योग शब्द का विश्व भर में बहुत अधिक दुरूपयोग किया जा रहा है तथा इसे शरीर के व्यायाम से लेकर 'आत्मा परमात्मा के मिलन' तक के भावों में लिया जा रहा है. इसका वास्तविक अर्थ द्रव्यों को मिलाकर कोई उपयोगी औषधि अथवा पोषण द्रव्य बनाना मात्र है. संज्ञा के रूप में यह मिलाकर बनाई गयी उपयोगी वस्तु के लिए उपयोग किया जाता है.
दुरूपयोग के सन्दर्भ में योग का परिभाषा सूत्र 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात योग 'चित्त की वृत्तियों को संयमित करना है' माना जाता है, जो सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योंकि यह सूत्र का पूरा स्वरुप ही न होकर पतंजलि योगसूत्र के प्रथम सूत्र का आधा भाग है.. यह पूरा सूत्र और इसकी व्याख्या मेरे दूसरे संलेख पर दी गयी है.
सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
वरीयता क्रम मत प्रणाली
बौद्धिक जनतंत्र में सरकार के चुनाव के लिए नागरिकों को मताधिकार उपयोग हेतु एक विशिष्ट चुनाव प्रणाली का प्रतिपादन किया गया है, जिसे 'वरीयता क्रम मत प्रणाली' नाम दिया गया है. इस प्रणाली में प्रत्येक मतदाता किसी एक प्रत्याशी को अपना मत न देकर तीन प्रत्याशियों को अपना वरीयता क्रम प्रदान करता है. इन क्रमों के मूल्य निम्न प्रकार निर्धारित हैं -
प्रथम वरीयता - ५ अंक
द्वितीय वरीयता - ३ अंक, तथा
तृतीय वरीयता - २ अंक.
मतदान के पश्चात् प्रत्येक प्रत्याशी के वरीयता अंको का योग प्राप्त किया जायेगा और जो प्रत्याशी कुल अंको का ५० प्रतिशत से अधिक तथा प्रत्याशियों में सर्वाधिक अंक प्राप्त करेगा, वही विजयी घोषित होगा. इसके तीन लाभ अपेक्षित हैं -
यदि चुनाव मैदान में केवल दो ही प्रत्याशी रहते हैं तो वरीयता अंक इस प्रकार दिए जाएँगे -
प्रथम वरीयता - 6 अंक, तथा
द्वितीय वरीयता - 4 अंक.
जिससे कि विजित प्रत्याशी को एक बार में ही ५० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त हो सकें, क्योंकि इस स्थिति में पुनः मतदान करना अव्यवहारिक होगा. .
प्रथम वरीयता - ५ अंक
द्वितीय वरीयता - ३ अंक, तथा
तृतीय वरीयता - २ अंक.
मतदान के पश्चात् प्रत्येक प्रत्याशी के वरीयता अंको का योग प्राप्त किया जायेगा और जो प्रत्याशी कुल अंको का ५० प्रतिशत से अधिक तथा प्रत्याशियों में सर्वाधिक अंक प्राप्त करेगा, वही विजयी घोषित होगा. इसके तीन लाभ अपेक्षित हैं -
- प्रत्याशियों में परस्पर सहयोग करने की भावना उभरेगी ताकि एक प्रत्याशी के प्रथम वरीयता मतदाता दूसरे प्रत्याशियों को अपनी अन्य वरीयता प्रदान कर सकें. अतः चुनावों में अंतर्कलह न्यूनतम होगी.
- प्रत्येक मतदाता को सुविधा मिलेगी कि वह तीन प्रत्याशियों का मूल्यांकन करे और किसी एक तक सीमित न रहे.
- विजित प्रत्याशी का प्रबाव क्षेत्र सीमित न रहकर विस्तृत प्राप्त होगा.
यदि चुनाव मैदान में केवल दो ही प्रत्याशी रहते हैं तो वरीयता अंक इस प्रकार दिए जाएँगे -
प्रथम वरीयता - 6 अंक, तथा
द्वितीय वरीयता - 4 अंक.
