मंगलवार, 18 मई 2010

दीक्षित

Dexter: Season Fourशास्त्रों में 'दीक्षित' शब्द लैटिन भाषा के  dexter  से बनाया गया है जिसका अर्थ 'दायें हाथ की ओर' है. आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'गुरु से शिक्षा प्राप्त' है जिसका शास्त्रीय मंतव्य से कोई सम्बन्ध नहीं है.

आदित्य

LDS Standard Works - Mormon Scripturesशास्त्रीय शब्द 'आदित्य' लैटिन भाषा के शब्द  additamentum   से बनाया गया है जिसका अर्थ 'जोड़ी गयी वस्तु' है, जबकि आधुनिक संस्कृत में इसका अर्थ 'आरंभकर्ता' माना गया है. 

सोमवार, 17 मई 2010

जनसामान्य की मानसिकता

अभी विगत कुछ दिनों में मुझे अपने गाँव के जनसामान्य की मानसिकता का प्रत्यक्ष बोध हुआ जिसे में लघु स्तर पर पूरे भारत के जनसामान्य की मानसिकता का प्रतिबिम्ब मानता हूँ. जैसा कि मैं इसी संलेख पर पहले घोषित कर चुका हूँ कि मैंने अनेक लोगों के बार-बार आग्रह पर गाँव के प्रधान पद हेतु चुनाव लड़ने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी थी, जो मेरी इच्छा के विरुद्ध है तथापि गाँव के हित में मैंने इसे स्वीकार कर लिया था -
"मैं बसाना चाहता हूँ स्वर्ग धरती पर, आदमी जिसमें रहे बस आदमी बनकर."

१९९५ में ५ वर्ष के लिए जो व्यक्ति गाँव प्रधान चुना गया था उसे भृष्ट आचरण के कारण तीसरे वर्ष में ही प्रशासन ने प्रधान पद से मुक्त कर दिया था. २००० में जो व्यक्ति प्रधान बना वह बेहद शराबी है और भृष्ट आचरण में लिप्त रहा था, उसे भी मध्यावधि में कुछ समय के लिए पदमुक्त किया गया था. सन २००५ में जो व्यक्ति प्रधान बना वह शराबी होने के साथ-साथ निरक्षर भी है. उसने लोगों की चापलूसी करते हुए ही बिना कोई विशेष विकास कार्य किये अपना कार्यकाल लगभग पूरा कर लिया है. इन सभी ने क्रमशः अधिकाधिक दान व्यय करके प्रधान पद पाया था. इस १५ वर्ष की अवधि में गाँव में हत्याएं, लूट-पाट, चोरी आदि की घटनाएं होती रहीं हें जिनके कारण स्थानीय पुलिस द्वारा अनेक निर्दोष लोगो को अनावश्यक  रूप से सताया गया है. गाँव की कोई भी समस्या बिना दलाली और रिश्वतखोरी के बिना सुलझ नहीं पाई है. इन सब कारणों से ही गाँव के कुछ लोगों ने मुझसे प्रधान बनकर गाँव का विकास करने और गाँव की स्थिति में सुधार करने का आग्रह किया जिसे मैंने अंतरिम रूप में स्वीकार कर लिया था किन्तु यह स्पष्ट कर दिया था कि मैं इस पद को पाने के लिए कोई धन व्यय नहीं करूंगा. इसके विपरीत मेरे तीन प्रमुख प्रतिद्वंदी इस पद के लिए २ से ४ लाख रुपये व्यय करने की घोषणाएँ कर चुके हैं.

चुनाव होने में अभी चार माह का समय लगेगा जिसके लिए मैंने अपनी मानसिक तैयारी के अतिरिक्त गाँव के लोगों की मानसिकता का आकलन किया. स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की मानसिकता का भी अध्ययन किया क्योंकि मेरे लिए यह जानना आवश्यक है कि वे बिना किसी भृष्ट आचरण के मुझे अपना कार्य करने देंगे अथवा नहीं. मैंने पाया कि अधिकारी वर्ग अपनी आजीविका के बारे में चिंतित रहता है इसलिए उसे पूरी ईमानदारी और कठोरता दर्शाने पर उसके आचरण में सुधार किया जा सकता है. किन्तु गाँव के लोगों के, जिन्हें गरीब और निस्सहाय समझा जाता है, भृष्ट आचरण में सुधार करना मेरे लिए दुष्कर है.

