शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.
इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.
इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.
बुधवार, 13 जनवरी 2010
ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं भाग 3
शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.
इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.
इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.
१. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
२. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.
इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.
इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.
सोमवार, 11 जनवरी 2010
दुर्दशा हिंदी की
हिंदी हमारे देश भारत की घोषित राष्ट्र-भाषा है. किन्तु देश में जो सम्मान अभी भी अंग्रेज़ी को प्राप्त है, हिंदी उससे बहुत दूर है. इसके लिए भाषा या उपयोक्ता जिम्मेदार न होकर वे सब जिम्मेदार हैं जो हिंदी को अपना व्यवसाय बनाए बैठे हैं और इसे विकसित नहीं होने देते. इन व्यवसायियों में हिंदी के लेखक, प्रकाशक तथा राज्य-पोषित हिंदी विशेषग्य सम्मिलित हैं.
भारत के हिंदी-भाषी क्षेत्रों में जन-साधारण को पढने का शौक नहीं है, यह शिकायत हिंदी लेखकों तथा प्रकाशकों को है जो वर्तमान में सच भी है. किन्तु मैं पूछता हूँ कि हिंदी के लेखक या प्रकाशक भी पढने के कितने शौक़ीन हैं. लेखक केवल अपनी बात कहते हैं, किसी अन्य को सुनना या पढ़ना वे अपनी क्षुद्रता समझते हैं. और प्रकाशक तो बिलकुल भी नहीं पढ़ते और अपना व्यवसाय भी केवल राजकीय पुस्तकालयों के लिए चलाते हैं जिसके लिए पुस्तकों के मूल्य जनसाधारण की सीमा से कई गुना रखते हैं और राजकीय पुस्तकालयों में अधिकारियों को रिश्वत देकर अपनी पुस्तकें बेचते हैं. इस कारण से हिंदी प्रकाशन व्यवसाय में जन-साधारण के लिए साधारण मूल्य के पेपर-बेक संस्करणों का प्रचलन नहीं है.
इस विश्व-संजोग पर यदि हिंदी संलेखकों के पठन का अध्ययन करने से पता चलता है कि कोई भी संलेखक दूसरों के संलेखों को न देखता है और न पढ़ता है. गूगल ने दूसरों के संलेखों को पढने के लिए अद्भुत सुविधा प्रदान की हुई है उनके अनुसरण की, किन्तु इसका उपयोग चंद संलेखक ही करते हैं. प्रयोग के रूप में, मैंने अनेकानेक संलेखों का अनुसरण करके देखा है किन्तु इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप ही सही, कुछ अपवादों के अतिरिक्त, किसी ने भी मेरे संलेख देखने का कष्ट नहीं किया. इसमें इन संलेखकों के अहंकार भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं. जबकि यदि आप किसी अंग्रेजी संलेख का अनुसरण करते हैं तो उसका लेखक आपके संलेख को देखेगा अवश्य, और पसंद आने पर उसका अनुसरण भी करेगा.
हिंदी के इन व्यवसायी लेखकों ने हिंदी को केवल एक भाषा के रूप में जाना और माना है, कभी इसे ज्ञान-विज्ञानं के प्रचार-प्रसार का माध्यम नहीं बनाया. इसलिए हिंदी साहित्य अभी तक तोता-मैना के कृत्रिम किस्सों से ऊपर नहीं उठ पाया है. अंग्रेजी भाषा में जहां ८० प्रतिशत पुस्तकें ज्ञान-विज्ञानं के यथार्थ को समर्पित होती हैं, वहीं हिंदी पुस्तकों का नगण्य अंश ही ज्ञान-विज्ञानं के प्रसार में लगता है. इस पर भी शिकायत यह कि हिंदी क्षेत्रों में पुस्तकें नहीं पढी जातीं. तो क्या लोग केवल तोता-मैना के किस्सों में ही सदा-सदा के लिए अटके रहें. इसका भान किसी लेखक या प्रकाशक को नहीं है.