जिससे कि विजित प्रत्याशी को एक बार में ही ५० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त हो सकें, क्योंकि इस स्थिति में पुनः मतदान करना अव्यवहारिक होगा. .
भारतीय समाज - विषमताओं का दंगल
आज का भारतीय समाज अनेक विषमताओं में निमग्न है किन्तु उनसे जूझने का दम उसमें कहीं दिखाई नहीं दे रहा है. व्यक्ति को सबसे पहले रोटी चाहिए बिना संघर्ष के, तभी वह आगे की सोच सकता है. जिस वर्ग को रोटी उपलब्ध नहीं है वह इसे पाने के प्रयासों में तल्लीन हैं और यह उस की विवशता है. जिन्हें यह उपलब्ध है वह प्रथम वर्ग के शोषण से ही उपलब्ध हो रही है, इसलिए वे इस स्थिति में परिवर्तन कदापि नहीं चाहते. बस इस विषय पर यदा-कदा अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दर्शाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं. शेष समय वे विविध माध्यमों से अपने मनोरंजन में व्यतीत करते हैं. दोनों वर्गों की जनसँख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण दोनों को रोटी के नए नए स्रोत खोजना भी आवश्यक हो गया है. अतः प्रथम वर्ग के कुछ लोग छलांग लगाकर दूसरे वर्ग में सम्मिलित होने का प्रयास करते हैं जिससे प्रथम वर्ग को कुछ रहत मिलती है. शेष आवश्यकता पूर्ति के लिए यह वर्ग अधिक परिश्रम करता है अथवा दूसरे वर्ग से छीना-झपटी करता है. दूसरा वर्ग अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए शोषण के नए माध्यम खोजता है और उन्हें विकसित करता है.दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है. सब मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बढ़ती आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए सामान्य विधि - उत्पादन में वृद्धि, पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा.
कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.
भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.
स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.
क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.
भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.
भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.
इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.
इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.
जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.
कुछ सीमा तक यह वर्ग संघर्ष विश्व स्तर पर भी हो रहा है किन्तु कुछ दूसरे प्रकार का. यहाँ का धनिक वर्ग उत्पादन और इस के साधनों का विकास कर चुका है और आगे कर रहा है. इससे कारण यह वर्ग संपन्न है. कुछ सीमा तक यह निर्धन वर्ग का शोषण भी करता है - विशेषकर उससे सस्ते मूल्य पर जनशक्ति प्राप्त करके. किन्तु इसमें दोनों वर्गों के हित समाहित हैं. विश्व स्तर पर निर्धन वर्ग मानवीय भावुकता के आधार पर धनिक वर्ग का शोषण करता है - ऋण, दान, भिक्षा, सहायता, सुरक्षा, आदि की सतत मांग करता हुआ. यहाँ भी दोनों वर्गों के मध्य अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है.
भारतीय समाज एकदम स्पष्ट रूप में दो वर्गों में विभाजित है - शासक और शासित, शोषणकर्ता और शोषित,.धनाढ्य और निर्धन, आदि. इसमें कभी कभी वर्गान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिस वर्ग के हाथ में राजनैतिक सत्ता की बागडोर आ जाती है वही शोषण करने लगता है दूसरे वर्ग का.
स्वतंत्रता, जिसका सपना देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय देखा था, अब स्वच्छन्दता अथवा उद्दंडता में परिवर्तित हो गयी है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग कुछ भी कभी भी कर सकता है बिना किसी मर्यादा का ध्यान रखे. इसे कभी अनुशासनहीनता कहा जाता था किन्तु अब यह अनुशासनहीनता से भी बहुत आगे है. इस स्वच्छन्दता ने भारतीय समाज को एक सजीव अखाड़े में परिवर्तित कर दिया है जिसके कोई नियम अथवा विधान नहीं हैं. इस विधान-हीनता का एक मात्र कारण है न्यायपालिका की न्याय प्रदान करने में असफलता.