लगभग ५ वर्षों से मैं गाँव में विद्युत् उपकरणों की देखरेख और विद्युत् उपलब्धि के बारे में संघर्ष करता रहा हूँ, जिसके परिनान्स्वरूप पर्याप्त सुधार हुए हैं. साथ ही इसके कारण विद्युत् अधिकारियों ने विद्युत् चोरी पर भी रोल लगाई है जिसका आरोप भी लोग मुझी पर लगाते हैं और मेरे विरुद्ध ४० वर्षों से चली आ रही विद्युत् चोरी की परम्परा को तोड़ने के लिए दुष्प्रचार किया जा रहा है.

मेरे चीफ इंजीनियर पद पर रहने के कारण गाँव के बहुत से लोग समझते हैं कि मैं बहुत धनवान हूँ और मेरे बच्चों के प्रतिष्ठित होने के कारण भी लोग समझते हैं कि मेरे पास धनाभाव नहीं है. जबकि मैं गाँव के एक साधारण व्यक्ति की भांति ही रहता हूँ और कदापि धनवान नहीं हूँ. प्रधान पद पाने की मेरी स्वीकृति के बाद अनेक लोगों ने मुझपर शराब और अन्य प्रकार की दावतें देने के लिए दवाब देना आरम्भ किया जो मैं कठोरता से निरस्त करता रहा. मेरे इस रुख से अनेक लोग मुझसे रुष्ट हो गए.
Syndromes of Corruption: Wealth, Power, and Democracy

गाँव की लगभग ५० बीघा भूमि ग्रामसभा के स्वामित्व में है जो सभी अनधिकृत रूप से निजी अधिकारों में ले ली गयी है. ऐसा विगत २० वर्षों से हो रहा है, किन्तु किसी प्रधान ने इसे वापिस प्राप्त कर इसके सदुपयोग करने के प्रयास नहीं किये. यहाँ तक कि भूमि उपलब्ध न होने के कारण गाँव में राजकीय सहायता से उच्च प्राथमिक विद्यालय का निर्माण नहीं हो सका है, और गाँव में बच्चों के खेलने के लिए कोई स्थान उपलब्ध नहीं है. गाँव के निर्धन वर्ग को आशा है कि मैं इस भूमि को निजी अधिकारों से मुक्त करा उन्हें अधिकृत उपयोग के लिए आबंटित कर सकूंगा, तथा स्कूल आदि का निर्माण करा सकूंगा. मैंने इसकी अनौपचारिक घोषणा भी कर दी. इससे वे लोग मुझसे रुष्ट हो गए जो इस भूमि पर अधिकार किये हुए हैं तथापि निर्धन वर्ग प्रसन्न हुआ. 

मुझे गाँव का भावी प्रधान समझते हुए प्रशासनिक अधिकारियों ने अनधिकृत रूप में मुझसे गाँव के २० ऐसे लोगों की सूची माँगी जिन्हें आवासीय भवन की समस्या है ताकि उन्हें राज्य की ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की जा सके. सबसे पहले तो मेरे एक निकट सहयोगी और आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति ने अपने उस भाई के लिए आर्थिक सहायता की मांग की जो विगत ६ वर्षों से न तो गाँव में रहता है और न ही कभी यहाँ आता है. इस सुझाव के मेरे द्वारा निरस्त किये जाने पर वह मुझसे रुष्ट हो गया. इससे मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे कुछ सहयोगी मुझे क्यों इस पद पर बैठाना चाहते हैं.
Corruption and Government: Causes, Consequences, and Reform