उदहारण के लिए विश्व-संजोग पर हिंदी संलेखों को ही देखिये, जो लगभग २० की सख्या में प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, जिनमें लगभग ५० प्रतिशत प्रेम या विरह के गीतों अथवा कविताओं को समर्पित हैं. शेष में से अधिकाँश कहानी, किस्से, च्ताकले, फुल्झादियों आदि में लगे हैं. इस देश के नागरिक सनातन काल से समस्याओं से पीड़ित हैं, आज़ादी के बाद भी इन समस्याओं से कोई राहत नहीं मिल पायी है जब कि ऐसी अपेक्षाएं बढ़ी हैं. किन्तु हिंदी साहित्य और संलेखों को इन विकराल होती समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. तो फिर क्यों कोई पढ़े इस साहित्य को या इन संलेखों को. लोग वही पढ़ते हैं जो उनकी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करे थवा इन्हें उजागर करे.
हिंदी संलेखों पर टिप्पणी करना भी विशेष रूप धारण कर रहा है. वैसे तो गंभीर पाठक ही नहीं है तो टिप्पणीकार कहाँ से होगा? इस पर भी जो पेशेवर टिप्पणीकार उदित हुए हैं, वे चंद शब्दों को संलेखों पर च्पकाते जाते हैं जिनका संलेखों की विषय-वस्तु से कोई सरोकार नहीं होता. अंग्रेज़ी संलेखों पर टिप्पणी करने वाले ८० प्रतिशत टिप्पणीकार संलेखों को पढ़ते हैं और प्रासंगिक टिप्पणी करते हैं.
हिंदी और केवल हिंदी की यह विशेषता रही है कि इसमे जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है. विगत २० वर्षों में सरकारी दफ्तरों में बैठे हिंदी क्लर्कों ने हिंदी की इस विशेषता को भी ठिकाने लगा दिया. वर्तनी के ऐसे नियम बना दिए जिनमे अनुस्वार को अनेक उपयोगों में लिया जाने लगा है. इससे कोई सुविधा तो उत्पन्न नहीं हुई, केवल लिपि में विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं.
भारत के हिंदी-भाषी क्षेत्रों में जन-साधारण को पढने का शौक नहीं है, यह शिकायत हिंदी लेखकों तथा प्रकाशकों को है जो वर्तमान में सच भी है. किन्तु मैं पूछता हूँ कि हिंदी के लेखक या प्रकाशक भी पढने के कितने शौक़ीन हैं. लेखक केवल अपनी बात कहते हैं, किसी अन्य को सुनना या पढ़ना वे अपनी क्षुद्रता समझते हैं. और प्रकाशक तो बिलकुल भी नहीं पढ़ते और अपना व्यवसाय भी केवल राजकीय पुस्तकालयों के लिए चलाते हैं जिसके लिए पुस्तकों के मूल्य जनसाधारण की सीमा से कई गुना रखते हैं और राजकीय पुस्तकालयों में अधिकारियों को रिश्वत देकर अपनी पुस्तकें बेचते हैं. इस कारण से हिंदी प्रकाशन व्यवसाय में जन-साधारण के लिए साधारण मूल्य के पेपर-बेक संस्करणों का प्रचलन नहीं है.
इस विश्व-संजोग पर यदि हिंदी संलेखकों के पठन का अध्ययन करने से पता चलता है कि कोई भी संलेखक दूसरों के संलेखों को न देखता है और न पढ़ता है. गूगल ने दूसरों के संलेखों को पढने के लिए अद्भुत सुविधा प्रदान की हुई है उनके अनुसरण की, किन्तु इसका उपयोग चंद संलेखक ही करते हैं. प्रयोग के रूप में, मैंने अनेकानेक संलेखों का अनुसरण करके देखा है किन्तु इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप ही सही, कुछ अपवादों के अतिरिक्त, किसी ने भी मेरे संलेख देखने का कष्ट नहीं किया. इसमें इन संलेखकों के अहंकार भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं. जबकि यदि आप किसी अंग्रेजी संलेख का अनुसरण करते हैं तो उसका लेखक आपके संलेख को देखेगा अवश्य, और पसंद आने पर उसका अनुसरण भी करेगा.
