रविवार, 15 अप्रैल 2012

चलें गाँव की ओर



भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ अधिकतर लोग गाँव में निवास करते हैं. किन्तु गाँव और शहर की सुविधाओं में अंतराल बढ़ता जा रहा है. शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, संचार, यातायात, आदि जहाँ शहरों में सर्व-सुलभ हैं, वहीं ये सुविधाएँ गाँव में अभी भी दुर्लभ हैं. यह भी एक बड़ा कारण है की गाँव से लोगों का पलायन शहरों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. इससे गाँव उजड़ते चले जा रहे हैं. बढ़ाते शहरीकरण के कारण शहरों में भी जन-समस्याओं का अम्बार लग गया है. शहरों में आज सबसे बड़ी समस्या पीने के शुद्ध पानी की है, पानी दूध से भी महंगा हो गया है. शहरों में रहने वाले गरीब प्रदूषित पानी पीने के लिए मजबूर हैं. योजना आयोग के आंकड़े भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं. जहां ३२ रुपये प्रतिदिन कमाने वाला शहरी व्यक्ति गरीबी रेखा के अंतर्गत नहीं आता. यदि वह शुद्ध पानी पीना चाहे तो वह अपनी कमाई से केवल पानी भी नहीं पी सकता, भोजन, वस्त्र आदि तो दूर की बातें हैं.

शहरों की बढ़ती आबादी की दूसरी सबसे बड़ी समस्या उत्सर्जित पदार्थों के ढेर हैं जहां केवल मॉल-मूत्र से ही भूजल तथा शहरों के पास बहने वाली नदियाँ प्रदूषित हो गयी हैं. वहां सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का भी अभाव है. छोटे-बड़े शहरों के आसपास वायु में जहरीले द्रव्यों की मात्रा जीवन मानकों बहुत अधिक है. बढ़ते शहरीकरण की तीसरी समस्या खतरनाक बीमारियाँ जैसे स्वाइन फ्लू, कैंसर, आदि का प्रसार है जिनका भय हर समय बना रहता है और देखते ही देखते लोग अकाल मृत्यु के शिकार होते जा रहे हैं.

शहरीकरण के अंधे दौर ने मनुष्यों को शारीरिक कष्ट ही नहीं दिए, सम्माजिक प्राणी की मानसिक शांति को भी भंग कर दिया है. मनुष्य को उसके प्राकृतिक गुणों प्रेम, दया, परोपकार, समाज-सेवा आदि से दूर कर उसमें अहंकार, भृष्टाचार, दुश्मनी, ईर्ष्या, आदि के बीज बो दिए हैं. वह अधिकाधिक धन कमाने की होड़ में परिवार और समाज से कट चुका है और माता-पिता, पिता-पुत्र, भाई-बहन, आदि के रिश्ते भी केवल कागजी रह गए हैं.


देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने जो सपना देखा था वह धूमिल हो गया है तथा संविधान में दी गयी कल्याणकारी राज्य की स्थापना का संकल्प बेमानी हो गया है क्योंकि गाँव में शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, संचार, यातायात आदि की आवश्यक सुविधाओं के अभाव में गाँव से पलायन जारी है.

आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सरकार की जो भी योजना बनायी जाएँ, वे गाँव को आधार बनाकर बनाई जाएँ. गाँव में रोज़गार के अवसर बढ़ाये जाएँ, कुटीर उद्योगों का विकास हो और शहरीकरण की को सीमित किया जाए, ताकि गाँव से शहरों की ओर को पलायन रुके.

हालांकि सरकार में बैठे जन-प्रतिनिधि, प्रशासक, योजना बनाने वाले लोगों में से अधिकाँश गाँव की मिट्टी में ही पाले-बढे हैं, लेकिन शहरों की चकाचौंध में वे गाँव की पगडंडी, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक, मोर का नांच आदि को भूल गए हैं और वे केवल फिल्म, टेलीविजन, आदि के कृत्रिम आनंद में वास्तविकताओं से दूर हो मानसिक अशांति को बढाते जा रहे हैं. 


आइये, हम सब मिलकर अपनी मात्र भूमि के ऋण से मुक्त होने के लिए अपने-अपने गाँव के लिए अपने-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ करें तथा सरकारी योजनाओं में हस्तक्षेप कर उन्हें ग्रामोन्मुखी बनाने के प्रयास करें तथा अपने-अपने गाँव को समृद्ध करें. अपना तन, मन, धन आदि सभी कुछ अपनी मात्र भूमि के लिए समर्पित करें.