मैंने गाँव के निर्धन वर्ग को आवासीय सहायता की सूचना दी तथा जिस किसी से भी इसके बारे में आवासविहीन व्यक्ति का नाम पूछा उसने स्वयं का नाम ही प्रस्तावित किया. उसके आवास को देखने पर मुझे वह संतोषजनक लगा तथा जो कुछ वर्ष पहले ही राजकीय सहायता से बनवाया गया था. ऐसे प्रस्तावों को निरस्त किये जाने पर वे सभी मुझसे रुष्ट हो गए, क्योंकि वे इसके आदि हैं और उन्हें बार-बार ऐसी सहायता दी जाती रही हैं तथा उनसे रिश्वत ली जाती रही है. कई दिन तक प्रयास करने पर मैं पूरे गाँव में केवल १२ ऐसे व्यक्ति खोज पाया जिन्हें आवासीय समस्या है. मैंने उनके नाम अधिकारियों को सौंप दिए किन्तु इस प्रक्रिया में गाँव के बहुत से लोगों को रुष्ट कर दिया.
A Framework for Understanding Poverty 
अपने बारे में आकलन के लिए कल मैंने गाँव के ५० प्रमुख व्यक्तियों की एक मीटिंग बुलाई थी जिन में अधिकाँश वे व्यक्ति सम्मिलित थे जो मुझसे यह पद स्वीकार करने का आग्रह करते रहे थे. इनमें से केवल २० व्यक्ति ही मीटिंग में उपस्थित हुए. इनमें कुछ अपने स्वार्थों की आपूर्ति के लिए उपस्थित ते तो कुछ अन्य इस आशा में थे कि मेरे यहाँ भव्य दावत होगी. मैंने केवल संतरे के पेय से उनका स्वागत किया, इससे कुछ असंतुष्ट हो गए.

आज प्रातः मैं उन लोगों से मिला जो मीटिंग में उपस्थित नहीं हे थे और उनसे अनुपस्थिति का कारण पूछा. मुझे ज्ञात हुआ कि उनमें से अधिकाँश मुझसे उपरोक्त किसी न किसी कारण से रुष्ट हैं. इस पर मैंने प्रधान पद हेतु चुनाव लड़ने का निर्णय रद्द कर दिया.    

रविवार, 16 मई 2010

महाभारत युद्ध का कारण और परिणाम

कृत्रिम रूप से जन्म करते जाने के कारण अपने काल का सर्वाधिक क्रूर और चालाक व्यक्ति था. उसका तुलनीय दुष्ट व्यक्ति न कभी पहले कभी उत्पन्न हुआ और न ही उसके बाद से अब तक. ऐसा व्यक्ति कृत्रिम विधि-विधान से विश्व पर शासन करने की महत्वाकांक्षा के लिए उत्पन्न किया गया था. तत्कालीन विश्व में भारत ही सर्वाधिक विशाल समतल भू क्षेत्र था जो विकास पथ पर तीव्रता से आगे बढ़ रहा था. यद्यपि सभ्यता और विकास की दृष्टि से ग्रीस में एथेंस तत्कालीन भारत से आगे था किन्तु इसका क्षेत्रफल भारत की तुलना में नगण्य था, इसलिए उस पर तो कभी भी अधिकार स्थापित किया जा सकता था.

ऐसे स्थिति में भारत पर शासन करना विश्व पर शासन करने का आरम्भ बिंदु हो सकता था, यही प्लेटो की सोच थी जिसके लिए उसने पहले एक यहूदी परिवार भारत भेजा और फिर उस परिवार में कृष्ण का जन्म कराया - एक बैंगनी रंग के शिशु के रूप में, जैसा रंग किसी शिशु का पहले कभी नहीं रहा था. इस विशिष्टता और अनेक विशिष्ट प्रशिक्षणों द्वारा कृष्ण को अद्भुत नाटक-कार बना दिया जिसके बल पर उसे ईश्वर का रूप सिद्ध कर दिया गया. इसी कृष्ण ने महाभारत युद्ध की रूपरेखा बनायी जिसमें उसने तत्कालीन विश्व के सभी राजाओं को समेट लिया - कुछ पक्ष में तथा कुछ विपक्ष में, ताकि सभी की परस्पर हत्या कराई जा सके और कृष्ण विश्व पर शासन स्थापित कर सके.