हिंदी के इन व्यवसायी लेखकों ने हिंदी को केवल एक भाषा के रूप में जाना और माना है, कभी इसे ज्ञान-विज्ञानं के प्रचार-प्रसार का माध्यम नहीं बनाया. इसलिए हिंदी साहित्य अभी तक तोता-मैना के कृत्रिम किस्सों से ऊपर नहीं उठ पाया है. अंग्रेजी भाषा में जहां ८० प्रतिशत पुस्तकें ज्ञान-विज्ञानं के यथार्थ को समर्पित होती हैं, वहीं हिंदी पुस्तकों का नगण्य अंश ही ज्ञान-विज्ञानं के प्रसार में लगता है. इस पर भी शिकायत यह कि हिंदी क्षेत्रों में पुस्तकें नहीं पढी जातीं. तो क्या लोग केवल तोता-मैना के किस्सों में ही सदा-सदा के लिए अटके रहें. इसका भान किसी लेखक या प्रकाशक को नहीं है.
उदहारण के लिए विश्व-संजोग पर हिंदी संलेखों को ही देखिये, जो लगभग २० की सख्या में प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, जिनमें लगभग ५० प्रतिशत प्रेम या विरह के गीतों अथवा कविताओं को समर्पित हैं. शेष में से अधिकाँश कहानी, किस्से, च्ताकले, फुल्झादियों आदि में लगे हैं. इस देश के नागरिक सनातन काल से समस्याओं से पीड़ित हैं, आज़ादी के बाद भी इन समस्याओं से कोई राहत नहीं मिल पायी है जब कि ऐसी अपेक्षाएं बढ़ी हैं. किन्तु हिंदी साहित्य और संलेखों को इन विकराल होती समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. तो फिर क्यों कोई पढ़े इस साहित्य को या इन संलेखों को. लोग वही पढ़ते हैं जो उनकी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करे थवा इन्हें उजागर करे.
हिंदी संलेखों पर टिप्पणी करना भी विशेष रूप धारण कर रहा है. वैसे तो गंभीर पाठक ही नहीं है तो टिप्पणीकार कहाँ से होगा? इस पर भी जो पेशेवर टिप्पणीकार उदित हुए हैं, वे चंद शब्दों को संलेखों पर च्पकाते जाते हैं जिनका संलेखों की विषय-वस्तु से कोई सरोकार नहीं होता. अंग्रेज़ी संलेखों पर टिप्पणी करने वाले ८० प्रतिशत टिप्पणीकार संलेखों को पढ़ते हैं और प्रासंगिक टिप्पणी करते हैं.
हिंदी और केवल हिंदी की यह विशेषता रही है कि इसमे जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है. विगत २० वर्षों में सरकारी दफ्तरों में बैठे हिंदी क्लर्कों ने हिंदी की इस विशेषता को भी ठिकाने लगा दिया. वर्तनी के ऐसे नियम बना दिए जिनमे अनुस्वार को अनेक उपयोगों में लिया जाने लगा है. इससे कोई सुविधा तो उत्पन्न नहीं हुई, केवल लिपि में विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं.
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रविवार, 10 जनवरी 2010
बौद्धिक जनतंत्र की प्राथमिकताएं एक - स्वास्थ
प्रत्येक प्राणी के लिए स्वास्थ सर्वोपरि होता है और यह स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए भी एक अनिवार्यता है. चूंकि बौद्धिक जनतंत्र स्वस्थ समाज के लिए लक्ष्यित है, इसलिए इसमें नागरिकों के स्वास्थ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है. नागरिकों का स्वास्थ राष्ट्र की सर्वोत्तम संपदा होती है इसका दायित्व भी राष्ट्र का ही होना चाहिए. इस मत के अनुसार बौद्धिक जनतंत्र में समस्त राष्ट्र में सभी नागरिकों के लिए सभी प्रकार की स्वास्थ परामर्श एवं सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में निःशुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान है.साथ ही चिकित्सा सेवाएँ निजी क्षेत्र में रहेंगी और नागरिकों को उनका भुगतान करना होगा ताकि नागरिकों में स्वस्थ बने रहने के लिए निरंतर जागरूकता बनी रहे.