स्वतन्त्रता सैनानियों के गाँव खंदोई से आरम्भ हुए अभियान 'अपनी मात्रभूमि के लिए' में आप सभी सम्मिलित हों ताकि मानवता को समस्याओं से मुक्ति मिले, मन को शांति तथा मन को चैन मिले. तभी 'मेरा गाँव मेरा देश' का सपना साकार होगा.

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

भारतीय विचारकों के दृष्टिकोण - भाग एक

श्री जगदीश गाँधी 

डॉ जगदीश गाँधी लखनऊ नगर के सुप्रसिद्ध एवं कर्मठ शिक्षाविद हैं. नगर का सर्वश्रेष्ठ  विद्यालय  'सिटी मोंटेसरी स्कूल' उनकी कर्मठता का जीवंत प्रतीक है. आज ही उनका एक  पत्र प्राप्त हुआ है जिसके साथ उन्होंने अपना एक सुविचारित आलेख 'परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं' भी प्रकाशनार्थ संलग्न किया है. यद्यपि मैं आलेख में उल्लिखित उनके अनेक दृष्टिकोणों से सहमत नहीं हूँ, तथापि उनका आलेख इतना विचारोत्तेजक है कि उस की अवहेलना नहीं की जा सकती. साथ ही उनके विचारों को बिना अपनी टिप्पणी के प्रकाशित करना भी मेरे लिए संभव नहीं है. आलेख में जो विचारबिन्दु उन्होंने प्रस्तुत किये हैं, उनका विरोध किया जाना भी उतना ही तर्क विसंगत है जितना कि उनकी अवहेलना करना. अतः, उन पर वृहत विचार विमर्श की आवश्यकता है. इसी आशय से में उनके आलेख को यहाँ दो भागों में बिन्दुवार प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनपर विचार विमर्श हेतु मेरी टिप्पणियां भी संलग्न हैं. 

प्रस्तुत है इस श्रंखला का भाग एक -  

परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं   

(१) परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएं बनाएं : -
हमें परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए. रावण ने अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए जीवन-पर्यंत पूजा-पाठ किया और अंत में विनाश को प्राप्त हुआ. राम ने परमात्मा की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीवन जिया और वे राजा राम से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम बन गए. हमारा मानना है कि समाज सेवा के प्रत्येक कार्य को भगवन का कार्य मानकर करना ही जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है. नौकरी या व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया जा सकता है. जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने अपने एक भाषण में बहुत ही प्रेरणादायी बात कही, "अगर किसी को सड़क साफ़ करने का काम दिया जाए तो सफाई ऐसी करनी चाहिए जैसे महान चित्रकार माइकल अन्जेलो पेंटिंग कर रहा हो, जैसे विश्वविख्यात संगीतकार बीथोविन संगीत रचना में जुटे हों या शेक्सपिअर कोई कविता लिख रहे हों". काम कोई हो उसे ईश्वर की भक्ति और समाज सेवा की भावना के साथ करने से खुशी मिलती है और विनम्रता हासिल होती है. इसलिए हमें अपने प्रत्येक कार्य को पूरे मनोयोग तथा उत्साह से करना चाहिए.  

मेरी टिप्पणी : 
परमात्मा एक कल्पना मात्र है, जिसका उद्द्येश्य भोली-भाली मानवता को उसके नाम पर आतंकित कर उसका शोषण और उसपर शासन करना है. मानवता का इतिहास यही सिद्ध करता है. रावण वंश एक दानव वंश था जिसके दस सदस्य भारत में आ  बसे थे और यहाँ नारियों का उत्पीडन कर रहे थे. उनके vanshaj ही उसे एक विद्वान् बता रहे हैं, जो एक भ्रान्ति है. राम वस्तुतः महान पुरुष थे जिन्होंने अपना जीवन लोक कल्याण को समर्पित किया हुआ था.  मानवता के शत्रुओं ने उनकी हत्या की थी.  श्री गाँधी के अन्य विचार सराहनीय एवं अनुकरणीय हैं.    

(२) हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं : -
अपने सकारात्मक विचारों तथा ऊर्जा को ईमानदारी से और बिना थके हुए समाज क़ी भलाई के कार्यों में लगाना चाहिए. इस  प्रयास से अपरिमित सफलता हमारे कदमों में होगी. पवित्र गीता की सीख है कि "हम अपने कार्यों के परिणाम का निर्णय करने वाले कौन हैं? यह तो भगवान् का कार्यक्षेत्र है. हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं. 

