सोमवार, 26 जुलाई 2010

जंगली व्यवहार, दंड व्यवस्था और वास्तविक दोषी

गाँव के एक युवा ने मेरे साथ जो अशोभनीय व्यवहार किया था, उसका उसे कड़ा दंड मिला था - पुलिस द्वारा और प्रकृति द्वारा भी. उसे न्यायालय से जमानत करानी पडी और अब कुछ समय तक बार-बार न्यायालय में उपस्थित होना होगा. इसके अतिरिक्त प्रकृति ने उसे और भी अधिक कड़ा दंड दिया - उसे बंदी बनाये जाने के दो दिन बाद उसके पिताजी की ह्रदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गयी जो एक सज्जन एवं सहृदय व्यक्ति थे. गाँव के लोगों का मानना है कि उनके पुत्र द्वारा किये गए दुर्व्यवहार और बंदी बनाये जाने पर परिवार का अपमान उन्हें सहन नहीं हुआ. यद्यपि उन्हें ह्रदय की समस्या पहले से थी.

उक्त दोनों डंडों के कारण युवा को परिवार में बहुत विरोध झेलना पडा और उस पर उसके भाइयों द्वारा दवाब दिया गया कि वह शराब पीनी छोड़ दे अन्यथा वे उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेंगे. इसी शराब के कारण वह उद्दंडता करता था, लोगों को अपमानित करता था और इसी के कारण उसे उपरोक्त दोहरे दंड मिले. परिणाम बहुत आशाजनक हुए हैं - लगभग एक माह से अधिक समय से उसने शराब नहीं पी है और अब वह गाँव में निरंकुश नहीं घूमता है, तथा अपने परिवार के कृषि व्यवसाय पर पूरा ध्यान देता है. इस सब से गाँव के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

उपरोक्त विवरण देने का मेरा तात्पर्य यह है कि निरंकुश प्रकृति को अनुशासित करने के लिए दंड दिया जाना एक प्रभावी उपाय है. यद्यपि क्षमा भी सीमित प्रभाव रखती है किन्तु दंड की तुलना में यह प्रभाव तुच्छ होता है.

प्रत्येक व्यक्ति की मूल प्रकृति उद्दंडता है, किन्तु सामाजिकता, और दंड के भय से मनुष्य अनुशासित रहता है. अधिकाँश मनुष्य सामाजिकता के कारण स्वतः ही अनुशासित रहते हैं किन्तु शराब आदि के नशे में अथवा किसी लोभ वश, अथवा किसी विवशता में लोग उद्दंड व्यवहार करते हैं. इन तीन कारणों में से दो - नशा तथा विवशता, समाज की ही देनें हैं. शराब आदि नशीले द्रव्य सरकार द्वारा राजस्व लाभ के लिए प्रचारित, प्रसारित किये जा रहे हैं.जबकि इनका प्रभाव राष्ट्र को आर्थिक तथा सामाजिक क्षति पहुंचा रहा है. किन्तु देश के शासक-प्रशासक इस यथार्थ से अनभिज्ञ बने बैठे हैं.

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के मुख्य मंत्री श्री बंसीलाल ने एक सराहनीय कदम उठाते हुए अपने राज्य में शराब पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसके परिणामस्वरूप अगले चुनाव में लोगों ने उन्हें सताच्युत कर दिया था. इस से सिद्ध होता है कि हमारा समाज एक गलत दिशा में इतना आगे बढ़ गया है कि अब उसकी समझ में गलत और सही का अंतराल मिट गया है. समाज का यही पतन कुछ लोगों को शराब आदि को इतना अधिक अभ्यस्त बना देता है कि वे मानवीय सभ्यता को त्याग जंगली व्यवहार करने लगते हैं. फिर यही विकृत समाज व्यवस्था उन्हें दंड देती है.
The Business of Spirits: How Savvy Marketers, Innovative Distillers, and Entrepreneurs Changed How We Drink 
अतः आवश्यकता इस की है कि हम समाज की दिशा बदलें और एक सशक्त जन मत का विकास कर सरकारों को विवश करें कि वे नशीले द्रव्यों के दुश्चक्र से समाज को बचाने के ओर साहसिक कदम उठायें. बिना जन मत के सरकार इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएंगी.   