स्वास्थ के लिए रोगों की चिकित्सा से अधिक उनकी रोकथाम करना अधिक महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए निम्नांकित उपाय निर्दिष्ट हैं -
स्वच्छता एवं शुद्धता : स्वास्थ के लिए स्वच्छता अनिवार्य है इसलिए शासन एवं प्रशासन ग्राम स्तर तक सार्वजनिक स्थलों एवं मार्गों की सफाई के लिए उत्तरदायी होंगे एवं इसकी व्यवस्था संचालित करेंगे..खाद्य सामग्रियों में मिलावट रोकने के लिए यह राष्ट्रद्रोह माना जाएगा जिसके लिए मृत्युदंड का प्रावधान है.साथ ही समस्त देश में उत्पादित सभी वस्तुओं की गुणवत्ता का नियमन सरकारी क्षेत्र के गुणवत्ता एवं मूल्य निर्धारण आयोग द्वारा किया जायेगा जिसके अंतर्गत प्रत्येक वस्तु के लिए केवल तीन गुणवत्तावर्ग निर्धारित होंगे ताकि देश में किसी घटिया वस्तु का उत्पादन ही न हो. बौद्धिक जनतंत्र में घटिया वस्तु का उत्पादन राष्ट्र के संसाधनों का दुरूपयोग मन गया है.
मादक द्रव्य वर्जित : राष्ट्र में कहीं भी किसी भी मादक द्रव्य का उत्पादन अथवा वितरण अवैध घोषित होगा जिनमें तम्बाकू, मदिरा, अफीम, गांजा, भांग आदि सम्मिलित हैं. इस प्रावधान का उल्लंघन राष्ट्र-द्रोह होगा जिसके लिए मृत्युदंड दिया जाएगा. औषधि के रूप में भी केवल फलों के रसों के किण्वन से उत्पादित मदिराएं अनुमत होंगी जिनपर अन्य औषधियों की भांति ही कोई कर लागू नहीं किया जाएगा.
खाद्योत्पादन : मनुष्यों के स्वास्थ में फलों का बहुत महत्व होता है इस दृष्टि से देश में फलों के उत्पादन के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए जायेंगे ताकि उचित मूल्य पर फल सभी को उपलब्ध हो सकें. इसके अतिरिक्त गन्ने के उत्पादन को निरुत्साहित किया जाएगा, क्योंकि इससे उत्पादित शक्कर मनुष्य के शरीर में मोटापा, मधुमेह, आदि अनेक रोगों को जन्म देती है. दलहन तथा तिलहनों का उत्पादन संवर्धित किया जाएगा जिससे नागरिकों को प्रोटीन तथा प्राकृत वसायुक्त खाद्य उपलब्ध हो सकें. उदाहरण के लिए, जई एक ऐसा खाद्यान्न है जो मनुष्यों के लिए बहुत महत्व रखता है किन्तु भारत में अभी तक इसे लोकप्रिय नहीं बनाया गया है तथा इसे केवल पशुओं को खिलाया जाता है. बौद्धिक जनतंत्र ऐसे खाद्यान्नों पर शोध करा इनके उत्पादन एवं संधानन को प्रोत्साहित करेगा.
परिवार नियोजन : स्वस्थ समाज के लिए सीमित परिवार आवश्यक होता है जिससे कि स्त्रियों पर मातृत्व का अनुचित भार ना पड़े तथा वे परिवार के स्वास्थ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें. परिवार नियोजन नीति का उल्लंघन दंडनीय है, साथ ही नियोजन के सभी सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में निःशुल्क उपलब्ध होंगी.
चिकित्सा बीमा : रोगों की चिकित्सा के लिए नागरिक अपना बीमा करा सकेंगे ताकि दुर्घटना आदि कि अवस्था में चिकित्सा व्यय का वहन बीमा करने वाला प्रतिष्ठान कर सके. ये प्रतिष्ठान भी निजी क्षेत्र में होंगे क्योंकि सरकार किसी व्यावसायिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगी.