मेरी टिप्पणी : 
गीता निश्चित रूप से महान ज्ञान का स्रोत है. किन्तु isakee  भाषा वैदिक संस्कृत है जिसके बारे में किसी को भी पूर्ण ज्ञान नहीं है. इतना सुनिश्चित है कि वैदिक संस्कृत आधुनिक संस्कृत से sarvatha भिन्न भाषा है जिसके sabdaarth भी sarvathaa भिन्न हैं. श्री अरविन्द तथा मेरे शोधों के अनुसार इस भाषा के शब्दार्थ तत्कालीन विकसित भाषाओं लैटिन तथा ग्रीक शब्दार्थों से अनुप्रेरित हैं. अतः गीता का ज्ञान अभी अज्ञात है. 

हम ही कर्म करते हैं, और उसे लक्ष्य के अनुसार सफलता के लिए ही करते हैं, किन्तु परिणाम कर्म निष्पादन की श्रेष्ठता, सामाजिक एवं प्राकृतिक परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं. इसलिए ये पूरी तरह कर्ता के अधीन नहीं होते.  

(३) हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है : -
हमारा प्राव्हीन ज्ञान एक अनूठा संसाधन है, क्योंकि उसमें लगभग पांच हज़ार वर्षों की सभ्यता का भण्डार है. राष्ट्रीय कल्याण तथा विश्व के मानचित्र पर देश के लिए एक सही स्थान बनाने के लिए इस संपदा का लाभ उठाना जरूरी है. हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है. भारत की असली पहचान उसका आध्यात्मिक ज्ञान है. भारत को विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्वा के लिए आगे आना चाहिए. 

मेरी टिप्पणी : 
भारत में कोई संस्कृति न होकर केवल विकृतिया हैं, जिनको समाज कंटकों ने अपने निहित स्वार्थों के पोषण और निरीह जनमानस के शोषण  के लिए समाज में स्थापित किया है. जो कर्मशील सभ्यता यहाँ राम आदि ने विकसित की थी उसे लगभग १६०० वर्षों की गुलामी ने पूरी तरह नष्ट-भृष्ट कर दिया है. अब समाज में केवल बुद्धिहीनता व्याप्त है और धर्म इसका सतत पोषण करते रहे हैं. जो मानवता बिना किसी प्रतिरोध के १६०० वर्ष गुलाम रही हो, जिसपर चन्द चोर-लुटेरे शासन करने में सफल रहे हों, उसे अपनी संस्कृति, आचरण और सभ्यता पर पुनः विचार करना चाहिए और उसमें आमूल -चूल  परिवर्तन  करने चाहिए.

भारत की जनता लम्बी गुलामी के कारण अभी भी लोकतंत्र के योग्य नहीं है. इस कारण से स्वतन्त्रता के बाद भी यहाँ कुशल शासन व्यवस्था स्थापित न होकर केवल चोर-लुटेरों के शासन स्थापित होते रहे हैं. सामाजिक विसंगतियां, घोर भृष्टाचार, चारित्रिक पतन आदि विकृतियाँ जिस संविधान के अंतर्गत  विकसित हो रही हों, वह संविधान कचरे के ढेर में फैंक दिया जाना चाहिए. 

(४) ज्ञान हमको महान बनाता है : -
हमें किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए आदमी उत्साह और तथा विफलताओं का सामना करने और उनसे सीखने के साहस की आवश्यकता होती है. अध्ययन से स्रजनात्मकता आती है. स्रजनात्मकता  विचारों को आगे बढाती है. विचारों से ज्ञानवर्धन होता है और हमको महान बनाता है. 

मेरी टिप्पणी : 
श्री गाँधी के उपरोक्त विचार सराहनीय हैं, विशेष रूप से 'लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए ...' जो गीता के ज्ञान को खुली चुनौती देते हैं. 

(५) विश्व एकता की शिक्षा की इस युग में सर्वाधिक आवश्यकता है : -
विश्व किसी व्यक्ति, संगठन और दल कि तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है. पारिवारिक एकता विश्व एकता की आधारशिला है. इस युग में विश्व एकता की सर्वाधिक आवश्यकता है. विश्व की एक सशक्त न्यायपूर्ण व्यवस्था तभी बनेगी जब प्रत्येक महिला और पुरुष अपनी बेहतरीन योग्यताओं और क्षमताओं के साथ योगदान देगा.