क्यों है शासन इतना लापरवाह लोगों को न्याय जैसी मूलभूत सुविधा प्रदान करने में? इस कारण का विशेष विश्लेषण करना ही लक्ष्य है इन आलेख का. यही कारण साल रहा है और छल रहा है हम सब भारतीयों को. आइये झांके अपने समाज में और इसकी मानसिकता में ताकि कोई हल खोजा जा सके.
भारत लंबे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा है और यहाँ का जनमानस सब कुछ चुपचाप सहन करता रहा है. यहाँ तक कि जंगली जातियां, घुमक्कड़, चोर लुटेरे भी यहाँ अपना शासन ज़माने और बनाये रखने में सफल रहे हैं. क्या है इस सब का कारण? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर के प्रश्न और इस प्रश्न का उत्तर एक ही हो. जी हाँ, निश्चित रूप से उत्तर एक ही है.
भारतीय समाज की मानसिकता ही इसका कारण है जिसमें चिंतन की क्षमता शून्यस्थ हो गयी है, बस जो परोसा जाता है, किसी ऊपर वाले द्वारा चाहे वह स्वयं को ईश्वर कहे अथवा शासक, बस उसी को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है, पूरे सहिष्णु भाव के साथ. यह मानसिकता जन-जन में अन्दर तक पैठ गयी है और यह जिज्ञासा भी कभी नहीं होती कि ऊपर वाले ने जो आदेश दिया है वह उचित भी है अथवा नहीं. इसी मानसिकता का लाभ उठाया जाता रहा है यहाँ के उत्पीड़क शासकों द्वारा विगत २००० वर्षों से आज तक.
इस कलुषित मानसिकता को मैं नाम देना चाहूँगा - मनोवैज्ञानिक शासन कराये जाने की सतत अतृप्त इच्छा. स्वयं बस शासित बने रहना ही यहाँ समाज का धर्म है क्योंकि शासन से मुक्त होने का अर्थ होता है स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर अपने जीवन दायित्वों का निर्वाह करना. यह भारतीय मानसिकता के लिए दुष्कर लगता है, इसलिए यह सदैव किसी ऊपर वाले के आश्रय में बने रहना चाहती है. इस आश्रय के लिए आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्मविश्वास आदि सभी प्राकृत मानवीय गुणों को तिलांजलि दे दी जाती है.
इसी आश्रित मानसिकता का लाभ उठाया है अनेक राजनेताओं ने जो स्वयं को कभी ईश्वर के अवतार घोषित कर शासन करते रहे हैं तो कभी ईश्वर पाने के माध्यम, कभी धर्मगुरु बनकर सामने आते हैं तो कभी कर्मकांड करने वाले वामन. ये बस आश्रय प्रदान कर दायित्वों से मुक्ति का आश्वासन देते रहे हैं और शासन करते रहे है जन-मानस पर - कभी राजनैतिक तो कभी मनोवैज्ञानिक. ये चाहे कितने भी अत्याचार करें, कितने भी व्यभिचार और दुष्कर्म करें, जनमानस इनके विरुद्ध कोई स्वर सुनने को प्रस्तुत नहीं होता क्योंकि ये ही इसके मनोवैज्ञानिक खोखलेपन में आश्रयदाता होते हैं.
जनमानस में स्वयं चिंतन की क्षमता नहीं है उसे चिन्तक करने के लिए किसी न किसी ऊपर वाले की अपरिहार्य आवश्यकता होती है. यही इस समाज की परंपरा बन गयी है और इस या अन्य किसी परंपरा के विरुद्ध यह निर्बल जनमानस कुछ सुनने को तैयार नहीं होता. बस परम्पराओं का अनुपालन हे यहाँ का धर्म है जिसने इस देश में घोर विषमताएं उत्पन्न की हैं और वे सब एक दंगल के रूप में चारों ओर फ़ैली दिखाई दे रही हैं.
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
दो बुद्धों की कथा
देव-यवन संघर्ष के समय कुछ अन्य लोग भी देवों के विरुद्ध यवनों के साथ मिल गए जिनमें एक सिद्धार्थ भी था जो एक प्रतिष्ठित देव शुद्धोधन का पुत्र था. उस समय देवों की परंपरा में बुद्ध एक उपाधि थी जो शीर्ष न्यायाधिपति को दी जाती थी. इस परंपरा में प्रथम बुद्ध शाक्य सिंह थे. उनके बाद यह पड ऋषि गौतम को दिया गया. संघर्ष के समय गौतम ही वास्तविक बुद्ध थे.