शनिवार, 24 जुलाई 2010

उपनिवेशीकरण - विदेशी और देशी

एक देश से किसी अन्य देश पर शासन करना उपनिवेशीकरण कहलाता है. भारत लम्बे समय तक परतंत्र रहा है किन्तु भारत  मुग़ल शासन का उपनिवेश नहीं था क्योंकि मुग़ल इसी भूमि पर रहकर लोगों पर शासन करते थे. ब्रिटिश शासन में लन्दन स्थित राज सिंहासन से भारत पर शासन किया जाता था. ब्रिटिश शासन के जो प्रतिनिधि भारत में शासन व्यवस्था का संचालन करते थे वे भी स्थानीय शासक ही थे यद्यपि उन्हें प्रशासक कहा जाता था. उनकी दृष्टि में भारतीय मनुष्य न होकर केवल उनके गुलाम थे. इसलिए भारत में रह रहे ब्रिटिश नागरिक भारतीय नागरिकों से स्पष्ट दूरी बनाए रखते थे. उनके मत में ऐसा करके वे जनता पर अच्छा प्रशासन कर सकते थे.

इस दूरी को बनाये रखने के लिए ब्रिटिश लोगों के निवास भारतीयों के निवासों से प्रथक बनाए जाते थे. इसका एक कारण भारतीय  और ब्रिटिश नागरिकों के रहन-सहन और संस्कृति का विशाल अंतराल भी था. प्रशासक होने के कारण, ब्रिटिश लोग अपने निवासों में तत्कालीन सभी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करते थे जो भारतीयों के निवासों में उपलब्ध नहीं होती थीं. इस अंतराल का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी होता था जिसके कारण ब्रिटिश नागरिक भारतीयों की दृष्टि में भी श्रेष्ठ माने जाते थे. इस मान्यता के कारण भारतीयों द्वारा ब्रिटिश नागरिकों के आदेशों की अवहेलना करना असंभव सा था चाहे वे आदेश कितने भी अवैधानिक हों. इन्हीं के कारण ब्रिटिश भारतीयों के विविध प्रकार के शोषण करते थे.

ब्रिटिश भारत से चले गए किन्तु प्रशासन के अपने पदचिन्ह यहाँ छोड़ गए. आज भारत स्वतंत्र कहा जाता है किन्तु यहाँ का शासन-प्रशासन ब्रिटिश पद-चिन्हों का ही अनुगमन कर रहा है - विशेषकर कुशल दमनकारी प्रशासन के लिए प्रशासकों और जन साधारण में दूरी बनाए रखकर. इस की व्यवस्था के लिए भारत की केंद्र और राज्य सरकारों के प्रत्येक विभाग के अधिकारियों तथा कर्मियों के लिए अत्याधुनिक बस्तियां बसाई गयी हैं. इन बस्तियों में विद्युत्, जल, संचार आदि की ऐसी विशेष व्यवस्थाएं हैं जो अन्य जन-साधारण की बस्तियों में नहीं हैं और न ही इनके होने की कल्पना की जा सकती है. यथा, भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में जन साधारण के लिए ४-५ घंटे प्रतिदिन से अधिक विद्युत् उपलब्ध नहीं है जब कि प्रशासक बस्तियों में इसकी २४ घंटे उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है.

प्रशासकों के जन साधारण से प्रथक व्यवस्थाओं में रहने से प्रशासकों को सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि वे जन-साधारण की समस्याओं से पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों का पालन बिना किसी तनाव के करते हैं. इस प्रथक व्यवस्था का दूसरा लाभ मनोवैज्ञानिक है - प्रशासक स्वयं को जन-साधारण से श्रेष्ठ समझते हैं और चाहते हैं कि जनता भी ऐसा ही समझे जिसकी वे ब्रिटिश प्रशासकों को समझते थे.
Civilization 4: Colonization

भारत में ब्रिटिश प्रशासकों की संख्या जन-साधारण की तुलना में नगण्य होती थी जिससे उनके लिए प्रथक आवास व्यवस्था की लागत बहुत अल्प होती थी. किन्तु स्वतंत्र भारत में सभी राज्यकर्मी प्रशासकों की भूमिकाओं में हैं जिनकी संख्या कुल जनसँख्या का लगभग १० प्रतिशत है. इन सबके लिए प्रथक आवासीय व्यवस्था पर बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन व्यय किया जा रहा है.

