गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यज्ञ (यजन), याज्ञ (याजन)

यज्ञ (यजन), याज्ञ (याजन), युग और योग, ये सभी सब्द संग्रहवाचक हैं अर्थात कुछ वस्तुओं को एक साथ जोड़ना. इन शब्दों का उस समय विकास हुआ जब मनुष्य जाती ने समाज बनाकर बस्तियों में रहना आरम्भ किया था. बसई में रहने को यज्ञ कहा गया क्योंकि इसके माध्यम से व्यक्तियों का संग्रह होता है. इसी शब्द से याज्ञ शब्द उद्भूत हुआ है, तदनुसार इसका अर्थ बस्ती का निर्माण करना अथवा बसाना होता है.


विद्युत् ऊर्जा की कमी तथापि दुरूपयोग

आधुनिक मानव जीवन के लिए विद्युत् ऊर्जा वस्त्रों और भवनों की तरह ही महत्वपूर्ण हो गयी है. इस पर भी भारत की लगभग आधी जनसँख्या को विद्युत् उपलब्ध नहीं है. जिन ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत् उपलब्ध भी है वहां भी अनेक क्षेत्रों में केवल नाम मात्र के लिए उपलब्ध है, और संध्या के समय तो बिलकुल नहीं जब प्रकाश के लिए इसकी अतीव आवश्यकता होती है. इस कारण से भारत के अधिकाँश ग्रामीणों का जीवन अभी भी अँधेरे की कालिख में दबा हुआ है. नगरीय क्षेत्रों में जहाँ रात्री के १०-१२ बजे तक चहल-पहल रहती है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में संध्या होते ही घर और गलियां अँधेरे में डूब जाते हैं. चूंकि देश की अधिकाँश जनसँख्या ग्रामों में रहती है, इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीयों के जीवन अंधेरों में डूबे हैं.

भारत में विद्युत् ऊर्जा का अभाव प्रतीत होता है इस पर भी इस जीवन समृद्धि स्रोत का किस प्रकार दुरूपयोग किया जा रहा है, इस पर एक दृष्टि डालें.
  1. ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ विदुत पहुँच चुकी है वहां इसकी चोरी सार्वजनिक रूप से की भी जा रही है और विद्युत् वितरण अधिकारियों द्वारा निजी स्वार्थों के लिए कराई भी जा रही है. चोरी का किया जाना भी उनकी लापरवाही के कारण ही संभव होता है. इससे कुछ जीवन तो प्रकाशित होते हैं किन्तु यह प्रक्रिया बहुत अन्यों के जीवनों को अँधेरे में धकेल रही है क्योंकि चोरी से विद्युत् का उपयोग करने वाले इसका अत्यधिक दुरूपयोग करते हैं. उनके घरों में बल्ब तो अनेक लगे होते हैं किन्तु उनके कोई स्विच नहीं होते. दिन हो या रात, प्रकाश की आवश्यकता हो या नहीं उनके बल्ब विद्युत् उपलब्ध होने पर जले ही रहते हैं.   
  2. भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में विद्युत् का सही विद्युत् वोल्टेज प्राप्त नहीं होता है. देखा यह गया है कि विद्युत् वोल्टेज २३० के स्थान पर १००-१५० ही रहता है. इन दोनों कारणों से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता होती है कि वे प्रत्येक विदुत परिचालित उपकरण के लिए एक वोल्टेज स्थिरक का उपयोग करें, जिनकी कार्य दक्षता ६० से ७० प्रतिशत होती है. अतः विद्युत् की जितनी खपत होनी चाहिए, उससे लगभग ३० प्रतिशत अधिक खपत होती है. यदि विद्युत् लीनों पर वोल्टेज सही रहे तो यहे ३० प्रतिशत ऊर्जा अन्य लोगों के जीवनों को प्रकाशित कर सकती है. साथ हीउपभोक्ताओं का जो धन इन अतिरिक्त अनावश्यक उपकरणों पर व्यय हो रहा है, वह उनके जीवन स्तर को सुधार सकता है.
  3. विद्युत् अधिकारियों की असक्षमता और लापरवाही के कारण भारत में विद्युत् उपलब्धि का कोई निश्चित समय नहीं होता. यहे कभी भी उपलब्ध हो सकती है और कभी भी बंद. इस कारण से विद्युत् उपभोक्ताओं की विवशता यह भी होती है कि वे अपने घर एवं कार्यालयों में आवश्यकतानुसार विदुत उपलब्ध रखने के लिए बैट्री और इनवर्टरों का उपयोग करें. ये अतिरिक्त उपकरण ५० प्रतिशत से कम कार्य दक्षता रखते हैं और बहुमूल्य भी होते हैं. इस प्रकार इन से उपभोक्ताओं को धन की हनी तो होती ही है विद्युत् ऊर्जा की खपत भी दोगुनी हो जाती है. जहाँ विद्युत् का अभाव इतना अधिक हो, वहां विद्युत् का इस प्रकार का दुरूपयोग एक आपराधिक वृत्ति को दर्शाता है. 
  4. विदुत का चौथा दुरूपयोग उत्तर प्रदेश जैसे कुछ कुप्रबंधित राज्यों में ही पाया जाता है. उत्तर प्रदेश में, जहाँ विद्युत् का बहुत अधिक अभाव है, प्रत्येक घरेलु उपभोलता के लिए २ किलोवाट का विदुत कनेक्शन लेना अनिवार्य कर दिया गया है जबकि अधिकांश घरों में ५०० वाट का ही विद्युत् भार होता है अथवा सीमित किया जा सकता है. इस प्रकार प्रत्येक घरेलु उपभोक्ता को विवश किया जा रहा है कि वह अपनी आवश्यकता से चार गुनी विदुत ऊर्जा की खपत करे तथा उसके विद्युत् बिउल्ल का भुगतान करे. विद्युत् कुप्रबंधन का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है.  
भारत विद्युत् ऊर्जा का उत्पादन एवं वितरण अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है और शासन प्रशासन इसकी व्यवस्था करता है. इस प्रकार देश और इसके नागरिक स्वयं ही पतन की ओर नहीं जा रहे उन्हें शासन एवं प्रशासन द्वारा इस ओर धकेला भी जा रहा है.