मेरी टिप्पणी : 
मैं श्री जगदीश गाँधी के इस विचार से पूर्णतः सहमत हूँ. 

मैं, राम बंसल 
(६) भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा  : -
एक देश केवल कुछ लोगों के महान होने से महान नहीं बनता, बल्कि इसलिए महान बनता है कि उस देश में हर कोई महान होता है. हमारे देश के सौ करोड़ प्रज्वलित मस्तिष्कों की शक्ति, इस धरती के नीचे, धरती के ऊपर और धरती पर स्थित संसाधनों की शक्ति से अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा शक्तिशाली है. इसलिए भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा. 

मेरी टिप्पणी :
निश्चित रूप से मानव मस्तिष्क की शक्ति विश्व के अन्य सभी संसाधनों से अधिक शक्तिशाली होती है. किन्तु भारत की इस शक्ति का उपयोग केवल विदेशों में ही हो रही है जहां भारतीय सस्ते मजदूरों के रूप में प्रसिद्ध हैं क्योंकि वर्तमान भारतीय व्यवस्था में उनके लिए कोई स्थान नहीं है. इसलिए विश्व में भारत को कोई सम्मानित  स्थान प्राप्त नहीं है और नहीं हम सुधार के लिए कुछ कर रहे हैं. 

..... शेष भाग दो में. 


बुधवार, 4 अप्रैल 2012

स्वतन्त्रता सेनानी स्मृति योजना, खंदोई

९ अगस्त १९४२ को गांधीजी के आह्वान 'अंग्रेजो भारत छोडो' की चिंगारी गाँव खंदोई भी पहुँची. खंदोई के नौजवानों में भी अंग्रेज़ी सरकार की दमनकारी नीतियों के प्रति आक्रोश था. महात्मा गाँधी के आह्वान पर महाशय करन लाल जी के नेतृत्व में दर्ज़नों नौजवानों ने एकत्र होकर अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध संघर्ष की योजना बनायी. अंग्रेज़ी सरकार के सिंचाई कार्यालय (चरौरा कोठी) जिसमे अँगरेज़ अधिकारी किसानों के मुकदमे सुनते थे, खंदोई के नौजवानों ने इसी दफ्तर को नष्ट करने की योजना बनायी.



२१ अगस्त १९४२ की रात्री को खंदोई के लोगों जिनमें सर्वश्री राम चन्द्र सिंह, गिरवर प्रसाद शर्मा, नन्द राम गुप्ता, नेकलाल, आदि के साथ एक बच्चा खचेडू सिंह भी श्री करन लाल जी के नेतृत्व में जंगल (खेतों) के रास्ते होते हुए पडौस के गाँव भगवन्तपुर पहुंचे और वहां से मिट्टी के तेल का कनस्तर लेकर रात्री में ही चरौरा कोठी पहुँच गए. कुछ लोगों ने टेलीफोन के तार काट दिए तथा दफ्तर को चारों ओर से घेर कर उसमें आग लगा दी. थोड़ी ही देर में दफ्तर जल कर राख हो गया. आग लगाने की खबर भी पूरे क्षेत्र में आग की तरह फ़ैल गयी. आग लगाने वाले आज़ादी के दीवाने भूमिगत हो गए.


तत्कालीन कलेक्टर हार्डी इतने क्रोधित हुए कि खंदोई में भारी फ़ोर्स के साथ आ धमके तथा गाँव के लोगों पर अत्याचार शुरू कर दिए. कलेक्टर हार्डी ने पूरे गाँव को आग के हवाले करने तक का फरमान सुना दिया. लेकिन संघर्ष शील जनता के सामने उन्हें हाथ खींचना पडा. दर्जनों लोगों को जेल में डाल दिया गया. कलेक्टर हार्डी ने तत्कालीन जज श्री डी पद्मनाभन को श्री करन लाल को फांसी दिए जाने का आदेश दे दिया. इस पर जज महोदय श्री पद्मनाभन, जो क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखते थे, ने वकील के माध्यम से श्री करन लाल को सन्देश भिजवा दिया कि वे तब तक अदालत में हाजिर न हों जब तक कि हार्डी बुलंदशहर कि कलेक्टर रहे अन्यथा फांसी दिया जाना नहीं टाला जा सकेगा.