भारत सधार हेतु संगठनात्मक रूपरेखा

भारत की स्थिति वास्तव में उग्र रूप से रुग्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बहुत सारे बुद्धिजीवी स्थिति में सुधार हेतु संगठन खड़े कर रहे हैं, जिनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रहे हैं किन्तु अधिकाँश स्थानीय समस्याओं के समाधानों के प्रयासों में लगे हैं. यह सब अच्छा ही हो रहा है क्योंकि यही देश के बारे में लोगों की चिंता और चिंतन दर्शाता है.

स्थानीय संगठन
आज भारत में भ्रीष्टाचार और कुव्यवस्था शीर्षस्थ स्तर से लेकर ग्राम स्तर तक पहुच गए हैं और ये लोगों को स्थानीय स्तर पर ही इतना पीड़ित कर रहे हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर का चिंतन नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए लोगों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए उन्हें स्थानीय समस्याओं से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है. राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे प्रत्येक स्थानीय समस्या को समझ नहीं सकते और न ही अपना सार्थक योगदान प्रदान कर पाते हैं. इसके लिए स्थानीय संगठन ही उपयोगी हो सकते हैं.

भारत विविध भाषाओँ, संस्कृतियों और जातियों का देश है, इसलिए लोगों की अपेक्षाएं भी विविध हैं. इनकी संतुष्टि के लिए स्थानीय संगठनों की आवश्यकता है जो लोगों को उनकी भाषा में उनके साथ सौहार्द स्थापित कर सकें. इनके माध्यम से यह आवश्यक नहीं कि लोगों की सभी समस्याएँ सुलझ जाएँ किन्तु इनके माध्यम से लोग आश्वस्त अवश्य किये जा सकते हैं. यह आश्वस्ति ही लोगों को राष्ट्रीय हित चिंतन का अवसर प्रदान कर सकती है.

राष्ट्रीय संगठन
अधिकाँश जन समस्याएँ स्थानीय होती हैं तथापि कुछ समस्याएँ ऐसी भी होती हैं जिनके मूल और समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही संभव होते हैं. इस प्रकार की समस्याओं के लिए राष्ट्र स्तर के संगठन की आवश्यकता है और इसे केवल उच्च स्तर की समस्याओं के समाधानों पर ही चिंतन एवं प्रयास करने चाहिए. यही संगठन स्थानीय संगठनों के महासंघ के रूप में भी कार्य करेगा, उन्हें मार्गदर्शन देगा तथा उनसे प्राप्त उच्च स्तरीय समस्याओं के समाधानों के प्रयास करेगा.

इस प्रकार के महासंघीय ढांचे में यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रीय और स्थानीय संगठनों के नामों में कोई पूर्व निर्धारित समानता हों. साथ ही यह भी आवश्यक नहीं है कि स्थानीय संगठनों के स्थापन के समय ही राष्ट्रीय संगठन की भी स्थापना हो. पूरे देश में जनपद स्तर के स्थानीय संगठनों की तुरंत आवश्यकता है और उन्हें अपने कार्य यथाशीघ्र आरम्भ कर देने चाहिए.

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सुख और खुशी का अंतर

बहुधा सुख और खुशी शब्दों को एक दूसरे के पर्याय के रूप में जाना जाता है, जब कि वास्तव में सुख धरातलीय स्थायी अनुभूति है और खुशी क्षणिक हवा के झोंके की तरह तिरोहितेय. सुख जीवन के यथार्थ से सम्बन्ध रखता है, और कोई खुशी काल्पनिक उडान हो सकती है. प्रथम एक अनुभव होता है किन्तु द्वितीय एक अनुभूति. सुख निर्मल जल की झील है तो खुशी एक मृग मरीचिका सिद्ध हो सकती है.