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

सरकार के अधिकार और कर्तव्य

बौद्धिक जनतंत्र जहाँ सरकार को नागरिकों के जीवन को अनुशासित करने के लिए विशिष्ट अधिकार प्रदान करता है वहीं यह सरकार को जीवन स्तर में सुधार और उसमें प्रसन्नता विकास के लिए उत्तरदायी भी बनाता है. सरकार के इसके अतिरिक्त कोई अन्य कर्तव्य नहीं हैं क्योंकि इन्हीमें वह सब कुछ समाहित है जो किसी राष्ट्र के विकास के लिए वांछित है.

नागरिक विकास
नागरिकों का सर्वांगीण विकास ही राष्ट्र का सर्वांगीण विकास होता है जिसके लिए प्रत्येक नागरिक स्वस्थ, शिक्षित और अनुशासित होना चाहिए. स्वस्थ और शिक्षा सेवाओं की निःशुल्क व्यवस्था करना और सभी नागरिकों को सामान रूप में अवसर प्रदान करना बौद्धिक जनतंत्र सरकार के अनिवार्य दायित्व हैं. नागरिकों को अनुशासित करने के लिए उनको निःशुल्क एवं त्वरित न्याय प्रदान करना भी सरकार का दायित्व है ताकि कोई नागरिक किसी अन्य नागरिक के साथ अन्याय करने का साहस ही न करे. इसके लिए सरकार को कठोर दंड व्यवस्था के लिए अधिकृत किया जाता है.

धर्म, संप्रदाय और स्वतंत्रता  
बौद्धिक जनतंत्र में प्रत्येक नागरिक को कोई भी धर्म अथवा संप्रदाय अपनाने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी किन्तु इसका सार्वजनिक प्रदर्शन पूरी तरह प्रतिबंधित होगा. इसका अर्थ यह भी है कि प्रत्येक नागरिक व्यक्तिगत स्तर पर ही स्वतंत्र होगा सामाजिक स्तर पर नहीं. सामाजिक स्तर पर उसे अनुशासित रहना होगा और इसका दायित्व सरकार का होगा. इस प्रकार नागरिक सीमित रूप में ही स्वतंत्र होंगे, पूर्ण रूप में नहीं. सार्वजनिक स्तर पर समाज और राष्ट्र के हित उसकी स्वतंत्रता को संयमित करेंगे.  