हार्डी के बुलंदशहर से तबादले के बाद श्री करन लाल जी अदालत में हाजिर हुए जिसपर उन्हें कारागार भेज दिया गया. कुल मिलकर उन्हें ३ वर्ष से अधिक की सजा मिली थी. गाँव के अन्य लोगों को भी सजाएं मिलीं.


देश के शहीदों, संघर्ष करने वालों तथा आजादी के दीवानों के जज्बात तथा देश के नौजवानों जैसे सरदार भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान आदि की कुर्बानी तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व से १५ अगस्त १९४७ को देश के लोगों आज़ादी की सांस ली. गाँव खंदोई के लोगों को भी आज़ादी के साथ बहुत राहत मिली. कुछ समय बाद आज्ज़दी के लिए संघर्ष करने वालों को 'स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी' का दर्ज़ा दिया गया एवं सरकार द्वारा उन्हें पेंशन भी दी गयी. खंदोई के २6 लोग भी इस सूची में स्थान पा सके. आज़ादी के संघर्ष में लगभग ४० लोगों ने हिस्सा लिया था, किन्तु  आज़ादी से पहले मृत्यु अथवा ३ माह से कम की सजा के कारण उन्हें उस सूची में स्थान नहीं मिल पाया.  

१९३६ में गठित किसानों का महत्वपूर्ण संगठन 'किसान सभा' आज़ादी के संघर्ष की कथा तिथियों के अनुसार कार्यक्रमों का आयोजन करता रहा है जिसमें देश को आर्थिक आजादी दिलाने का संकल्प भी लिया जाता है. क्षेत्रीय स्तर पर, खंदोई के लोगों द्वारा आजादी के लिए संघर्ष को याद करने के लिए २१ अगस्त (चरौरा कोठी काण्ड) को भी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें आज के नौजवानों को देश प्रेम के लिए प्रेरित करने, आज़ादी के महत्व को समझाने तथा अधूरी आजादी को पूरा करने का आह्वान किया जाता है. इन कार्यक्रमों में चरौरा कोठी काण्ड के सैनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है.

अब खंदोई के सभी स्वतन्त्रता सैनानियों का स्वर्गवास हो चुका है. उनके संघर्ष को जीवंत बनाए रखने के लिए, ग्रामवासियों ने पश्चिमी प्रवेश मार्ग पर एक भव्य 'स्वतन्त्रता सेनानी द्वार' के निर्माण का संकल्प लिया है. जिसके पास ही तालाब का सौन्दर्यकरण, वृहत वृक्षारोपण, तथा मनोरंजन पार्क का निर्माण भी किया जाएगा.  

गुरुवार, 24 मार्च 2011

आमरण भूख हड़ताल के तीन दिन पूरे, किन्तु प्रशासन असंवेदनशील

प्रेस विज्ञप्ति 

आमरण भूख हड़ताल के तीन दिन पूरे, किन्तु प्रशासन असंवेदनशील 

उत्तर प्रदेश के जनपद गाज़ियाबाद के ग्राम पलवाडा की निवासी हेमलता वहां के प्राथमिक विद्यालय में नियमानुसार नियुक्त शिक्षामित्र है किन्तु विगत तीन वर्षों से वह शिक्षा विभाग के अधिकारियों द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से वंचित कर दी गयी है जिसके विरोध में उसने सम्बंधित बेसिक शिक्षा अधिकारी और जिलाधिकारी को उसने पचासों बार लिखित और मौखिक निवेदन किये हैं, किन्तु झूंठे आश्वासनों के अतिरिक्त उसे कुछ प्राप्त नहीं हुआ. हेमलता भूमिहीन. ग्रामीण निर्धन प्रजापति परिवारों की पुत्री तथा वधु है इसलिए उसकी पीड़ा की ओर अधिकारियों द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया. 

अंततः वह अपने पति, माता, बहिन और सास के साथ २१ मार्च २०११ से जिलाधिकारी कार्यालय के समक्ष आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गयी. उसके साथ उसके दो पुत्र भी हैं जिनमें से छोटा उसके दूध पर निर्भर होने के कारण भूख से बिलख रहा है. भूख हड़ताल के दूसरे दिन उसकी माता की स्थिति गंभीर हो गयी और प्रशासन द्वारा उसे कोई चिकित्सा सेवा उपलब्ध नहीं कराई गयी. अतः अन्य समर्थकों के आग्रह पर उसे अपनी भूख हड़ताल समाप्त कर वापिस अपने गाँव पलवाडा जाना पड़ा. शेष चार की भूख हड़ताल आज तीसरे दिन भी जारी रही किन्तु अभी तक भी उन्हें कोई चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराई गयी है, जब की हेमलता की सास की दशा दिन प्रति दिन बिगड़ती जा रही है किन्तु वह अपनी हड़ताल पर अडिग है.