युद्ध के लिए 'पांडवों को राज्य में हिस्सा दिलवाने' का बहाना बनाया गया. पांडव चूंकि कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं, इसलिए सभ्य एवं कुलीन देव तथा आर्य इसके लिए तैयार न थे, तथापि वृद्धजनों के आदेश पर उन्हें राज्य में भागीदारी दे दी गयी. किन्तु वे राज्य के संचालन एवं इसकी रक्षा करने में पूर्णतः असमर्थ थे, इस कारण से वे इसे जुए में हार गए. यहाँ तक कि मूर्ख पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी को भी एक निर्जीव संपत्ति के रूप में जुए के दांव पर लगा दिया और वे उसे भी हार गए. स्त्री जाति का इससे भीषण अपमान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी देखा गया है.

कृष्ण पांडवों का सतत पथप्रदर्शक था तथापि उन्होंने राज्य जुए में खो दिया, इसमें कृष्ण का आशय महाभारत युद्ध कराना ही था, अन्यथा युद्ध की कोई संभावना नहीं थी. युद्ध के लिए विदुर के माध्यम से सिकंदर को आमंत्रित करना भी कृष्ण की युद्ध की योजना का ही एक अंग था.

युद्ध में जय-पराजय का पूर्वाकलन करना पूरी ताः संभव नहीं होता, इसलिए कृष्ण कदापि अपना जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की. वह जानता था कि सभ्य एवं शिष्ट देव और आर्य कदापि निःशस्त्र पर शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे और वह युद्ध की विभीषिका में भी सुरक्षित बना रहेगा. साथ ही उसने उदध इतना व्यापक बना दिया जिससे भूमंडल पर उसका कोई प्रतिद्वंदी शेष न रहे.

युद्ध आरम्भ होने के अंतिम समय पर युद्ध टालने के लिए अर्जुन ने पूरा प्रयास किया और उसने युद्ध की विभीषिका को समझते हुए किसी भी मूल्य पर युद्ध न करने की ठान ली. किन्तु कृष्ण ने अपनी योजना असफल होते देख अपनी पूरी शक्ति अर्जुन को भ्रमित करने में लगा दी. उसने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई और उसे युद्ध ही उसका धर्म बताया. किन्तु उसने आचार्य ड्रोन को यह नहीं बताया कि वे ब्रह्मण थे, और युद्ध उनका धर्म नहीं था. उसने स्वयं को यह पाठ नहीं पढाया कि जब वह अन्य लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है तो स्वयं भी इसमे सशस्त्र सम्मिलित होना चाहिए. सारथी के निकृष्ट कार्य करते हुए अमानी कायरता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए. अंततः कृष्ण अपने दुश्चक्र में सफल रहा और युद्ध हुआ.
Mahabharat
युद्ध का परिणाम कृष्ण की आशाओं के अनुकूल ही रहा, उसमें विश्व के सभी योद्धा खेत रहे, शेष बचा तो कृष्ण और पांडव, तथा कुछ अन्य जिनमें विष्णु और सिकंदर भी सम्मिलित थे. पांडवों को राज्य दिलाने के बहाने से युद्ध नियोजित किया गया था किन्तु युद्ध में विजय के बाद भी राज्य पांडवों को नहीं सौंपा गया, सिकंदर और कृष्ण के परामर्श से यहूदी वंश के उत्तरिधिकारी महापद्मानंद को भारत भूमि का सम्राट बनाया गया. युद्ध के बाद सिकंदर भारत से बेबीलोन गया और ज्ञात विश्व इतिहास के अनुसार उसके कुछ समय बाद वहीं मर गया.

महाभारत युद्ध का कारण और परिणाम

कृत्रिम रूप से जन्म करते जाने के कारण अपने काल का सर्वाधिक क्रूर और चालाक व्यक्ति था. उसका तुलनीय दुष्ट व्यक्ति न कभी पहले कभी उत्पन्न हुआ और न ही उसके बाद से अब तक. ऐसा व्यक्ति कृत्रिम विधि-विधान से विश्व पर शासन करने की महत्वाकांक्षा के लिए उत्पन्न किया गया था. तत्कालीन विश्व में भारत ही सर्वाधिक विशाल समतल भू क्षेत्र था जो विकास पथ पर तीव्रता से आगे बढ़ रहा था. यद्यपि सभ्यता और विकास की दृष्टि से ग्रीस में एथेंस तत्कालीन भारत से आगे था किन्तु इसका क्षेत्रफल भारत की तुलना में नगण्य था, इसलिए उस पर तो कभी भी अधिकार स्थापित किया जा सकता था.