अधिकाँश मनुष्य खुशियों की खोज में और उन्हें पाने में अपना जीवन लगा देते हैं अतः क्षण-प्रतिक्षण खुशियाँ खोजते अथवा पाते हुए एक अनंत यात्रा पर चलते रहते हैं, विराम अथवा विश्राम उन्हें प्राप्त नहीं होता. जो सुख पा लेता है, उसे विश्राम भी स्वतः प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसे आगे कुछ खोजने की लालसा अथवा पाने की इच्छा नहीं रहती. इससे उसे स्थायी खुशी प्राप्त होती है. इस प्रकार, सुख से खुशियाँ निश्चित रूप से प्राप्त होती हैं, किन्तु खुशियों से सुख प्राप्ति सुनिश्चित नहीं होती.

खुशी का सुख से भिन्न होने का अर्थ यह नहीं है जीवन में खुशी का कोई महत्व नहीं है. प्रत्येक खुशी मनुष्य के मानसिक तथा शारीरिक तनाव को दूर करती है जिस से उसे स्वास्थ लाभ होता है. यदि कोई मनुष्य क्षण प्रति क्षण खुशी पाता रहे तो उसे अन्य किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं रहती. सतत खुशियों का संचयन भी सुख ही होता है. अच्छा स्वास्थ एक सुख अवश्य है, किन्तु सुख स्वास्थ सुनिश्चित नहीं करता, जब कि प्रत्येक खुशी स्वास्थप्रद होती है.

मनुष्य को खुशी अनेक प्रकार से प्राप्त होती हैं - यथा विचित्र वस्तु देखकर, किसी का असामान्य व्यवहार देखकर, कल्पना करके अथवा काल्पनिक कथा जान कर, मनोरंजक चुटकला आदि सुनकर, आदि. किन्तु इन सबसे सुख प्राप्त नहीं होता. वस्तुतः खुशी अपने स्रोत में उपस्थित नहीं होती, इसे मनुष्य का मस्तिष्क स्रोत के किसी अवयव में खोज लेता है. इस खोज का स्रोत की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता. उदाहरण के लिए मैथुन क्रिया खुशी के सर्वोच्च साधन मानी जाती है, किन्तु इसका यथार्थ स्त्री का गर्भ गृहण कराना भी होता है जो अनेक परिस्थितियों में अवांछित तथा दुखमय हो सकता है.

Pleasureनित्य प्रति देखी जाने वाली एवं उपयोगी वस्तुएं हमें उतनी खुशी प्रदान नहीं कर पाती जितनी कि कोई नवीन वस्तु प्रदान करती है, चाहे उसका हमारे जीवन में कोई उपयोग न हो. इसका अर्थ यह भी है कि हम खुशियों के लिए अपने जीवन के यथार्थों से दूर भागते हैं. स्त्री के मुख मंडल पर काला तिल, यद्यपि एक त्वचा विकार होता है, किन्तु मनुष्य जाति इसे सौन्दय संवर्धक मानता है और इसे देख कर खुश होती है. इस प्रकार हमारी अनेक खुशियाँ हमारे अतार्किक होने के कारण प्राप्त होती हैं.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

जातीय विष का प्रत्युत्तर

निर्धन लोगों को शुद्ध पेय जल उपलब्ध करने के लिए राज्य की ओर से उनकी बस्तियों में हैण्ड-पम्प लगाये जाते हैं. यह एक सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य है जिसकी सराहना की जानी चाहिए. मेरे गाँव में भी अनेक हैण्ड-पम्प लगाये गए हैं, जिनमें से अनेक पम्पों का सामान चोरी कर लिया गया है. यह कार्य किसी आर्थिक लाभ के लिए न किया जाकर शराबियों द्वारा शराब पीने के लिए किया जाता है.