प्रशासन की ओर से इन्हें कारावास में डाले जाने की धमकियाँ दी गयी हैं किन्तु इनकी समस्या का कोई हल प्रदान नहीं किया जा रहा है. इनसे कहा जा रहा है इनका मामला १७ मार्च को शिक्षा विभाग के परियोजना निदेशक को भेज दिया गया है जहां से निर्देश आने पर अथवा किसी अन्य अधिकारी द्वारा जांच किये जाने पर  तदनुसार एक माह के अन्दर शिकायत का निपटान कर दिया जाएगा जो हडतालियों द्वारा विश्वास  योग्य नहीं माना जा रहा है जिसके कारण हड़ताल तीसरे दिन भी जारी रही और आगे भी चलती रहेगी. उक्त अविश्वास के लिए हडतालियों के पास पर्याप्त कारण हैं. 

हेमलता को उपस्थिति दर्ज न कराने के लिए उसे कोई लिखित कारण नहीं बताया गया. उसके स्थान पर एक अन्य महिला को शिक्षामित्र नियुक्त किया गया था, जिस नियुक्ति को बाद में अनियमित पाए जाने के कारण निरस्त कर दिया गया. इन निर्णयों में कभी भी परियोजना निदेशक को सम्मिलित नहीं किया जाकर सभी निर्णय बेसिक शिक्षा अधिकारी स्तर पर ही लिए गए थे. इससे सिद्ध होता है कि हेमलता को उपस्थिति दिए जाने के सम्बन्ध में परियोजना निदेशक को सम्मिलित करना एक बहाना मात्र है जो उसके उत्पीडन को जारी रखने के उद्येश्य से बनाया जा रहा है. 

इस प्रकरण के घटनाक्रम के बारे में हेमलता तथा शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मध्य कोई मतभेद नहीं है, इसलिए किसी जांच की कोई आवश्यकता ही नहीं है. उपलब्ध तथ्यों के आधार पर केवल निर्णय लिया जाना है जिसके लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी और जिलाधिकारी पूर्णतः सक्षम हैं. तथापि मामले को बेसिक शिक्षा अधिकारी, सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी की बदनीयती तथा जिलाधिकारी की लापरवाही के कारण अब भी उसी प्रकार से टलाया जा रहा है जिस प्रकार विगत तीन वर्षों से टलाया जाता रहा है. 

कल आमरण भूख हड़ताल के चौथे दिन हेमलता के न्याय हेतु संघर्ष के समर्थन में मैं रूडकी विश्व विद्यालय का इंजीनियरिंग स्नातक ६२ वर्षीय राम बंसल उसी स्थल पर अपनी आमरण भूख हड़ताल आरम्भ करूंगा ताकि मैं हेमलता परिवार के साथ आत्मोसर्ग करके विश्व को बता सकूं कि तथाकथित जनतांत्रिक भारत का प्रशासन जन-साधारण के न्याय-संगत अधिकारों के प्रति कितना असंवेदनशील है.  

रविवार, 6 मार्च 2011

भारत का नेतृत्व - बलिदान के स्थान पर शोषण

जनता द्वारा सम्मान पाते हुए नेतृत्व करने के लिए आत्म-बलिदान की आवश्यकता होती है, जैसा की गाँधी, सुभाष, आदि ने किया. इसके साथ ही इन आत्म-बलिदानियों के बलिदानों का लाभ उठाने के लिए नेहरु भी होते रहे हैं जो इन का और जनता का शोषण करते रहने की ताक में रहते हैं. परिणामस्वरूप गाँधी और सुभाष अपने जीवनों से हाथ धो बैठते हैं और नेहरु सत्ता सुख भोगते हैं. ऐसा हुआ है क्योंकि दीर्घावधि से दासता की जंजीरों में जकड़ी जनता इस सबके बारे में अनभिज्ञ और निष्क्रिय रही है. मामला यहीं समाप्त न होकर दूरगामी परिणामों वाला सिद्ध हुआ है. 