ऐसे स्थिति में भारत पर शासन करना विश्व पर शासन करने का आरम्भ बिंदु हो सकता था, यही प्लेटो की सोच थी जिसके लिए उसने पहले एक यहूदी परिवार भारत भेजा और फिर उस परिवार में कृष्ण का जन्म कराया - एक बैंगनी रंग के शिशु के रूप में, जैसा रंग किसी शिशु का पहले कभी नहीं रहा था. इस विशिष्टता और अनेक विशिष्ट प्रशिक्षणों द्वारा कृष्ण को अद्भुत नाटक-कार बना दिया जिसके बल पर उसे ईश्वर का रूप सिद्ध कर दिया गया. इसी कृष्ण ने महाभारत युद्ध की रूपरेखा बनायी जिसमें उसने तत्कालीन विश्व के सभी राजाओं को समेट लिया - कुछ पक्ष में तथा कुछ विपक्ष में, ताकि सभी की परस्पर हत्या कराई जा सके और कृष्ण विश्व पर शासन स्थापित कर सके.

युद्ध के लिए 'पांडवों को राज्य में हिस्सा दिलवाने' का बहाना बनाया गया. पांडव चूंकि कुंती के अवैध संबंधों से उत्पन्न संतानें थीं, इसलिए सभ्य एवं कुलीन देव तथा आर्य इसके लिए तैयार न थे, तथापि वृद्धजनों के आदेश पर उन्हें राज्य में भागीदारी दे दी गयी. किन्तु वे राज्य के संचालन एवं इसकी रक्षा करने में पूर्णतः असमर्थ थे, इस कारण से वे इसे जुए में हार गए. यहाँ तक कि मूर्ख पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी को भी एक निर्जीव संपत्ति के रूप में जुए के दांव पर लगा दिया और वे उसे भी हार गए. स्त्री जाति का इससे भीषण अपमान न तो पहले कभी हुआ था और न ही उसके बाद कभी देखा गया है.

कृष्ण पांडवों का सतत पथप्रदर्शक था तथापि उन्होंने राज्य जुए में खो दिया, इसमें कृष्ण का आशय महाभारत युद्ध कराना ही था, अन्यथा युद्ध की कोई संभावना नहीं थी. युद्ध के लिए विदुर के माध्यम से सिकंदर को आमंत्रित करना भी कृष्ण की युद्ध की योजना का ही एक अंग था.

युद्ध में जय-पराजय का पूर्वाकलन करना पूरी ताः संभव नहीं होता, इसलिए कृष्ण कदापि अपना जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की. वह जानता था कि सभ्य एवं शिष्ट देव और आर्य कदापि निःशस्त्र पर शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे और वह युद्ध की विभीषिका में भी सुरक्षित बना रहेगा. साथ ही उसने उदध इतना व्यापक बना दिया जिससे भूमंडल पर उसका कोई प्रतिद्वंदी शेष न रहे.