उद्योग एवं व्यवसाय
सरकार कोई उद्योग अथवा व्यवसाय कार्य नहीं करेगी, किन्तु प्रत्येक उद्योग एवं व्यवसाय को नियमित एवं नागारिकोंमुखी बनाये रखना सरकार का अधिकार भी है और दायित्व भी. इसके लिए बौद्धिक जनतंत्र के अंतर्गत दो स्थाई संवैधानिक आयोग कार्यरत रहेंगे - उत्पाद गुणता एवं मूल्य निर्धारण आयोग, तथा मांग पूर्वाकलन एवं उत्पादन नियोजन आयोग. ये आयोग सुनिश्चित करेंगे कि नागरिकों की सभी आवश्यकताएं उचित मूल्य पर उच्च गुणता वाले उत्पादों से आपूर्त हों. साथ ही देश में निम्न गुणता वाला कोई उत्पाद अनुमत ही नहीं होगा.  


सार्वजनिक सेवाएँ 
परिवहन, संचार, विद्युत्, जल, आदि सार्वजनिक सुविधाएं जहाँ राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं वहीं नागरिकों के जीवन को भी सहज एवं सुविधाजनक बनाती हैं. सरकार इस प्रकार की लोई सेवा स्वयं प्रदान नहीं करेगी किन्तु इनकी समुचित उपलब्धि सरकार का दायित्व होगी, जो वह निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित एवं नियमित करते हुए करेगी.

कृष्ण का लक्ष्य और चरित

कृष्ण के जीवन का एक मात्र लक्ष्य भारत भूमि को अपने अधिकार में लेना था क्योंकि यहाँ विशाल समतल भूमि क्षेत्र था, पूरे क्षेत्र में प्राकृत जलधाराएँ थीं, भूमि उपजाऊ थी और खनिजों से संपन्न थी. इनके अतिरिक्त यहाँ के लोग सीधे सादे सरल स्वभाव के थे जिनपर सरलता से शासन किया जा सकता था. देवों ने यहाँ पर्याप्त विकास कार्य कर दिए थे जिससे शोषण के लिए पर्याप्त स्रोत उपलब्ध हो गए थे.

भारत में कृष्ण का जन्म यवन शक्ति के प्रतीक के रूप में कराया गया था. मूलतः एक छोटे से क्षेत्र आयोनिया (Ionia ) के लोगों को यवन कहा जाता था जो दूर दूर तक जा बसे थे और अपनी जाती का विस्तार कर रहे थे. प्लेटो भी इसी जाती का था जो ग्रीस के नगर राज्य अथेन्स में जा बसा था और भारत के विरुद्ध षड्यंत्र का रचयिता था. इसी ने एक यवन भ्रूण को बैंगनी रंग कर भारत में कृष्ण का जन्म प्रबंधित किया था जिससे कृष्ण बैंगनी रंग का एक मात्र व्यक्ति था. लैटिन भाषा में ion शब्द का अर्थ बैंगनी रंग है, इसीलिये कृष्ण का रंग बैंगनी रखा गया ताकि वह यवन शक्ति का परिचायक रहे.

अधिकार करने की इस महत्वाकांक्षी योजना में केवल एक बाधा थी - लोकप्रिय राम, परम बुद्धिमान विष्णु, परम बलशाली महेश्वर और कंस, जरासंध, कीचक आदि योद्धाओं की उपस्थिति. इसलिए कृष्ण के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह येन केन प्रकारेण इनका सफाया करे अथवा करवाए.

कृष्ण ने उस समय तक स्वयं को दिव्य सिद्ध करने में कोई कसर नहीं रख छोडी थी किन्तु वह ब्रह्मा (राम) की तरह लोकप्रिय नहीं हो पाया था. कृष्ण निरक्षर था और उसकी शिक्षा-दीक्षा छल-कपटों तक सीमित थी, इसलिए वह विष्णु (लक्ष्मण) की बुद्धिमत्ता का सामना करने में भी असक्षम था. स्वयं को दिव्य सिद्ध बनाये रखने के किये वह स्वयं किसी से भी सीधे टकराव से बचता था अन्यथा पराजय उसकी दिव्यता की पोल खोल देती. इस कारण से वह स्वयं किसी युद्ध अथवा द्वन्द में भाग लेने से कतराता था जिससे वह स्वभावतः कायर बन गया था. इसलिए बलशाली और योद्धा देवों से भयभीत हो वह बचता ही रहता था, विशेषकर महेश्वर (भरत) से तो वह भयभीत ही रहता था. किन्तु उसकी महत्वाकांक्षा की आपूर्ति के लिए उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, कंस, कीचक, जरासंध आदि देवों को अपने मार्ग से हटाना अनिवार्य था. उस समय मदुरै में कंस का शासन था और वहीं कृष्ण के यदुवंश का बाहुल्य था, इसलिए उसने सबसे पहले मदुरै पर अधिकार की योजना बनाई. श्रीमदभगवद-गीता की प्रस्तावना में कंस के वध का उल्लेख इस प्रकार है -

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम. 
अर्थात - वसुदेव के रक्षक देव कंस के दोनों आणों (अन्डकोशों) को मसल दिया गया.