गौतम की पत्नी अहिल्या अप्रतिम रूपवती थी जिसे गौतम की पत्नी होने के कारण गौतमी भी कहा जाता था. उस पर सिद्धार्थ की कुदृष्टि पड गयी. एक बार जब ऋषि गौतम घर से बाहर गए हुए थे उस समय सिद्धार्थ गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंचा और उसे भ्रमित कर उसके साथ सम्भोग किया. इससे अहिल्या गर्भवती हो गयी. बाद में जब अहिल्या को इसका ज्ञान हुआ तो वह सदमे में जडवत हो गयी. ब्रह्मा के समझाने-बुझाने और उसे निर्दोष माना जाने पर ही वह सामान्य अवस्था में आयी.
अपने पुत्र के इस अपराध के लिए शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को अपने नगर से निष्कासित कर दिया.और वह कृष्ण की शरण में चला गया. कृष्ण ने उसे अब श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर बसा दिया जो उस समय निर्जन था और कृष्ण के अधिकार क्षेत्र में था. श्रीलंका का अब ज्ञात इतिहास भी इसी प्रकार कहता है कि यह द्वीप भारत से निष्कासित एक राजकुमार द्वारा बसाया गया था. यहाँ बसने के बाद उसने साधना करने का छल किया और बोधगया में साधना पर कुछ समय बैठने के बाद स्वयं को बुद्ध घोषित कर दिया. उसने अपने बारे में वैसी ही उदघोषणाएँ कीं जैसी कि कृष्ण अपने बारे में किया करता था. इसी सिद्धार्थ ने बाद में बोद्ध धर्म का प्रतिपादन किया जिसमें लाखों युवक बोद्ध भिक्षु बनकर बिना परिश्रम किये वैभव भोगने लगे थे और देश में अकर्मण्यता का रोग लग लग गया था.
बोद्ध धर्म का प्रमुख ग्रन्थ तिपिटक है जिसमें सिद्धार्थ को बुद्ध न कहकर सम्बुद्ध - बुद्ध के समान - कहा गया है. इसी ग्रन्थ के अम्बत्थ सुत्त में कहा गया है -
यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो.
जो तत्कालीन विद्वानों की मनोस्थिति के बारे में है और जिसका अर्थ - 'क्या वह गौतम जैसा ही हैं, या वैसा नहीं हैं'. इसी प्रकार के अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है कि सिद्धार्थ गौतम नहीं था किन्तु गौतम जैसा ही था.
इस बारे में यह भी ध्यातव्य है कि ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ ने गृहत्याग रोगों, वृद्धावस्था और मृत्यु के दुखों से दुखी होने के कारण किया था और वह इन दुखों से मुक्ति मार्ग खोजने घर से निकला था. इसके बाद उसने स्वयं को बोधिसत्व घोषित किया जिसका तात्पर्य होता है कि उसे उक्त दुखों से मुक्ति का मार्ग मिल गया था. किन्तु इस पर भी उसने इन दुखों से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखाया और ये दुःख उसी प्रकार आज तक बने हुए हैं जैसे कि पहले थे. इससे सिद्ध यही होता है कि सिद्धार्थ का बोधिसत्व होना केवल एक आडम्बर था.
गौतम की पत्नी अहिल्या अप्रतिम रूपवती थी जिसे गौतम की पत्नी होने के कारण गौतमी भी कहा जाता था. उस पर सिद्धार्थ की कुदृष्टि पड गयी. एक बार जब ऋषि गौतम घर से बाहर गए हुए थे उस समय सिद्धार्थ गौतम का वेश धारण कर अहिल्या के पास पहुंचा और उसे भ्रमित कर उसके साथ सम्भोग किया. इससे अहिल्या गर्भवती हो गयी. बाद में जब अहिल्या को इसका ज्ञान हुआ तो वह सदमे में जडवत हो गयी. ब्रह्मा के समझाने-बुझाने और उसे निर्दोष माना जाने पर ही वह सामान्य अवस्था में आयी.