युद्ध आरम्भ होने के अंतिम समय पर युद्ध टालने के लिए अर्जुन ने पूरा प्रयास किया और उसने युद्ध की विभीषिका को समझते हुए किसी भी मूल्य पर युद्ध न करने की ठान ली. किन्तु कृष्ण ने अपनी योजना असफल होते देख अपनी पूरी शक्ति अर्जुन को भ्रमित करने में लगा दी. उसने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई और उसे युद्ध ही उसका धर्म बताया. किन्तु उसने आचार्य ड्रोन को यह नहीं बताया कि वे ब्रह्मण थे, और युद्ध उनका धर्म नहीं था. उसने स्वयं को यह पाठ नहीं पढाया कि जब वह अन्य लोगों को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा है तो स्वयं भी इसमे सशस्त्र सम्मिलित होना चाहिए. सारथी के निकृष्ट कार्य करते हुए अमानी कायरता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए. अंततः कृष्ण अपने दुश्चक्र में सफल रहा और युद्ध हुआ.
Mahabharat
युद्ध का परिणाम कृष्ण की आशाओं के अनुकूल ही रहा, उसमें विश्व के सभी योद्धा खेत रहे, शेष बचा तो कृष्ण और पांडव, तथा कुछ अन्य जिनमें विष्णु और सिकंदर भी सम्मिलित थे. पांडवों को राज्य दिलाने के बहाने से युद्ध नियोजित किया गया था किन्तु युद्ध में विजय के बाद भी राज्य पांडवों को नहीं सौंपा गया, सिकंदर और कृष्ण के परामर्श से यहूदी वंश के उत्तरिधिकारी महापद्मानंद को भारत भूमि का सम्राट बनाया गया. युद्ध के बाद सिकंदर भारत से बेबीलोन गया और ज्ञात विश्व इतिहास के अनुसार उसके कुछ समय बाद वहीं मर गया.

शनिवार, 15 मई 2010

आदर्शवादिता और व्यावहारिकता

जन साधारण की मान्यता है कि आदर्शवादिता और व्यावहारिकता में ध्रुवीय अंतराल होता है और दोनों का समन्वय संभव नहीं हो सकता. महामानवीय दृष्टिकोण इससे भिन्न है जिसके अनुसार आदर्शवादिता व्यावहारिकता की कोटि का मानदंड होता है. जिसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का लक्ष्य आदर्श के निकटतम पहुँचने का प्रयास करना चाहिए, यह निकटता ही उसकी सफलता होती है. 

प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म हेतु एक आदर्श होना चाहिए, और उसे इसके लिए प्रयास करने चाहिए. यद्यपि व्यक्ति की परिस्थितियां प्रायः इसमें बाधक होती हैं, तथापि उसका प्रयास होना चाहिए कि वह परिस्थितियों पर विजय पाए और आदर्श स्थिति की प्राप्ति करे. इस प्रयास में उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि परिस्थितियां उसके नियंत्रण में नहीं होतीं, क्योंकि इनका निर्माण पूर्वकाल में होता है, और ये पूरे सामाजिक परिपेक्ष्य पर निर्भर करती हैं. व्यक्ति का न तो पूर्व कालपर कोई नियंत्रण होता है और ना ही सामाजिक परिपेक्ष्य पर. इस कारण से व्यक्ति यदि अपने आदर्श की प्राप्ति नहीं कर पाता है, तो उसे इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए क्योंकि इसमें उसका कोई दोष नहीं होता.

आदर्श और व्यवहार में परिस्तितिवश अंतर बने रहने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि व्यक्ति इस अंतराल को अपना भाग्य स्वीकार कर ले और इसे मिटने के कोई प्रयास ही न करे, जैसा कि प्रायः साधारण मनुष्य करते हैं. इसी कारण से जन-साधारण के कोई आदर्श ही नहीं होते क्योंकि इसे वे अप्राप्य मानकर इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते. यह साधारण और असाधारण मनुष्यों में स्पष्ट अंतराल होता है.     

Great Expectationsइस कारण से प्रत्येक असाधारण व्यक्ति का सदैव एक लक्ष्य होता है जो उसके उस विषयक आदर्श से उत्प्रेरित होता है. उसका प्रयास लक्ष्य की प्राप्ति होता है, चाहे वह जन साधारण की दृष्टि में कितना भी अव्यवहारिक प्रतीत न हो. उसकी दृष्टि सदैव उसी लक्ष्य पर स्थिर होती है.
 
परिस्थितिवश किसी आदर्श स्थिति के अप्राप्य होने अर्थ यह कदापि नहीं है कि आदर्श निरर्थक है. इसका अर्थ यह है कि परिस्थितियां विकृत हो गयीं हैं जिनके संशोधन प्रयासों की आवश्यकाता है. अतः असाधारण व्यक्ति अपने आदर्श प्राप्ति के प्रयासों के साथ-साथ परिस्थितियों के संशोधन के बी प्रयास करता है. यही उसकी असधारानता अथवा महामानवता होती है.