स्वतंत्र भारत के नेताओं ने उक्त उदाहरण से यह मान लिया कि जनता उसी प्रकार सुषुप्त और निष्क्रिय रहेगी और वे शोषण करते हुए अपना नेतृत्व बनाए रख सकते हैं. अतः स्वतंत्र भारत में उभरे अधिकाँश नेता केवल शोषण को ही अपने नेतृत्व का आधार बनाये हुए रहे हैं. इन नेताओं में राजनैतिक नेता तो सम्मिलित रहे ही हैं, वे भी इसी प्रकार के होते रहे हैं जो उक्त भृष्ट राजनेताओं का विरोध करते रहे हैं. इस प्रकार देश में नेतृत्व की परिभाषा के साथ शोषण अभिन्न रूप में जुड़ गया है. इसी का परिणाम है देश में चरम सीमा तक पहुंचा राजनैतिक भृष्टाचार, जिसका अनुमान देश में विभिन्न स्तरों के जनतांत्रिक चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा किये गए औसत व्यय से लगाया जा सकता है -

ग्राम प्रधान - ५ से १० लाख रुपये,
विकास खंड प्रमुख - २५ से ५० लाख रुपये,
जिला पंचायत अध्यक्ष - ५० लाख से १ करोड़ रुपये,
विधान सभा सदस्य - १ करोड़ से २ करोड़ रुपये,
संसद सदस्य - २ से ५ करोड़ रुपये, आदि, आदि...

यह धन जनता को निष्क्रिय बनाये रखने के लिए व्यय किया जाता है जिससे कि वह अपने शोषण के विरुद्ध अपना स्वर बुलंद न कर सके. और देश की जनता इतनी मूर्ख सिद्ध हो रही है कि वह शासन में अपने मत का महत्व अभी तक नहीं समझ पायी है. उक्त धन व्यय करने के बाद चुनाव में विजयी अथवा परास्त होने के बाद प्रत्याशियों को अपना धन वापिस पाने की इच्छा होना स्वाभाविक है, जिसके लिए वे अपना गठजोड़ बनाते हैं और अपने भृष्ट आचरणों द्वारा जनता का शोषण करने में जुट जाते हैं. जिसके परिणामस्वरूप एक ओर जनता की गरीबी बढ़ती है दूसरी ओर महंगाई. इस कुचक्र में फंसा जन-साधारण अपने जीवन को बनाये रखने की चिंताओं में इतना निमग्न हो जाता है कि उसे अपने शोषण को समझने और उसके विरुद्ध कुछ करने का होश ही नहीं रहता. 

नेतृत्व द्वारा अन्य लोगों का शोषण केवल आर्थिक ही नहीं होता, यह मनोवैज्ञानिक भी होता है. जनसाधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण में तथाकथित धर्मात्मा भी राजनेताओं के सहयोगी होते हैं जो सब मिलकर जनता को समस्याग्रस्त, दीन-हीन और निर्बल बनाये रखते हैं. इससे जनता देश के पूरे घटनाक्रम की मात्र दर्शक बन कर रह जाती है, और विभिन्न स्टारों पर शोषण गहन होता जाता है.

मनोवैज्ञानिक शोषण दो उदाहरण मुझे ध्यान आते हैं - राजीव गाँधी को देश का प्रधान मंत्री पद इस लिए दे दिया गया क्योंकि उसकी माँ की हत्या कर दी गयी थी. जबकि नित्यप्रति अनेक माँ अपनी जान खोती रहती हैं और उनके पुत्रों को न्याय तक नहीं मिलता. राजीव को प्रधान मंत्री चुनते समय कभी किसी ने यह विचार नहीं किया की वह इस पद के योग्य भी था या नहीं.

दूसरा उदाहरण मेरे क्षेत्र में अभी हाल में हुए जिला पंचायत सदस्यटा का चुनाव का है जिसमें एक जाने-माने अपराधी को जनता द्वारा इसलिए चुन दिया गया क्योंकि वह अपने अपराधों के कारण पुलिस से भयभीत था और मतदाताओं से दया की भीख मांगता था. इसके लिए वह प्रत्येक मतदाता के चरण उस समय तक पकडे रहता था जब तक की उसे मत देने का वचन न दिया जाता. इस चुनाव में भी प्रत्याशी की सुयोग्यता पर कभी कोई विचार नहीं किया गया. ये दोनों उदाहरण जन-साधारण के मनोवैज्ञानिक शोषण को दर्शाते हैं.

