए वाज शब्द का उपयोग किया गया है.

वान
यह शब्द लैटिन के vana से उद्भूत है जिसका अर्थ रिक्त अथवा अभावपूर्ण है. जैसे लैटिन शब्द समूह 'वान ग्लोरिया' का अर्थ 'झूठा प्रदर्शन' है. इस प्रकार वान का अर्थ आधुनिक संस्कृत में विपरीत कर दिया गया है जो 'बलवान' जैसे शब्दों में बलयुक्त व्यक्ति के लिए उपयुक्त किया जाता है, जब कि इसका शास्त्रीय अर्थ 'बलहीन' है.

विजित, विजय
ये शब्द लैटिन के शब्दों vegere, vegetus से उद्भूत हैं जो क्रमशः जीवंत होने की क्रिया तथा संज्ञा हैं. तदनुसार विजय का अर्थ 'जीवंत' है. अंग्रेज़ी शब्द vegetable भी इन्ही से उद्भूत है जिसका अर्थ सब्जी है क्योंकि सब्जियों को जीवन-दायक माना जाता है.        

कंगाल उत्तर प्रदेश - जन-प्रतिनिधियों पर धन वर्षा

उत्तर प्रदेश भारत का एक ऐसा प्रदेश है जहां की उर्वरा भूमि किसी को भूखे पेट सोने को विवश नहीं करती. गंगा की गोद इस भूमि पर अति प्राचीन काल से घनी जनसँख्या बसती रही है केवल इसलिए कि यहाँ की धरा की गोद सदैव हरी-भारी रहती है. इस सब के होते हुए भी विगत २० वर्षों से यहाँ के शासन की बागडोर ऐसे हाथों में रही है जो केवल शोषण करना जानते हैं, शासन-प्रशासन के मूलभूत दायित्वों से उनका कोई वास्ता प्रतीत नहीं होता. फलस्वरूप प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं, भृष्टाचार का सर्व-व्यापी बोलबाला है, सड़कें टूटी-फूटी हैं और विद्युत् शक्ति केवल महत्वपूर्ण लोगों के घरों में रोशनी करती है, शिक्षा के मंदिर बच्चों को भिक्षा पाने के घर बना दिए गए हैं जिनमें अधिकाँश अस्थायी शिक्षक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और समय व्यतीत करने आते हैं. न्यायालय थप पड़े हैं और खुली रिश्वतखोरी के अड्डे बना दिए गए हैं.  

चुनाव का समय आता  है तो राजनेता अपनी तिजोरियां खोल देते हैं और लोगों के मध्य शराब की नदियाँ बहाते हुए वोट बटोर ले जाते हैं. इससे अपराधी और भृष्ट नेताओं के चुनाव के लिए जनता को ही दोषी करार दे दिया जाता है. कोई उनकी विवशता नहीं समझता कि उन्हें अल्प समय के लिए कुछ आनंद प्राप्त होता है और उनका बहक जाना स्वाभाविक है. दोष तो चुनाव प्रणाली का है, दोष संविधान का है जो धन के बदले वोट प्रणाली को रोक नहीं पाते हैं. एक विधान सभा सदस्य के चुनाव का अर्थ है प्रत्याशी के न्यूनतम पचास लाख रुपये का व्यय. फिर कैसे कोई इमानदार व्यक्ति चुनाव में उतारे और जनता के समक्ष एक अच्छा विकल्प बने. इतना व्यय कर चुनाव जीतने वाले व्यक्ति भृष्ट होने के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकते. उनकी भी विवशता है.

शासन इन विजित जन प्रतिनिधियों की अनेक प्रकार से क्षतिपूर्ति करता है - बार बार उनके वेतन और सुख-सुविधाएँ बढ़ाते हुए. अभी-अभी ८ फरवरी को उ० प्र० की मुख्यमंत्री ने एक ही बार में जन-प्रतिनिधियों (विधान सभा सदस्यों) को देश के सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्तियों की श्रेणी में ला दिया. अब इनकी मासिक वैध आय ५०,००० रुपये कर दी गयी है जो अभी तक ३०,००० रुपये थी. देखिये इस मासिक बढोतरी का नज़ारा -
वेतन - ३,००० से ८,०००  रुपये,
क्षेत्र भत्ता - १५,००० से २२,०००  रुपये,
स्वास्थ भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये,   
कर्मी भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये. 

इसी अनुपात में प्रदेश के सभी मंत्रियों और अन्य राजनैतिक पदासीनों के वेतन भत्ते भी बढ़ा दिए गए हैं. यह ऐसी अवस्था में किया गया है जब -
  1. प्रदेश के पास विद्यालयों में नियमित अध्यापक रखने के लिए दान नहीं है, 
  2. अनेक विभागों में कर्मचारियों के वेतन धनाभाव के कारण ६-६ महीने तक भगतान नहीं किये जाते, उन्हें केवल रिश्वतखोरी से प्राप्त धन पर अपना गुजारा करना पड़ता है. 
  3. प्रदेश के पास मार्गों के निर्माण, विदुत के प्रसार आदि के लिए धन नहीं है. ऐसे कार्यों के लिए जो ऋण आदि लिया जाता है वह वेतन भुगतानों में व्यय कर दिया जाता है. 
  4. प्रदेश में एक मजदूर को मात्र १,००० रुपये मासिक की आय पर अपने परिवार का पालन-पोषण करना होता है और उसे ऊपर की भी कोई आय नहीं होती. जबकि उसके प्रतिनिधि को ५०,००० रुपये मासिक दिए जाकर भी उसे असीमित ऊपर की आमदनी से मार्ग बी खोल दिए जाते हैं.
  5. प्रदेश की पूरी अर्थव्यवस्था उत्पादन आधारित न होकर भृष्टाचार आधारित हो गयी है. 
देश तो डूब ही रहा है, उत्तर प्रदेश इस दौड़ में सबसे आगे है, और आगे ही रहेगा.