अपने पुत्र के इस अपराध के लिए शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को अपने नगर से निष्कासित कर दिया.और वह कृष्ण की शरण में चला गया. कृष्ण ने उसे अब श्रीलंका कहे जाने वाले द्वीप पर बसा दिया जो उस समय निर्जन था और कृष्ण के अधिकार क्षेत्र में था. श्रीलंका का अब ज्ञात इतिहास भी इसी प्रकार कहता है कि यह द्वीप भारत से निष्कासित एक राजकुमार द्वारा बसाया गया था. यहाँ बसने के बाद उसने साधना करने का छल किया और बोधगया में साधना पर कुछ समय बैठने के बाद स्वयं को बुद्ध घोषित कर दिया. उसने अपने बारे में वैसी ही उदघोषणाएँ कीं जैसी कि कृष्ण अपने बारे में किया करता था. इसी सिद्धार्थ ने बाद में बोद्ध धर्म का प्रतिपादन किया जिसमें लाखों युवक बोद्ध भिक्षु बनकर बिना परिश्रम किये वैभव भोगने लगे थे और देश में अकर्मण्यता का रोग लग लग गया था.
बोद्ध धर्म का प्रमुख ग्रन्थ तिपिटक है जिसमें सिद्धार्थ को बुद्ध न कहकर सम्बुद्ध - बुद्ध के समान - कहा गया है. इसी ग्रन्थ के अम्बत्थ सुत्त में कहा गया है -
यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो.
जो तत्कालीन विद्वानों की मनोस्थिति के बारे में है और जिसका अर्थ - 'क्या वह गौतम जैसा ही हैं, या वैसा नहीं हैं'. इसी प्रकार के अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है कि सिद्धार्थ गौतम नहीं था किन्तु गौतम जैसा ही था.
इस बारे में यह भी ध्यातव्य है कि ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ ने गृहत्याग रोगों, वृद्धावस्था और मृत्यु के दुखों से दुखी होने के कारण किया था और वह इन दुखों से मुक्ति मार्ग खोजने घर से निकला था. इसके बाद उसने स्वयं को बोधिसत्व घोषित किया जिसका तात्पर्य होता है कि उसे उक्त दुखों से मुक्ति का मार्ग मिल गया था. किन्तु इस पर भी उसने इन दुखों से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखाया और ये दुःख उसी प्रकार आज तक बने हुए हैं जैसे कि पहले थे. इससे सिद्ध यही होता है कि सिद्धार्थ का बोधिसत्व होना केवल एक आडम्बर था.
वाजीकरण
वाजीकरण का अर्थ वर्तमान शास्त्रनुवादों में स्त्री-रमण माना जा रहा है जो सर्वथा मिथ्या है.वस्तुतः इस शब्द का लोक स्वरुप बाजीगर है जो उन लोगों के लिए उपयुक्त किया जाता है जो लोक मनोरंजन के लिए हाथों की सफाई से तरह तरह के खेल दिखाते हैं. इस कार्य में अत्यधिक चपलता, शरीर और मस्तिष्क का सामंजस्य, तथा बुद्धिमानी की आवश्यकता होती है. अतः वाजीकरण का अर्थ शरीर और मस्तिष्क का पूर्ण स्वास्थ एवं सामंजस्य है जिसे सरल भाषा में बुद्धिमानी कहा जा सकता है.
इसकी पुष्टि यूरोपीय भाषा परिवार की एक भाषा डच के शब्द wijsseggher से होती है जो वाजीकरण के अत्यधिक निकट है एवं जिसका अर्थ 'ऐसा व्यक्ति, जो अत्यधिक बौद्धिक कार्यों में व्यस्त रहता हो'.
इसकी पुष्टि यूरोपीय भाषा परिवार की एक भाषा डच के शब्द wijsseggher से होती है जो वाजीकरण के अत्यधिक निकट है एवं जिसका अर्थ 'ऐसा व्यक्ति, जो अत्यधिक बौद्धिक कार्यों में व्यस्त रहता हो'.