इसके बाद दक्षिण भारत पर कृष्ण का अधिकार हो गया और यही उसकी गतिविधियों का केंद्र बना. किन्तु वह उत्तरी क्षेत्र में आकर देव योद्धाओं से टकराने का साहस न कर सका.    

इस कार्य के लिए उसने पांडवों को भारत बुलाया जो कुंती के साथ जंगल-जंगल भटक रहे थे. तीनों पांडव सरल स्वाभाव के तथा बहुत कुछ बुद्धिहीन थे. कृष्ण ने उन्हें भारत के शासन में भागे देने का वचन दिया और वे कृष्ण के छल में आगये. पांडवों में भीम सर्वाधिक बलशाली था इसलिए उसने भीम को ही देव योद्धाओं से एक-एक करके युक्तिपूर्वक भिड़ाया. भीम का बल और कृष्ण का छल अधिकांश देवों को पराजित करने में सफल रहे. इन वधों तथा हत्याओं से देवों की शक्ति क्षीण होने लगी.

देवों की इस दुर्बलता का पूरा लाभ उठाने के लिए उसने महाभारत युद्ध की योजना बनायी जो तत्कालीन विश्व के सभी योद्धाओं की हत्या की योजना थी. इस युद्ध के लिए उसने सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया और पांडवों को राज्य में हिस्सा देने को कारण बनाया. उसके तर्क रखा कि कुंती का विवाह महेश्वर से हुआ था इसलिए उसके पुत्र पांडव महेश्वर के पुत्र हुए, जब कि वे कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं. .  






सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पृष्ठभूमि

भारत के वेद और शास्त्र ज्ञान-विज्ञानं तथा लगभग २४०० वर्ष पूर्व के इतिहास के अकूत भण्डार हैं. तथापि इनके सही अनुवाद न होने के कारण इनसे न तो कोई ज्ञान-विज्ञानं प्राप्त हो पाया है और न ही कोई विश्वसनीय एतिहासिक तथ्य. इसका प्रमुख कारण यह है कि अभी तक इनके सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत शब्दावली के अर्थों के आधार पर किये गए हैं जबकि सभी विद्वान् इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आधुनिक संस्कृत भाषा इन ग्रंथों के लिखे जाने से बहुत बाद में विकसित की गयी थी. इनकी वास्तविक भाषा को प्रायः वैदिक संस्कृत कहा जाता है. इनके वर्तमान में प्रचलित हिंदी अनुवादों से जो प्राप्त होता है वह विकृत और भ्रमित करने वाला है. इन अनुवादों के कारण ये बहुमूल्य ग्रन्थ अप्रासंगिक लगने लगते हैं.

श्री अरविन्द की प्रेरणा तथा इन ग्रंथों पर किये गए शोधों से मुझे ज्ञात हुआ कि इनकी शब्दावली का आधुनिक संस्कृत से कोई सम्बन्ध न होकर तत्कालीन विकसित लैटिन और ग्रीक भाषाओं से गहन सम्बन्ध है. इस आधार पर किये गए अनुवादों से ही इन बहुमूल्य ग्रंथों से इनके मंतव्यों का सही बोध होना संभव है. किन्तु यह ग्रंथावली इतनी विशाल है कि मैं अपने सम्पूर्ण जीवन में इनके अनुवाद प्रस्तुत करने में असमर्थ ही रहूँगा. इस कार्य में अन्य विद्वान् भी लगें, इसके लिए मैं इस संलेख के माध्यम से इनकी शब्दावली के व्याख्यात्मक अर्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे कि अनुवाद सरल, सहज और यथार्थपरक हों.    

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

धर्म और भक्ति का नशा

भारतवासियों को सर्वाधिक दुष्प्रभावित किया है भक्तिभाव ने और दुष्टों ने इसका सतत लाभ उठाया है उनकी कमाई पर वैभव-भोग के लिए. ईश्वर और उसकी भक्ति से लोग इतने अधिक आतंकित रहे हैं कि दुष्टों ने अपने सिरों पर ईश्वरीय और अन्य दिव्य ताज रख-रख कर उनकी बुद्धि को विकसित होने से पूरी तरह प्रतिबाधित किया हुआ है. इसी कारण से इस देश पर लगभग २००० वर्षों तक चोर, डकैत और लुटेरे शासन करते रहे और उनके विरुद्ध किसी ने सर नहीं उठाया. स्वतन्त्रता के बाद भी लगभग इन्ही वर्गों के भारतीयों ने राजनैतिक सत्ता पर अपने अधिकार किया हुआ है और लोग सब सहन कर रहे हैं - उनके मस्तिष से भक्ति-भाव का नशा उतरता ही नहीं. शासक चाहे कुछ भी करते रहें, वे सब सहन करते जाते हैं.

