शनिवार, 2 जनवरी 2010

एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  

एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

बौद्धिक जनतंत्र में मताधिकार

बौद्धिक जनतंत्र सभी वयस्क नागरिकों को एक समान मताधिकार नहीं देता अपितु यह अधिकार नागरिकों की शैक्षिक योग्यता एवं अनुभव पर निर्भर करता है. इस विषय में सर्व प्रथम हम उन वर्गों का उल्लेख करते हैं जिन्हें बौद्धिक जनतंत्र कोई मताधिकार नहीं देता.


मताधिकार से वंचित वर्ग
१. २५ वर्ष से कम आयु के नागरिक
भारत में कुछ समय पहले तक मताधिकार की न्यूनतम सीमा २१ वर्ष थी और पुरुष विवाह की न्यूनतम सीमा थी १८ वर्ष. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री बनने पर मताधिकार की न्यूनतम आयु सीमा १८ वर्ष कर दी क्योंकि १८ वर्ष के बालक को राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह के योग्य समझा गया. इसके साथ ही २१ वर्ष के बालक को व्यक्तिगत दायित्व निर्वाह के अयोग्य माना गया और विवाह की न्यूनतम सीमा २१ वर्ष कर दी गयी. ऐसा है स्वतंत्र भारत की राजनीती का खेल जिसमें १८ से २१ वर्ष आयु वर्ग को व्यक्तिगत दायित्व के योग्य और राष्ट्रीय दायित्व के योग्य बना दिया गया, क्योंकि राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह की किसी को कोई चिंता नहीं है. इस परिपेक्ष्य में बौद्धिक जनतंत्र में मताधिकार की न्यूनतम सीमा २५ वर्ष निर्धारित की गयी है क्योंकि राष्ट्रीय दायित्व को व्यक्तिगत दायित्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है जिसके निर्वाह के लिए मताधिकारी का परिपक्व होना अनिवार्य है.

२.  ७० वर्ष से अधिक आयु के नागरिक
बौद्धिक जनतंत्र ७० वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक नागरिक के ससम्मान जीवनयापन का दायित्व अपने ऊपर लेता है जिसके ऐसे सभी नागरिकों को एक समान सम्मानजनक पेंशन प्रदान की जायेगी. राजनेताओं को इस वर्ग के नागरिकों के मत पाने की लालसा से मुक्त करने के लिए बौद्धिक जनतंत्र इस वर्ग को कोई मताधिकार नहीं देता. स्वतंत्र भारत का स्पष्ट अनुभव है कि राजनेता मतों के लोभ में वर्गों को अनुचित लाभ प्रदान करने से नहीं चूकते.

३.  अशिक्षित व्यक्ति
आधुनिक युग में किसी व्यक्ति का अशिक्षित होना शर्मनाक है - व्यक्तियों तथा शासन व्यवस्था दोनों के लिए. व्यक्ति का अशिक्षित होना सिद्ध करता है कि व्यक्ति अपने, समाज के तथा राष्ट्र के प्रति संवेदनशील नहीं है और न ही इसके योग्य है. भारत में न्यूनतम सुप्रमाणित शिक्षा हाईस्कूल अथवा कक्षा दस है. इससे कम शिक्षित व्यक्ति को अशिक्षित वर्ग में रखते हुए बौद्धिक जनतंत्र ऐसे किसी नागरिक को मताधिकार नहीं देता.

४. अपराधी व्यक्ति
बौद्धिक जनतंत्र समाज एवं राजनीति के शोधन के लिए अपराधियों को जनतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखने के उद्देश्य से ऐसे किसी व्यक्ति को मताधिकार नहीं देता जो किसी न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित किया जा चुका है जब तक कि वह उच्चतर न्यायालय द्वारा आरोप से मुक्त नहीं कर दिया जाता.  अपराधों की रोकथाम तथा राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ रोकने के लिए यह आवश्यक समझा गया है.