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
यवन
प्राचीन काल में एशिया माइनर में एक क्षेत्र का नान आयोनिया (Ionia) था और यहाँ के लोग यवन कहलाते थे. अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण धीरे धीरे ये लोग अन्य भू भागों पर भी फ़ैल गए और यवन जाति एक विशाल जाती और विशाल भू क्षेत्र की स्वामी बन गयी.इस जाती की वृद्धित शक्ति को देखते हुए अनेक अन्य छोटीचोटी जातियों ने भी स्वयं को यवन कहना आरम्भ कर दिया. यहाँ तक कि फिलिप और उसका पुत्र सिकंदर, जो मूलतः मेसिडोनिया क्षेत्र तथा डोरिस नगर के वासी होने के कारण मेसिडोन अथवा डोरियन थे, स्वों को यवन कहने लगे. यह संभव है कि इनके पूर्वज मूलतः आयोनिया के वासी रहे हों. फिलिप ने ग्रीस पर अपने अधिपत्य के बाद उस देश का नाम बदलकर यूनान कर दिया और वहन के सभी वासी यूनानी अथवा यवन कहलाने लगे.
यवन शब्द मूलतः लैटिन भाषा के शब्द ion से उद्भूत है जिसका अर्थ बैंगनी रंग होता है. भारत के देवों द्वारा विकास किये जाते समय यवनों ने ही इस पर अपना अधिपत्य ज़माने का प्रयास किया था जो एक षड्यंत्रपूर्ण विशाल एवं दीर्घगामी योजना थी. इसी योजना के अंतर्गत भारत में आकर बसे यहूदी परिवार में कृष्ण का कृत्रिम जन्म कराया गया. वस्तुतः एक यवन भ्रूण को बैंगनी रंग में रंगकर यहूदी स्त्री के गर्भ में आरोपित करके बैंगनी रंग के कृष्ण का जन्म कराया गया. उसका बैंगनी रंग कृत्रिम था क्योंकि किसी भी अन्य व्यक्ति का रंग कभी बैंगनी नहीं हुआ. बैंगनी रंग को यवन शक्ति के प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया.
इस प्रकार शास्त्रों में यवन शब्द दो अर्थों में उपयुक्त किया गया है - एक जाती के लिए, तथा दूसरा बैंगनी रंग के लिए. शास्त्र लिखे जाते समय शब्दों का बहुत अधिक विकास नहीं हुआ था, इसलिए शब्दों को अनेक अर्थों में उपयोग किया गया है. किन्तु इसके विपरीत एक ही अर्थ के लिए कदापि अनेक शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है.
यवन शब्द मूलतः लैटिन भाषा के शब्द ion से उद्भूत है जिसका अर्थ बैंगनी रंग होता है. भारत के देवों द्वारा विकास किये जाते समय यवनों ने ही इस पर अपना अधिपत्य ज़माने का प्रयास किया था जो एक षड्यंत्रपूर्ण विशाल एवं दीर्घगामी योजना थी. इसी योजना के अंतर्गत भारत में आकर बसे यहूदी परिवार में कृष्ण का कृत्रिम जन्म कराया गया. वस्तुतः एक यवन भ्रूण को बैंगनी रंग में रंगकर यहूदी स्त्री के गर्भ में आरोपित करके बैंगनी रंग के कृष्ण का जन्म कराया गया. उसका बैंगनी रंग कृत्रिम था क्योंकि किसी भी अन्य व्यक्ति का रंग कभी बैंगनी नहीं हुआ. बैंगनी रंग को यवन शक्ति के प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया.
इस प्रकार शास्त्रों में यवन शब्द दो अर्थों में उपयुक्त किया गया है - एक जाती के लिए, तथा दूसरा बैंगनी रंग के लिए. शास्त्र लिखे जाते समय शब्दों का बहुत अधिक विकास नहीं हुआ था, इसलिए शब्दों को अनेक अर्थों में उपयोग किया गया है. किन्तु इसके विपरीत एक ही अर्थ के लिए कदापि अनेक शब्दों का उपयोग नहीं हुआ है.
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