स्वास्थ के लिए रोगों की चिकित्सा से अधिक उनकी रोकथाम करना अधिक महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए निम्नांकित उपाय निर्दिष्ट हैं -
स्वच्छता एवं शुद्धता : स्वास्थ के लिए स्वच्छता अनिवार्य है इसलिए शासन एवं प्रशासन ग्राम स्तर तक सार्वजनिक स्थलों एवं मार्गों की सफाई के लिए उत्तरदायी होंगे एवं इसकी व्यवस्था संचालित करेंगे..खाद्य सामग्रियों में मिलावट रोकने के लिए यह राष्ट्रद्रोह माना जाएगा जिसके लिए मृत्युदंड का प्रावधान है.साथ ही समस्त देश में उत्पादित सभी वस्तुओं की गुणवत्ता का नियमन सरकारी क्षेत्र के गुणवत्ता एवं मूल्य निर्धारण आयोग द्वारा किया जायेगा जिसके अंतर्गत प्रत्येक वस्तु के लिए केवल तीन गुणवत्तावर्ग निर्धारित होंगे ताकि देश में किसी घटिया वस्तु का उत्पादन ही न हो. बौद्धिक जनतंत्र में घटिया वस्तु का उत्पादन राष्ट्र के संसाधनों का दुरूपयोग मन गया है.
मादक द्रव्य वर्जित : राष्ट्र में कहीं भी किसी भी मादक द्रव्य का उत्पादन अथवा वितरण अवैध घोषित होगा जिनमें तम्बाकू, मदिरा, अफीम, गांजा, भांग आदि सम्मिलित हैं. इस प्रावधान का उल्लंघन राष्ट्र-द्रोह होगा जिसके लिए मृत्युदंड दिया जाएगा. औषधि के रूप में भी केवल फलों के रसों के किण्वन से उत्पादित मदिराएं अनुमत होंगी जिनपर अन्य औषधियों की भांति ही कोई कर लागू नहीं किया जाएगा.
खाद्योत्पादन : मनुष्यों के स्वास्थ में फलों का बहुत महत्व होता है इस दृष्टि से देश में फलों के उत्पादन के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए जायेंगे ताकि उचित मूल्य पर फल सभी को उपलब्ध हो सकें. इसके अतिरिक्त गन्ने के उत्पादन को निरुत्साहित किया जाएगा, क्योंकि इससे उत्पादित शक्कर मनुष्य के शरीर में मोटापा, मधुमेह, आदि अनेक रोगों को जन्म देती है. दलहन तथा तिलहनों का उत्पादन संवर्धित किया जाएगा जिससे नागरिकों को प्रोटीन तथा प्राकृत वसायुक्त खाद्य उपलब्ध हो सकें. उदाहरण के लिए, जई एक ऐसा खाद्यान्न है जो मनुष्यों के लिए बहुत महत्व रखता है किन्तु भारत में अभी तक इसे लोकप्रिय नहीं बनाया गया है तथा इसे केवल पशुओं को खिलाया जाता है. बौद्धिक जनतंत्र ऐसे खाद्यान्नों पर शोध करा इनके उत्पादन एवं संधानन को प्रोत्साहित करेगा.
परिवार नियोजन : स्वस्थ समाज के लिए सीमित परिवार आवश्यक होता है जिससे कि स्त्रियों पर मातृत्व का अनुचित भार ना पड़े तथा वे परिवार के स्वास्थ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें. परिवार नियोजन नीति का उल्लंघन दंडनीय है, साथ ही नियोजन के सभी सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र में निःशुल्क उपलब्ध होंगी.
चिकित्सा बीमा : रोगों की चिकित्सा के लिए नागरिक अपना बीमा करा सकेंगे ताकि दुर्घटना आदि कि अवस्था में चिकित्सा व्यय का वहन बीमा करने वाला प्रतिष्ठान कर सके. ये प्रतिष्ठान भी निजी क्षेत्र में होंगे क्योंकि सरकार किसी व्यावसायिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगी.
शनिवार, 9 जनवरी 2010
ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो
इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.
भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.
यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.
ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.
इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.
भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.
यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.
ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.
इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.
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शास्त्र,
शास्त्रीय संस्कृत
ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो
इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.
भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.
यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.
ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.
इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.
भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.
यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.
ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.
इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.
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