५. राज्यकर्मी
राज्यकर्मी शासन-प्रशासन का अंग होने के कारण सत्ता में भागीदार होते हैं और राज्य से वेतन पाते हैं. स्वतंत्र भारत में यही वर्ग राजनेताओं की सर्वाधिक अनुकम्पा का पात्र बना रहा है क्योंकि प्रत्येक राजनेता इस वर्ग के मत पाने के लिए इन्हें प्रसन्न करता रहता है क्योंकि ये संगठित होते हैं तथा जनमत को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. इन दोनों दृष्टियों से बौद्धिक जनतंत्र राज्यकर्मियों को मताधिकार प्रदान नहीं करता.

६. मानसिक रोगी
मानसिक रोगी उचित-अनुचित का निर्णय करने में असक्षम होता है इसलिए राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को भी नहीं समझ सकता. इसलिए बौद्धिक जनतंत्र में ऐसे प्रमाणित व्यक्तियों को मताधिकार से वंचित रखने का प्रावधान है.


७. तीन अथवा अधिक संतान उत्पन्न करने वाले युगल
भारत की अनेक समस्याओं में से सर्वाधिक विकराल समस्या निरंतर बढ़ती हुई जनसँख्या है. यक प्राकृत तथा कृत्रिम दोनों कारणों से बढ़ रही है. ध्यान देने योग्य कृत्रिम कारण यह है कि कुछ जातियां तथा वर्ग जनतंत्र में राजनैतिक सत्ता हथियाने के लिए अपने मतों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ा रही हैं और इस कारण से इन्हें अधिकाधिक राजनैतिक शक्ति एवं संरक्षण प्राप्त होने लगा है. अत्यधिक जनसंख्या देश के विकास को भी दुष्प्रभावित कर रही है. इस समस्या के निदान के लिए बौद्धिक जनतंत्र ऐसे प्रत्येक युगल को मताधिकार से वंचित करता है जो ३ या अधिक संतानों को उत्पन्न करता है.

८. भिक्षु

भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप होते हैं तथा बौद्धिक जनतंत्र उन्हें किसी सामाजिक अथवा राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह के योग्य नहीं मानता. साधू, सन्यासी, संत, भिखारी, पुजारी, धर्म-प्रचारी, आदि को इसी वर्ग में रखा गया है.

मत-मान
इसके बाद हम आते हैं शिक्षा एवं अनुभव के आधार पर मताधिकार प्रदान करने के प्रावधान पर. बौद्धिक जनतंत्र शिक्षित व्यक्तियों को तीन वर्गों में रखता है - हाईस्कूल तथा इंटर शिक्षित अथवा समकक्ष, स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षित अथवा समकक्ष, एवं व्यावसायिक रूप से शिक्षित अथवा समकक्ष. अनुभव के आधार पर २५-४५ आयु वर्ग तथा ४६-७० आयु वर्ग.  बौद्धिक जनतंत्र इन वर्गों को निम्न प्रकार से अंक निर्धारित करता है -
हाईस्कूल तथा इंटर शिक्षित अथवा समकक्ष : ०.५ अंक,
स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षित अथवा समकक्ष : १.० अंक,
व्यावसायिक रूप से शिक्षित अथवा समकक्ष : १.५ अंक,
२५-४५ आयु वर्ग : ०.५ अंक, तथा
४६-७० आयु वर्ग : १.० अंक

इस प्रकार प्रत्येक मताधिकारी को १, १.५, २ अथवा २.५ अंक प्राप्त होते हैं जो उसके मत का मान होगा. बौद्धिक जनतांत्रिक चनाव प्रक्रिया में प्रत्याशियों को प्राप्त मतों में उनके प्रत्येक मतदाता के मत में इस मान का गुणन किया जाकर ही उन्हें प्राप्त मतों की गणना की जायेगी. इस प्रावधान से शिक्षा को बढ़ावा मिलाने के साथ-साथ शासन संचालन में बौद्धिक गुणता का बीजारोपण होगा जिससे देश को अच्छे व्यक्तियों की सरकार प्राप्त होगी.

इस  सबका स्पष्ट उद्देश्य यह है कि बौद्धिक जन्तर में सरकार चुने जाने की प्रक्रिया जनतंत्र की तरह केवल संख्या-आधारित न रहकर गुण-आधारित होगी. यही इस देश की समस्याओं के समाधान का मार्ग है.