गाँधी के आत्म-बलिदान और नेहरु के शोषण के समतुल्य ही एक वर्तमान उदाहरण हमारे समक्ष है. देश में भृष्टाचार के विरुद्ध प्रभावी विधान की मांग करने के लिए एक प्रमुख गांधीवादी श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल से देल्ली के जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल करने की घोषणा की है जिसका भृष्टाचार विरोधी नेताओं ने पुरजोर स्वागत किया है. इस विषयक प्रथम बैठक में मैं इन नेताओं से आग्रह किया था कि अन्ना जी हम सबके लिए पितातुल्य हैं और वे अपने जीवन का बलिदान करें और हम सब तमाशा देखते रहें यह हम सबके लिए लज्जाजनक है. इसलिए हम सब बड़ी संख्या में आमरण भूख हड़ताल करें और अन्ना जी को ऐसा न करने के लिए राजी कर लें. किन्तु यह नेहरु प्रकार के नेताओं को पसंद नहीं आया और उन्होंने मेरे सुझाव की अवहेलना कर दी. इस मैंने स्वयं ५ अप्रैल से जंतर मंतर पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा कर दी और अन्ना जी से आग्रह किया है की भूख हड़ताल न करें और मेरे पास मेरे मार्गदर्शक की रूप में उपस्थित रहें.
The Effective Public Manager

अब आन्दोलन के उक्त नेता खूब जोर-शोर से अन्ना जी की आमरण भूख हड़ताल का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं ताकि वे इससे पीछे न हट पायें.           

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

भृष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष

भारतीयों के नाम एक पत्र -

मित्रो, 

आज देश का समस्त जन-गन-मन राजनेताओं और प्रशासकों के भृष्टाचार से तृस्त है. इसके विरुद्ध, अनेक व्यक्ति और संगठन अपने-अपने तरीकों से संघर्ष कर रहे हैं. इसी प्रकार की एक पहल के रूप में,  ८७ वर्षीय और हम सबके पितातुल्य श्री अन्ना हजारे ने ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर नयी दिल्ली पर आमरण भूख हड़ताल की घोषणा की है. उनकी मांग है की देश में तुरंत ऐसा क़ानून बनाया जाए कि भृष्टाचार का मामला प्रकाश में आने के तीन माह के अन्दर दोषियों को दण्डित किया जाये और उनकी अवैध संपत्ति जब्त कर ली जाए. यह हम सबके लिए लज्जा का विषय है कि हमारे वयोवृद्ध अपने जीवन का बलिदान करें और हम इसका तमाशा देखते रहें. 

कुछ संगठन और आधुनिक नेता इस वयोवृद्ध के जीवन को दांव पर लगाकर अपनी-अपनी नेतागिरी चमकाने में लगे हैं. मैंने उनसे आग्रह किया है कि उनके जीवन को दांव पर लगाने के स्थान पर हम सब बड़ी संख्या में आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हों, जिस पर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया. अतः मैंने उक्त मांग के साथ स्वयं ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर नयी दिल्ली पर आमरण भूख हड़ताल का निश्चय किया है जिसकी सूचना राष्ट्रपति महोदय और प्रधान मंत्री महोदय को दे दी है. साथ ही श्री अन्ना हजारे से निवेदन किया है कि वे भूख हड़ताल न करें और स्थल पर आत्म बलिदानियों की प्रेरणा हेतु उपस्थित रहें. 

आप सभी से मेरे निवेदन हैं कि -
  1. स्वयं ५ अप्रैल २०११ से जंतर मंतर, नयी दिल्ली पर मेरे साथ आमरण भूख हड़ताल के लिए प्रस्तुत हों और इसकी अग्रिम सूचना राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री महोदयों को दें. 
  2. जो व्यक्तिगत कारणों से ऐसा नहीं कर सकते, वे उक्त सत्याग्रह के समर्थन में जंतर मंतर पहुंचें और यथाशक्ति भूख हड़ताल करें और इस जन आन्दोलन के सहयोगी बनें. 
  3. दूर दराज़ के स्त्री-पुरुष जो नयी दिल्ली न पहुँच सकें, अपने-अपने गाँव, कसबे अथवा शहरों में ५ अप्रैल २०११ से यथाशक्ति भूख हड़ताल करें और इसकी अग्रिम सूचना सम्बंधित जिलाधिकारी को दें. 
  4. उपरोक्त जन आन्दोलन के लिए अपने परिवार जनों, मित्रों और परिचितों को प्रेरित करें जो ५ अप्रैल के बाद अपने-अपने घरों पर रहकर ही यथाशक्ति भूख हड़ताल करें.