जिस समय ग्रीष्म ऋतू अपने भीषणतम रूप में थी एक निर्धन बस्ती का हैण्ड-पम्प ख़राब हो गया जिस पर लगभग ३० परिवारों का जीवन निर्भर है. जब मैं इसे ठीक करने के लिए जल निगम के कार्यालय को जा रहा था तो मुझे ज्ञात हुआ कि गाँव के तीन अन्य हैण्ड-पम्प भी वर्षों से ख़राब पड़े हैं जिनपर निर्धन लोग निर्भर करते हैं जो उन्हें ठीक करने में असमर्थ रहते हैं. अतः मैंने चारों पम्पों को ठीक करने का प्रयास किया. राज्य कार्यालय ने मुझे सूचित किया कि उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए सरकार के पास धन उपलब्ध नहीं है.

लगभग ६ माह बाद उक्त पम्पों को ठीक करने के लिए धन उपलब्ध हुआ और तीन हैण्ड-पम्प ठीक स्थिति में वांछित स्थलों पर लगा दिए गए. चौथा हैण्ड-पम्प गाँव के एक मुख्य मार्ग पर था जिसका उपयोग उस मार्ग के यात्रियों द्वारा किया जाता था. पम्प ठीक करने वाला दल ने जब इस पर कार्य आरम्भ किया तो कुछ धनाढ्य लोगों ने इस पम्प को इसके मूल स्थल से दूर एक व्यक्ति के व्यक्तिगत स्थान पर लगाने के लिए दल को बहला फुसला कर राजी कर लिया जो अवैध था.

नवीन स्थल पर कार्य चल ही रहा था कि मुझे इसका ज्ञान हो गया और मैंने इसकी अवैधता पर बल देते हुए कार्य को रुकवा दिया. इस पर मुझे ज्ञात हुआ कि इस पम्प के विस्थापन में एक विशेष जाति के लोग रूचि ले रहे थे, जिनमें मेरे अनेक सहयोगी भी सम्मिलित थे. मेरे विरोध करने पर मुझ पर एक जाति विशेष का विरोध करने का आरोप लगाया गया और लोगों को जातीय आधार पर एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया गया.

इसी जाति के मेरे सहयोगी मुझे गाँव के प्रधान पद पर देखना चाहते हैं किन्तु इस घटना से सिद्ध हुआ कि ये लोग मेरा अनुचित लाभ उठाते हुए अपनी जाति के हितों का अनुचित पोषण करना चाहते हैं जिससे अन्य जातियों के हितों का हनन होना स्वाभाविक है. उक्त पम्प के विस्थापन को मेरे विरुद्ध जातीय विष फ़ैलाने का साधन बनाया गया ताकि मेरे सहयोगी ही मेरे विरुद्ध होकर शत्रु पक्ष में सम्मिलित हो जाएँ.

गाँव में जातीय विष फ़ैलाने के प्रयास सदैव किये जाते रहे हैं, जिसमें गाँव में मेरी जाति का केवल एक परिवार होने के कारण मेरे परिवार की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. किन्तु मेरे पिताजी ने सदैव इस विष का डट कर सामना किया था जिसके कारण वे तीन पंचवर्षीय सत्रों में गाँव के प्रधान रहे, और एक सत्र में मेरे ताऊजी प्रधान रहे. अब मेरे इस क्षेत्र में आने पर मेरे विरुद्ध भी जातीय विष को उभारा गया.
Caste, Society and Politics in India from the Eighteenth Century to the Modern Age (The New Cambridge History of India)

मैंने पूरी दृढ़ता से पम्प के अवैध विस्थापन का ही विरोध नहीं किया, जातीय आधार पर संगठित होने वाले अपने सहयोगियों का भी मुकाबला किया जिसके लिए मैंने प्रधान पद के लिए अपनी दावेदारी भी ठुकरा दी. अंततः जातीय एकता विखंडित हुई और मेरे सहयोगी अपनी भूल स्वीकारते हुए पुनः मेरे पक्ष में आ गए. यदि मैं दृढ़ता न दर्शाता तो यह निश्चित था कि पूरा गान जातीय आधार पर विघटित हो जाता जिसमें मेरे लिए कोई स्थान नहीं होता. मेरी दृढ़ता से मेरी शक्ति सम्वधित हुई है.