भक्ति का यह नशा बच्चे को अपने माता-पिता के संस्कारों से जन्म से पहले ही प्राप्त होने लगता है और जन्म लेने पर समाज के प्रत्येक स्तम्भ से और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर इसी नशे को परिपक्व किया जाता रहता है. उसे स्वतंत्र रूप से चिंतन कर अपना मार्ग चुनने का कोई अवसर दिया ही नहीं जाता.

पुनर्जागरण से पूर्व यूरोपे की भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जहाँ प्रत्येक बुद्धि-विसंगत बात को verbum dei अर्थात ईश्वरीय शब्द बताकर बुद्धि को अवरोधित कर दिया जाता था. इस पर भी कुछ साहसी चिंतकों ने नए सिरे से सोचने की परम्परा विकास्ल्ट करते हुए अनेक वैज्ञानिक शोध किये और इस प्रकार मानव जाति को वैज्ञानिक पथ पर अग्रसरित किया. विगत ३०० वर्षों के इन वैज्ञानिक प्रयासों का भारतीयों ने लाभ तो उठाया है किन्तु कभी भी इस प्रकार के चिंतन को नहीं अपनाया. इस कारण से भारत में वैज्ञानिक शोध और विकास कार्य नगण्य ही हुए हैं. और जो भी हुए हैं, वे भारत भूमि एवं इसकी परम्पराओं पर आधारित न होकर बाहरी प्रेरणाओं से हुए हैं.

भारतीयों के मस्तिष्कों पर भक्तिभाव का यह दुश्चक्र्व्यूह इतना अधिक हावी हो गया है कि वे प्रत्येक नव-चिंतन प्रयास को अपने दूषित भावात्मक कुठाराघातों से शैशव अवस्था में ही कुंठित कर देते हैं. इस प्रकार ये भक-भावी स्वयं तो लोई चिंतन करते ही नहीं, किसी अन्य को भी करने से प्रतिबंधित करते रहते हैं. सतत रूप में कुटिल लोगों और से पोषण पाता हुआ यह चक्रव्यूह इतना अधिक सशक्त हो गया है कि यहाँ किसी नवाचार के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है. इस चक्रव्यूह से ही पोषण पा रहे हैं शासकों, प्रशासकों और समाज के तथाकथित पथप्रदर्शकों के दुष्कर्म जो बेरोकटोक किये जा रहे हैं.


इस दुश्चक्र के माध्यम से देश के परिश्रमी एवं भोले-भाले लोगों का खून चूंसा जा रहा है. उन्हें स्वास्थ, शिक्षा और न्याय से वंचित रखा जा रहा है, देश की इस ६० प्रतिशत से अधिक जनसँख्या के खून-पसीने की कमाई पर देश के शासन-प्रशासन से जुडी केवल १५ प्रतिशत जनसँख्या वैभव भोग रही है. शेष २५ प्रतिशत जनसँख्या समाज की पथ-प्रदर्शक बनकर उसका सर प्रत्येक ईंट-पत्थर के समक्ष झुकवाते हुए, उसको धर्म, जाति और सम्प्रदायों के नाम पर विभाजित करते हुए, उसको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हुए, उसको नित्यप्रति मृत्यु, भाग्य, ईश्वर आदि के भय से आतंकित करते हुए उसका मनोवैज्ञानिक पतन करने में लगी हुई है ताकि समाज का कोई अंग सर उठाने योग्य ही नहीं रहे. इस प्रकार ये समाज के तथाकथित अग्रणी भी शासन तंत्र के साथ सांठ-गाँठ कर दूषित शासन तंत्र का पोषण एवं जनता का शोषण कर रहे है.  

आज देश के जनसाधारण की स्थिति १९३८ के फ़्रांस के जनसाधारण से कहीं अधिक बदतर है, जब वहां रक्त-रंजित जनक्रांति हुई थी और शासन तंत्र में व्यापक परिवर्तन किये गए थे. किन्तु भारत में ऐसी कोई संभावना उदित नहीं हुई है.