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.  

महेश्वर का आक्रोश

महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.  

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

बौद्धिक जनतंत्र में भूमि प्रबंधन


उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मनुष्य जाति भूमि का केवल ३ प्रतिशत भाग बस्तियों के लिए उपयोग करती है, इस पर भी विश्व में लगभग ३० प्रतिशत जनसँख्या घरविहीन है. अमेरिका में भी अधिकाँश वृद्ध जन घरविहीन होने के कारण अपनी कारों में रात्रि व्यतीत करते हैं. भारत के शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों से आजीविका के लिए आये अधिकाँश व्यक्ति घर-विहीन होते हैं तथा ५० प्रतिशत घर कहे जाने वाले घरों में अत्यधिक छोटे होने के कारण प्राकृत प्रकाश एवं वायु प्रवाह संभव नहीं होता. तकनीकी स्तर पर इन्हें रहने योग्य घर नहीं कहा जा सकता. ग्रामीण क्षेत्रों में भी अधिकाँश घर घर कहे जाने योग्य नहीं होते.

मनुष्यों के निवास हेतु घरों की इस विकराल समस्या का एकमात्र कारण है भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व. देश के कुछ लोगों ने भूमि को येन-केन-प्रकारेण अपने स्वामित्व में लेकर उसका मूल्य इतना अधिक बढ़ा दिया है कि जन-साधारण भू स्वामित्व प्राप्त करने का स्वप्न भी नहीं देख सकता. इस भूमि-हीनता का सर्वाधिक दुष्प्रभाव लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है. इस देश की विशाल भूमि पर जिन्हें सुईं की नोंक के बराबर भी भूमि प्राप्त नहीं है, उनमें राष्ट्रीयता की भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

बौद्धिक जनतंत्र में देश में भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व की समाप्ति का प्रावधान है ताकि यह प्राकृत संपदा भी जल तथा वायु की भांति सार्वजानिक हो. अतः देश की समस्त भूमि राष्ट्र के स्वामित्व में रहेगी तथा प्रत्येक नागरिक परिवार को अपना घर बनाने के लिए एक निःशुल्क भूखंड प्रदान किया जाएगा जिसका माप सभी परिवारों के लिए एक समान होगा तथा जिसकी स्थिति परिवार की इच्छानुसार उपलब्ध होने पर होगी. इस भूखंड को परिवार कभी भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदल सकेगा. यदि कोई परिवार घर बनने के लिए एक से अधिक भूखंड चाहता है तो उसे अतिरिक्त भूखंड किराए पर दिया जायेगा. यह किराया बस्ती की जनसंख्या के अनुसार चार चार वर्गों में पूर्व-निर्धारित रहेगा - ग्रामीण, उप-नगरीय, नगरीय तथा विशाल-नगरीय. ग्रामीण क्षेत्रों में किराया न्यूनतम तथा विशाल-नगरीय क्षेत्रों में किराया अधिकतम रहेगा.

घर हेतु भूमि के अतिरिक्त प्रत्येक नागरिक कृषि, खनन, उद्योग तथा व्यवसाय हेतु भूमि अपने वांछित स्थान पर किराए पर ले सकेगा. इनमें कृषि भूमि का किराया न्यूनतम तथा क्रमानुसार व्यावसायिक भूमि का किराया सर्वाधिक होगा जिसके निर्धारण में ग्रामीण, उप-नगरीय, नगरीय तथा विशाल-नगरीय क्षेत्रों पर भी विचार होगा. इस प्रकार घर हेतु भूमि के अतिरिक्त भूमि के किरायों की दरें १६ होंगी. यह भूमि भी किरायेदार द्वारा कभी भी लौटाई जा सकती है. सभी बस्तियों में स्थान-स्थान पर राष्ट्र की संपदा के रूप में वन क्षेत्र पूर्व-निर्धारित होंगे. इन सब उपयोगों के अतिरिक्त शेष भूमि पर वन लगाए जायेंगे. सभी वन क्षेत्र राष्ट्र की संपदा के रूप में निजी व्यक्तियों अथवा संगठनों द्वारा प्रबंधित होंगे.