जीवन में खेलों की भूमिका

खेल आधुनिक जीवन के सुसंगठित व्यावसायिक अंग बन गए हैं जबकि इनका व्यवसायीकरण स्वयं इनके और खिलाड़ियों के अस्तित्व के लिए घातक बनता जा रहा है. तथापि कुछ चतुर व्यक्तियों को खेलों की चिंता के सापेक्ष अपने व्यावसायिक लाभों की अधिक चिंता रहती है और वे इस बारे में लोगों को भ्रमित कर उन्हें खेल देखने के लिए आकर्षित करते रहे है. इससे खेल अपने वास्तविक एवं प्राकृत उपयोग से दूर होते जा रहे हैं. वस्तुतः खेलों के दो प्राकृत उपयोग हैं - कौशल विकास और स्वास्थ लाभ.

कौशल विकास 
प्रत्येक जीव में एक अंतर्चेतना खेल-खेल में शिक्षा-दीक्षा गृहण करना है जिसके कारण प्रत्येक जीव जन्म से ही खेलों में रमने लगता है और उन्हीं के माध्यम से अपनी जीवनोपयोगी विद्याएँ गृहण करता है और उनका अभ्यास करता रहता है. अतः खेल जीवनोपयोगी विद्याएँ सीखने के प्राकृत माध्यम होते हैं. इसी कारण प्रत्येक खेल खिलाड़ी में किसी कौशल का विकास करता है, जो केवल खेल में ही उपयोगी न होकर जीवन में उपयोगी होता है. इसके विपरीत, प्रत्येक कौशल के विकास हेतु किसी खेल की आवश्यकता होती है. खेल जीवन में वैज्ञानिकों के प्रयोगों की तरह होते हैं जो वस्तुस्थिति से हटकर प्रयोगशालाओं में परीक्षित किये जाते हैं और सफल सिद्ध होने पर उनके सार्थक उपयोग किये जाते हैं.

खेलों द्वारा विकसित कौशल को केवल खेल के लिए उपयोग करना खेलों के प्राकृत उपयोगों के विरुद्ध है, जिसके कारण पेशेवर खिलाड़ी समाज के ऊपर निरर्थक भार होते हैं, जैसे कोई वैज्ञानिक जीवन भर प्रयोगशाला में निरर्थक प्रयोग करता रहे. खेल प्रत्येक जीव के लिए सार्थक कौशल विकसित करने के माध्यम होते हैं और इनका उपयोग इसी उद्येश्य से किया जाना चाहिए.

स्वास्थ लाभ
खेलों का दूसरा लाभ खिलाड़ियों को व्यायाम द्वारा स्वास्थ लाभ प्रदान करना है. चूंकि स्वास्थ सभी के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है, इसलिए प्रत्येक जीव को खिलाड़ी होना चाहिए. वस्तुतः ऐसा होता भी है, अधिकाँश जीव स्वास्थ लाभ के लिए अपनी इच्छानुसार खेल खेलते है भले ही वे औपचारिक खेल न माने जाते हों.

इन प्राकृत उपयोगों के लिए खेल जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं. किन्तु खेल केवल औपचारिक नियमन और नामकरण वाले ही नहीं होते. बच्चे की किलकारी भी उसके लिए एक खेल होता है जो वह अपना हर्ष प्रकट करने के लिए उपयोग में लाता है. इससे उसके स्वर तंत्र का अभ्यास होता है और वह सीखता है कि किलकारी सभी के लिए आनंददायक होती है. इसी से वह अपनी किलकारियों में विविधता लाकर उनके विविध उपयोगों की खोज भी करता है.
Poleish Sports Standard Game Set with Soft Surface Spike

आधुनिक खेल व्यवसाय मनुष्य जाति को खेल खेलते रहने से दूर ले जाते हुए दूसरों को खेलते हुए देखने के लिए उकसाते रहते हैं जिससे लोग स्वयं खेल खेलने से दूर होते जा रहे हैं और स्वयं कौशल विकास से वंचित रहने के कारण जीवन में असफल होते हैं.